गुरुवार, 6 जून 2024

 हमारी विवाहित महिलाओं ने माथे पर पल्लू तो छोड़िये, साड़ी पहनना तक छोड़ दिया। तिलक बिंदी तो हमारी पहचान हुआ करती थी न... कोरा मस्तक और सुने कपाल को तो हम अशुभ, अमंगल का और शोकाकुल होने का चिह्न मानते थे न... हमने घर से निकलने से पहले तिलक लगाना तो छोड़ा ही, हमारी महिलाओं ने भी आधुनिकता और फैशन के चक्कर में और फारवर्ड दिखने की होड़ में माथे पर बिंदी लगाना छोड़ दिया?

हम लोगो ने नामकरण, विवाह, सगाई जैसे संस्कारों को दिखावे की लज्जा विहीन फूहड़ रस्मों में और जन्म दिवस, वर्षगांठ जैसे अवसरों को बर्थ-डे और एनिवर्सरी फंक्शंस में बदल दिया तो क्या यह हमारी त्रुटि नहीं है?

 हम लोगों ने तो स्वयं ही मंदिरों की ओर देखना छोड़ दिया, जाते भी केवल तभी है जब भगवान से कुछ मांगना हो अथवा किसी संकट से छुटकारा पाना हो... अब यदि हमारे बच्चे ये सब नहीं जानते कि मंदिर में क्यों जाना है, वहाँ जाकर क्या करना है। हमारे  बच्चे कॉन्वेंट से पढ़ने के बाद पोयम सुनाते थे तो हमारा सर ऊंचा होता था ! होना तो यह चाहिये था कि वे बच्चे भगवद्गीता के चार श्लोक कंठस्थ कर सुनाते तो हमको गर्व होता! इसके उलट जब आज वो नहीं सुना पाते तो ना तो हमारे मन में इस बात की कोई ग्लानि है, ना ही इस बात पर हमें कोई खेद है!  बड़ों से, हम लोगों ने प्रणाम और नमस्कार को हैलो हाय से बदल दिया... तो इसके दोषी क्या हम नहीं हैं?  हमारा बच्चा न रामायण पढ़ता है और ना ही गीता.... उसे संस्कृत तो छोड़िये, शुद्ध हिंदी भी ठीक से नहीं आती क्या यह भी हमारी त्रुटि नहीं है ?

हमारे पास तो सब कुछ था-संस्कृति, इतिहास, परंपराएं! हमने उन सब को तथाकथित आधुनिकता की अंधी दौड़ में त्याग दिया ।हम लोगों ने तो स्वयं ही तिलक, जनेऊ, शिखा आदि से और हमारी महिलाओं को भी माथे पर बिंदी, हाथ में चूड़ी और गले में मंगलसूत्र-इन सब से लज्जा आने लगी, इन्हें धारण करना अनावश्यक लगने लगा और गर्व के साथ खुलकर अपनी पहचान प्रदर्शित करने में संकोच होने लग गया।... तथाकथित आधुनिकता के नाम पर हम लोगों ने स्वयं ही अपने रीति रिवाज, अपनी परंपराएं, अपने संस्कार, अपनी भाषा, अपना पहनावा-ये सब कुछ पिछड़ापन समझकर त्याग दिया!

आज इतने वर्षों बाद हम लोगों की नींद खुली है तो हम अपने ही समाज के दूसरे लोगों को अपनी जड़ों से जुड़ने के लिये कहते फिर रहे हैं!

अपनी पहचान के संरक्षण हेतु जागृत रहने की भावना किसी भी सजीव समाज के लोगों के मन में स्वतःस्फूर्त होनी चाहिये, उसके लिये हमें अपने ही लोगों को कहना पड़ रहा है.... विचार कीजिये कि यह कितनी बड़ी विडंबना है!

यह भी विचार कीजिये कि अपनी संस्कृति के लुप्त हो जाने का भय आता कहां से है और असुरक्षा की भावना का वास्तविक कारण क्या है? हमारी समस्या यह है कि हम अपने समाज को तो जागा हुआ देखना चाहते हैं किंतु ऐसा चाहते समय हम स्वयं आगे बढ़कर उदाहरण प्रस्तुत करने वाला आचरण नहीं करते, जैसे बन गए हैं वैसे ही बने रहते हैं... हम स्वयं अपनी जड़ों से जुड़े हुए हो, ऐसा दूसरों को हमारे में दिखता नहीं है,, और इसीलिये हमारे अपने समाज में तो छोड़िये, हमारे परिवार में भी कोई हमारी सुनता नहीं,, ठीक इसी प्रकार हमारे समाज में अन्य सब लोग भी ऐसा ही हमारे जैसा डबल स्टैंडर्ड वाला हाइपोक्रिटिकल व्यवहार (शाब्दिक पाखंड) करते हैं! इसीलिये हमारे समाज में कोई भी किसी की नहीं सुनता!... क्या यह हमारी त्रुटि नहीं है ।

दशकों से अपनी हिंदू पहचान को मिटा देने का कार्य हम स्वयं ही एक दूसरे से अधिक बढ़-चढ़ करते रहे,, और आज भी ठीक वैसा ही कर रहे हैं।  


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