मोक्ष-पट अर्थात साँप सीढी खेल का प्रारम्भिक उल्लेख और श्रेय तेहरवीं शताब्दी में महाराष्ट्र के संत-कवि ज्ञानदेव को जाता है। उस समय इस खेल को मोक्ष-पट का नाम दिया गया था। खेल का लक्ष्य केवल मनोरंजन ही नहीं था अपितु हिन्दू धर्म मर्यादाओं का ज्ञान मनोरंजन के साथ साथ जन साधारण को देना भी था। खेल को एक कपडे पर चित्रित किया गया था जिस में कई खाने बने होते थे और उन्हें घर की संज्ञा दी गयी थी।प्रत्येक घर को दया, करुणा, भय आदि भाव-वाचक संज्ञाओं से पहचाना जाता था। सीढियाँ सद्गुणों को तथा साँप अवगुणों का प्रतिनिधित्व करते थे। साँप और सीढियों का भी अभिप्राय था। साँप की तरह की हिंसा जीव को नरक में धकेल देती थी तथा विद्याभ्यास उसे सीढियों के सहारे उत्थान की ओर ले जाते थे। खेल को सारिकाओं या कौडियों की सहायता से खेला जाता था। सतरहवीं शताब्दी में यह खेल थँजावर में प्रचिल्लित हुआ।इस के आकार में वृद्धि की गयी तथा कई अन्य बदलाव भी किये गये। तब इसे ‘परमपद सोपान-पट्टा’ कहा जाने लगा। इस खेल की नैतिकता विकटोरियन काल के अंग्रेजों को भी कदाचित भा गयी और वह इस खेल को 1892 में इंगलैण्ड ले गये। वहाँ से यह खेल अन्य योरूपीय देशों में लुड्डो अथवा स्नेक्स एण्ड लेडर्स के नाम से फैल गया।
गीता का एक-एक अध्याय अपने में पूर्ण है। गीता एक किताब नहीं, अनेक किताबें है। गीता का एक अध्याय अपने में पूर्ण है। अगर एक अध्याय भी गीता का ठीक से समझ में आ जाए--समझ का मतलब, जीवन में आ जाए, अनुभव में आ जाए, खून में, हड्डी में आ जाए; मज्जा में, मांस में आ जाए; छा जाए सारे भीतर प्राणों के पोर-पोर में--तो बाकी किताब फेंकी जा सकती है। फिर बाकी किताब में जो है, वह आपकी समझ में आ गया। न आए, तो फिर आगे बढ़ना पड़ता है।
मंगलवार, 20 अगस्त 2024
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