सोमवार, 9 सितंबर 2024

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।

 खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।।

आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं। 

दुनियां के सामने, व्यर्थ मुस्कुराता रहा।।

रातें लंबी थीं, पर नींद कभी भी आई नहीं। 

चाहतें भी थीं, पर ज़ाहिर कभी हो पाई नहीं।।

हर ख़्वाब अधूरा, दिल में कहीं समाया रहा। 

फर्ज की आग में, मैं खुद को जलाता रहा।।

न कभी शिकायत की, अपने दर्द की मैंने। 

हर जख्म पर, मरहम वक्त ने लगा दिया।।

जिम्मेदारियों के बोझ तले, झुका रहा मैं। 

सोया ही था कि, ख्वाब ने फिर जगा दिया।।

कभी सोचा ही नहीं, क्या पाया, क्या खो दिया। 

जीवन के इस खेत में, जो बीज फर्ज का बो दिया।।

बो कर बीज फ़र्ज़ का, मैं दर्द को उगाता रहा।

 के कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें मैं यूं निभाता रहा।।

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कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...