शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

गंगा स्नान

 हमने तीर्थ बनाए थे, वे प्रतीक थे। फिर लेकिन प्रतीक सब गलत हो जाते हैं गलत आदमियों के हाथों में। हमारे प्रतीक थे तीर्थ कि हम कहते थे, वहां जाकर स्नान कर लो, सब पाप से छुटकारा हो जाता है। कोई तीर्थ में जाकर स्नान करने से पाप का छुटकारा नहीं होता। इतना आसान होता, तो जितने तीर्थ हमारे मुल्क में हैं और जितने पापी स्नान कर रहे हैं, इस मुल्क में पाप होता ही नहीं।

तीर्थ में स्नान करने से पाप से कोई छुटकारा नहीं होता। लेकिन बात बड़े मूल्य की है। बात असल में यह है कि पाप और पुण्य धूल से ज्यादा नहीं हैं। और जैसे धूल स्नान करने से बह जाती है और धूल कोई आपकी आत्मा में नहीं चली जाती है, बस आपकी परिधि पर होती है, ऐसे पुण्य और पाप हैं। जो जान ले तरकीब स्नान करने की, वह इनसे भी ऐसे ही मुक्त हो जाएगा, जैसे धूल से मुक्त हो जाता है।

तो तीर्थ प्रतीक थे।

रामकृष्ण से किसी ने पूछा  कि मैं गंगा जा रहा हूं। कहते हैं कि गंगा में स्नान करने से पाप धुल जाएंगे। रामकृष्ण थोड़ी अड़चन में पड़े। रामकृष्ण को लगा कि कहूं कि ऐसा ठीक नहीं है, तो गलत होगा। यह ठीक है कि कोई स्नान करने की कला जान ले और गंगा को खोज ले, तो पाप धुल जाते हैं। इस बात में कहीं भूल—चूक नहीं है। लेकिन गंगा यह नहीं है, जो बाहर बहती दिखाई पड़ती है। और स्नान की कला शरीर पर पानी डालने की नहीं है, मन पर ध्यान डालने की है।

तो बात तो ठीक ही है। प्रतीक काव्यात्मक है, लेकिन बात ठीक है। और कठिन बातें कविता में ही कही जा सकती हैं। उनके लिए गणित के फार्मूले नहीं हो सकते। क्योंकि बड़े सूक्ष्म और नाजुक इशारे हैं। पत्थर जैसे नहीं हैं, फूल जैसे हैं। उन्हें बहुत सम्हालकर काव्य में संजोकर ही बचाया जा सकता है।

तो बात तो ठीक है। लेकिन फिर भी गलत हो गई। क्योंकि लोग गंगा में स्नान करके घर लौट आते हैं, इस खयाल से कि बात खतम हो गई, फिर से पाप शुरू करो। और दिक्कत क्या है? कितने ही पाप करो, वापस गंगा में जाकर स्नान से धुल सकते हैं।

तो रामकृष्ण ने कहा, तू जा जरूर, लेकिन तुझे पता है, गंगा के किनारे बड़े वृक्ष लगे हैं, वे किसलिए लगे हैं? उस आदमी ने कहा, यह तो कहीं शास्त्रों में इसका कोई उल्लेख नहीं है। तो उन्होंने कहा कि वही असली महत्वपूर्ण बात है। जब तू गंगा में डूबेगा, तो गंगा में पाप बाहर निकल जाते हैं। क्योंकि गंगा पवित्र है। पर वे जो बड़े वृक्ष हैं, पाप उन पर बैठ जाते हैं। तो तू डूबा रहेगा कि लौटेगा? लौटेगा कि वे पाप फिर झाड़ों से उतरकर तेरे सिर पर सवार हो जाएंगे। तो गंगा तो धो देगी, लेकिन तू इस भ्रम में मत पड़ना कि खाली होकर लौट आया। वे झाड़ इसीलिए खड़े हैं!

सारे प्रतीक व्यर्थ हो जाते हैं। व्यर्थ इसलिए हो जाते हैं कि हम प्रतीकों की गरदन दबा लेते हैं। उनका निचोड़ देते हैं प्राण ही बाहर। पाप बाहर हैं, धूल से ज्यादा नहीं। झड़ाए जा सकते हैं। कोई आदमी ठीक से निर्णय भी कर ले झड़ाने का, तो झड जाते हैं। क्योंकि आपके ही निर्णय से वे पकडे गए हैं। सच तो यह है कि उन्होंने आपको पकड़ा है, यह कहना ही गलत है। आप उनको पकड़े हैं और सम्हाले हैं। जिस दिन आप छोड़ देंगे, वे गिर जाएंगे। और वह जो पकड़े हुए है, वह सदा निष्पाप है।

ओशो रजनीश



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