शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

कृष्ण कृपा

 कृष्ण के समझाने से अर्जुन नहीं समझेगा। अर्जुन के समझने से ही समझेगा। अगर कृष्ण के हाथ में यह बात होती कि अर्जुन उनके समझाने से समझता होता, तो पृथ्वी पर कोई अज्ञानी अब तक न बचता। बहुत कृष्ण हो चुके; अर्जुन बाकी हैं।

अर्जुन के समझने से घटना घटेगी। कृष्ण जो मेहनत कर रहे हैं, वह समझाने के लिए नहीं कर रहे हैं। अगर ठीक से समझें, तो वे ऐसी परिस्थिति पैदा कर रहे हैं, जहां अर्जुन समझने के लिए तैयार हो जाए जहां अर्जुन समझ सके। वे अर्जुन को धक्का दे रहे हैं। किसी तरफ इशारा कर रहे हैं। आंख तो अर्जुन को ही उठानी पड़ेगी। और अगर अर्जुन आंख उठाने को राजी न हो, तो कृष्ण के जीतने का कोई भी उपाय नहीं है।

लेकिन कृष्ण आयोजन कर रहे हैं पूरा। अलग—अलग मोर्चों से कृष्ण अर्जुन पर हमला कर रहे हैं। कई तरफ से चोट कर रहे हैं। शायद किसी चोट में अर्जुन सजग हो जाए। लेकिन यह बात शायद है। इसमें अर्जुन का सहयोग जरूरी है। और अगर अर्जुन सहयोग न दे, तो कृष्ण की कोई सामर्थ्य नहीं है।

इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। क्योंकि हम में से बहुतों को यह खयाल रहता है, गुरु—कृपा से हो जाएगा। अगर गुरु—कृपा से होता, तो इतनी बड़ी गीता बिलकुल फिजूल है। कृष्ण नासमझ नहीं हैं। अगर यह घटना कृपा से घटनी होती, तो कृष्ण जैसा कृपा करने वाला और अर्जुन जैसा कृपा को पाने वाले पात्र को दुबारा खोजने की कहां सुविधा है! दोनों मौजूद थे।

कृष्ण कृपा कर सकते थे और अर्जुन कृपा का आकांक्षी था और पात्र था। और क्या पात्रता चाहिए? इतनी आत्मीयता थी, इतनी निकटता थी कि जो बात कृपा से हो सकती, उसके लिए कृष्ण क्यों इतनी लंबी गीता में जाते! इतने लंबे आयोजन की कोई भी जरूरत नहीं थी।

नहीं; वह घटना कृपा से नहीं होने वाली। कृपा भी तभी घट सकती है, जब अर्जुन खुला हो, राजी हो, तैयार हो, सहयोग करे। यह कृपा ही है कि कृष्ण उसे समझा रहे हैं, यह जानते हुए भी कि समझाने से ही कोई समझ नहीं जाता। यह कृपा का हिस्सा है। लेकिन इस चेष्टा से संभावना है कि अर्जुन बच न पाए।

अर्जुन सारी कोशिश करेगा बचने की। अर्जुन सवाल उठाएगा, समस्याएं खड़ी करेगा। संशय—संदेह, ये सब चेष्टाएं हैं आत्मरक्षा की। अर्जुन कोशिश कर रहा है अपने को बचाने की। अर्जुन कोशिश कर रहा है कि तुम दिखा रहे हो, लेकिन हम न देखेंगे। इसको थोड़ा समझें।

अर्जुन की ये सारी शंकाएं, ये सारे संदेह इस बात की कोशिश है कि तुम दिखा रहे हो, वह ठीक, लेकिन हम न देखेंगे। हम और सवाल उठाते हैं। हम और धुंआ पैदा करते हैं। तुम जिस तरफ इशारा करते हो, हम उसको धुंधला कर देते हैं। यह आत्मरक्षा है गहरी। जैसे हम अपने शरीर को बचाना चाहते हैं, वैसे ही अपने मन को भी बचाना चाहते हैं।

जैसे कोई आपके शरीर पर हमला करे, तो आप आत्मरक्षा के लिए कुछ आयोजन करेंगे। गुरु का हमला और भी गहरा है। वह आपके मन को मिटाने के लिए तत्पर हो गया है। शरीर को जो मिटाते हैं, उनका मिटाना बहुत गहरा नहीं है। क्योंकि वासना आपकी मौजूद है। आप फिर शरीर ग्रहण कर लेंगे। वे आपसे वस्त्र छीन रहे हैं। लेकिन जो मन को मिटाने की कोशिश कर रहा है, वह आपसे सब कुछ छीन रहा है। फिर आप चाहें तो भी शरीर ग्रहण न कर सकेंगे। अगर मन समाप्त हो गया, तो जन्म की सारी व्यवस्था खो गई। मृत्यु परम हो गई।

इसलिए ध्यान महासमाधि है। महासमाधि शब्द का उपयोग हम मृत्यु के लिए भी करते हैं। वह ठीक है। क्योंकि समाधि एक भीतरी मृत्यु है। आप वस्तुत: मर जाएंगे।

तो जैसे कोई शरीर पर हमला करे तलवार से, और आप अपनी ढाल से रक्षा करें, ऐसा जब भी कोई गुरु आपके मन को तोड्ने के लिए हमला करेगा, तब शंकाओं से, संदेहों से, सवालों से आप अपनी रक्षा करेंगे। वे ढाल हैं। वह आप बचा रहे हैं। आप कह रहे हैं, करो कोशिश। शायद यह सचेतन नहीं है, यह अचेतन है।

यह वैसा ही अचेतन है, जैसा आपकी आंख के सामने कोई जोर से हाथ करे, तो आपको सोचना भी नहीं पड़ता आंख झपकने के लिए, आंख झपक जाती है। आंख झपकती है अचेतन से। आपको सोचना नहीं पड़ता। मैं आपकी आंख के सामने हाथ करूं, तो ऐसा नहीं कि आप पहले सोचते हैं कि हाथ आ रहा है, अब मैं अपने को बचाऊं, तो आंख बंद कर लूं। इतना सोचने में तो आंख फूट जाएगी। इतना समय नहीं है। और विचार में समय लगता है।

इसलिए मनुष्य के मन की दोहरी व्यवस्था है। जिन चीजों में समय की सुविधा है, उनमें हम विचार करते हैं। और जिनमें समय की सुविधा नहीं है, उनमें हम अचेतन से प्रतिकार करते हैं। आंख पर कोई हमला करे, तो तत्‍क्षण आंख बंद हो जाती है। इसकी अनकांशस, अचेतन व्यवस्था है। नींद में भी कीड़ा आपके पैर पर चले, तो पैर आप झटक देते हैं। उसके लिए होश की जरूरत नहीं है।

ठीक ऐसे ही मन भी अपनी आंतरिक रक्षा करता है। और गुरु के पास मन जितना परेशान हो जाता है, उतना कहीं और नहीं होता। क्योंकि वहा मौत निकट है। अगर ज्यादा गुरु के आस—पास रहे, तो मरना ही पड़ेगा। उससे बचने के लिए आप अपने चारों तरफ सुरक्षा की दीवार खड़ी करते हैं। वह कवच है।

अर्जुन यह कह रहा है कि समझाओ। लेकिन मुझे समझ में ही नहीं आ रहा है। जब समझ में ही नहीं आ रहा है, तो बदलने की कोई जरूरत नहीं है। मैं जैसा हूं वैसा ही रहूंगा। जब तक समझ में न आ जाए, जब तक मेरी सब शंकाएं न मिट जाएं, तब तक मैं जैसा हूं? वैसा ही रहूंगा। और इसमें दोष मेरा नहीं है। तुम नहीं समझा पा रहे हो, तो दोष तुम्हारा है।

इस भीतरी मन की कुशलता को अगर समझ लेंगे, तो दोनों बातें खयाल में आ जाएंगी कि क्यों अर्जुन सवाल उठाए चला जा रहा है और क्यों कृष्ण जवाब दिए जा रहे हैं।

यह एक खेल है। जिस खेल में अर्जुन अपनी व्यवस्था कर रहा है और कृष्ण अपनी व्यवस्था कर रहे हैं। एक जगह अर्जुन ढाल रख लेता है, कृष्ण दूसरी तरफ से हमला करते हैं, जहां उसने अभी ढाल नहीं रखी। वे उसे थका ही डालेंगे। वह ढाल रखते—रखते थक जाएगा। न केवल थक जाएगा, बल्कि ढाल रखते—रखते उसे समझ में भी आ जाएगा कि मैं क्या कर रहा हूं? मैं किससे बच रहा हूं? जो मुझे महाजीवन दे सकता है, उससे मैं बचने की कोशिश कर रहा हूं! मैं किसके संबंध में संदेह उठा रहा हूं? किसलिए उठा रहा हूं? यह उसे धीरे— धीरे खयाल में आएगा। और यह वर्षों में भी खयाल आ जाए, तो भी जल्दी है। जन्मों में भी खयाल आ जाए, तो भी जल्दी है।

इसलिए कृष्ण कितना समझाते हैं, यह बड़ा सवाल नहीं है। कितना ही समझाएं, थोड़ा ही है। और अर्जुन कितनी ही देर लगाए, तो भी जल्दी है। क्योंकि मन सब तरह के आयोजन कर लेगा, थकेगा। जब बिलकुल क्लांत हो जाएगा, जब सब संदेह उठा चुकेगा और संदेह उठाना भी व्यर्थ मालूम पड़ने लगेगा, और जब संदेह भी बासे और उधार मालूम पड़ने लगेंगे, कि यह मैं उठा चुका, उठा चुका, बहुत बार कह चुका, इनसे कुछ हल नहीं होता, तभी शायद वह किरण ध्यान की उस तरफ जाएगी जहां कृष्ण ले जाना चाह रहे हैं।

यह सदा ऐसा ही हुआ है। इससे निराश होने की कोई भी जरूरत नहीं है। इस श्रम में लगे ही रहना है।

और ध्यान रहे, उचित यही है कि आप अपनी सारी शंकाएं और सारे संदेह सामने ले आएं, क्योंकि सामने आ जाएंगे, तो मिटने की सुविधा है। भीतर छिपे रहेंगे, तो उनके मिटने का कोई उपाय नहीं है। अर्जुन ईमानदार है। उतना ही ईमानदार होना जरूरी है। वह सवाल उठाए ही चला जा रहा है। बेशर्मी से उठाए चला जा रहा है। उसमें जरा भी संकोच नहीं कर रहा है। किसी को भी संकोच आने लगता कि अब ठहर जाऊं। लेकिन वह संकोच खतरनाक होगा। भीतर उठते चले जाएंगे, अगर बाहर ठहर गए। तो फिर कृष्ण नहीं जीत सकते हैं।

उठाए ही चले जाएं। वह घड़ी जल्दी ही आ जाएगी, जब संदेह उठने बंद हो जाएंगे। हर चीज की सीमा है।

इस जगत में परमात्मा को छोड्कर और कुछ भी असीम नहीं है। आपका मन तो निश्चित ही असीम नहीं है। आप उठाए चले जाएं, किनारा जल्दी ही आ जाएगा। किनारा आता नहीं दिखाई पड़ता, क्योंकि आप बेईमान हैं। ठीक से उठाते ही नहीं। जिस दिन किनारा आ जाएगा, उसी दिन छलांग लग सकती है।

ओशो रजनीश



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