मंगलवार, 11 जुलाई 2023

हम साथ साथ हैं।2

 दाम्पत्य जीवन का समस्त सुख केवल एक बात में है पति-पत्नी एक दूसरे के मनोभावों को समझ लें। अपने साथी की इच्छाओं, आकांक्षाओं, मनोभावनाओं का विश्लेषण करें। एक-दूसरे के दृष्टिकोण को सहानुभूतिपूर्वक देखें, समझें और एक-दूसरे के सम्मुख सदा सिर झुकाने को तैयार रहें तो उनका जीवन स्वर्गीय प्रकाश से परिपूर्ण हो सकता है। एक-दूसरे के मनोभावों के अनुसार चलने से उनके जीवन में प्रेम की सुखद निर्झरिणी शत-शत धाराओं में बह सकती है। स्मरण रखिये जहाँ पुरुष दुर्बल है वहाँ स्त्री की शक्ति प्रकट होती है। पुरुष सर्वस्व प्राप्त कर सकता है और स्त्री सर्वस्व दान दे सकती है। स्त्री और पुरुष दोनों ही सृष्टि की महान् शक्तियाँ हैं किन्तु पूर्ण होने के लिये दोनों का सहयोग चाहिये । पुरुष एवं स्त्री का पारस्परिक सम्मिलन आत्मा का सम्मिलन है।


स्त्री कल्पलता है। जब पुरुष अकिंचन हो जाता है तो स्त्री की छत्र-छाया में रह कर वह पुनः शान्ति प्राप्त कर सकता है।


विवाह के प्रारम्भ में आप खूब देख-भाल कर पत्नी चुन सकते हैं। खूब टीका-टिप्पणी कर सकते हैं किन्तु विवाह के पश्चात् एक दूसरे के दुर्गुणों को आँख मीच कर टाल देने में ही लाभ है। आपस की आलोचना डराने-धमकाने, मारने-पीटने से गृह कलह बढ़ता है क्योंकि हमारे 'अहं' भाव को भारी धक्का पहुँचता है।


पति को वश में करने का उपाय 

 जो पत्नी अपने पति का स्थायी प्रेम चाहती है उसे अपने पति के स्वभाव, प्रकृति, विचार, मनोभाव, संवेदनाओं का गहन अध्ययन करना चाहिए। पुरुष पर शासन करने के लिये यह मालूम करना चाहिये कि वह पत्नी से क्या-क्या आशाएँ रखता है ? उसे किस काम में पत्नी की सहायता चाहिये। वह उसे किस रूप में सहायक, मित्र, प्रेमिका, गृहणी, सेविका - देखना अधिक पसन्द करता है ? किन-किन गुणों, कलाओं को चाहता है ? साथ ही पत्नी को यह भी मालूम करना चाहिए कि पति में कौन-कौन-से दुर्गुण हैं ? क्या-क्या कमजोरियाँ हैं ? क्या-क्या दूसरों की कुसंगति से लग गई हैं ?


पुरुष बल पराक्रम का पुतला है और किसी न किसी पर शासन करने में आनन्द लेता है अतः उसे अपने ऊपर शासन करने देकर पत्नी उसके 'अहं' को सन्तुष्ट कर सकती है। पत्नी उसकी प्रेमिका होती है अतः वह उस पर पूरा-पूरा अधिकार रखना चाहता है। अतः उसे अनुशासन का अवसर दीजिये। विवाहित जीवन में छोटी-छोटी बातों पर खड़े होने वाले मतभेदों, गलतफहमियों, झगड़ों से सतर्क रहिये । यदि कोई मतभेद आये तो भी तो अपने साथी के दृष्टिकोण को सहानुभूति पूर्वक समझिये ।


पति अपनी पत्नी के मुख से ऐसे वचन सुनने को जीवन भर लालायित रहता जिनसे उसकी श्रद्धा और अगाध विश्वास प्रकट हो। अतः ऐसे वचन कहने में कंजूसी नहीं  करनी चाहिए। अपने स्वाभाविक गुणों की वृद्धि करें। कोमलता, मधुरता, सौन्दर्य बढ़ायें। पुरुष इन गुणों से  अधिक आकर्षित होता है क्योकि ये उसमें नहीं हैं। स्त्री  के लिए हँसमुखी और रसिक होना सुन्दर होने से अधिक आवश्यक है। पुरुष स्त्री की रसिकता, हँसी, बाँकी चितवन पर अधिक आकर्षित होता है। स्त्री का जीवन छोटी-छोटी झंझटो से युक्त होता है। यदि वह उन्हें हँस कर न टाल सके, तो पागलखानो या तपेदिक के अस्पतालों की ही शोभा बढ़ा सकती है। पति को दास वे ही बना सकती है, जो उसके दोषों या विशेषताओं पर चिढ़ने के स्थान पर हँस कर टाल देती है।


प्रियतमा को जीतने के मनोवैज्ञानिक सूत्र-

हम में जो गुण नहीं हैं उनसे युक्त व्यक्तियों के प्रति हम स्वतः आकर्षित होते हैं। अतः प्रियतमा को जीतने के लिये अपने पुरुषोचित गुणों बल, वीर्य, पराक्रम, साहस, अनुशासन की अभिवृद्धि कीजिए। कोमल, पतले दुबले, कमजोर, स्त्रेण पुरुष स्त्रियों को अच्छे नहीं लगते।स्त्री जितना वीर पुरुष से प्यार करती है उतना धनियों या पण्डितों को नहीं। श्री दास एवं दब्बू पुरुष को भी पसन्द नहीं करतीं।


अपने वस्त्रों और वेश पर सदा ध्यान रखें। स्त्री सदा अपने सौन्दर्य   की चिन्ता करती है, यदि तुम्हारी प्रसन्नता के लिए, उसकी अभिवृद्धि के लिए वह निरन्तर चेष्टा करती है तो इसका यह अर्थ है कि वह सौन्दर्य का मूल्य समझती है और तुम्हें भी आकर्षक, साफ-सुधरे रूप में देखना चाहती है।


स्त्री की खूबियों बगान करो, उसका आदर करो, उसके उत्तम कार्यों पर अपनी प्रसन्नता प्रकट करो और इन सबके लिए थोड़ी प्रशंसा भी करो बार-बार उसे यही भी दर्शाओ कि तुम उसे बहुत प्रेम करते हो। यह समझकर चुप न रह जाओ कि उससे एक बार तो कह ही दिया है। वह आपके मुख से अपने प्रति बार-बार सुनना पसन्द करती है।


दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाने वाले स्वर्ण सूत्र


वैवाहिक जीवन में सुख-दुःख के आर्थिक और सामाजिक कारण अवश्य होते हैं। किन्तु प्रधान कारण मनोवैज्ञानिक होते है। पति-पत्नी में अनेक अज्ञात भावनाएँ प्रसुप्त इच्छाएँ पुराने संस्कार कल्पनाएँ होती हैं। जो अप्रकट रूप से प्रकाशित हो जाती है। प्रायः दो प्रेमी प्रसन्नता से वैवाहिक सूत्र में आबद्ध होते हुए देखे गये है। किन्तु विवाह के कुछ समय बाद उनका पारस्परिक आकर्षण न्यून होता देखा जाता है। बाद में तो वे परस्पर घृणा तक करने लगते है। इस घृणा के कारण प्रायः आन्तरिक होते हैं। इसका प्रधान कारण मनुष्य की उभयलिगंता है जिसका अभिप्राय यह है कि हर एक पुरुष में स्त्रीत्व का अंश विद्यमान हैं तथा हर स्त्री में पुरुषत्व का। बड़े होने पर किन तत्वों की प्रधानता हो जायगी इस मनोवैज्ञानिक आधार पर स्त्री-पुरुष का मेल निर्भर है। यदि संयोगवश ऐसे दो प्राणी वैवाहिक सूत्र में आवद्ध हो गये हैं, जिनमें एक ही लिंग की प्रधानता है— जैसे स्त्री में पौरुषत्व और पुरुष में भी पुरुषत्व के गुण बढ़े हुए हैं अथवा स्त्री में तो स्त्रीत्व है ही, उसके पति में भी स्त्री तत्व की  प्रधानता है, तो वैवाहिक जोड़े में साम्य, सुख-समृद्धि और आन्तरिक सन्तुलन न रह पायेगा।


वास्तव में दाम्पत्य जीवन का वास्तविक सुख तभी प्राप्त हो सकता है, जब स्त्री में स्त्रीत्व के गुणों का तथा पुरुषों में पुरुषोचित गुणों का स्वाभाविक और अबाध विकास हो। इसका अभिप्राय यह नहीं कि उनमें विपरीत गुण बिलकुल ही न हो इसका आशय केवल इतना ही है कि पुरुष में पुरुषत्व की प्रधानता हो और स्त्री में स्त्री तत्व की प्रधानता हो। पुरुष में स्त्रीत्व के गुण केवल गौण रूप से और स्त्री में पुरुषत्व के गुण गौण रूप से रह सकते हैं।


पुरुषत्व के गुण-

 पुरुष का प्रधान गुण है पौरुष अर्थात् शक्ति, साहस, निर्भयता, सक्रियता। उनमें 1-शरीर बल 2-मानसिक बल 3-चरित्र बल 4-संकल्प बल की प्रधानता है। पुरुष का निर्माण सतत् युद्ध करने वाला. कठोरता, दृढ़ता और पाशविक शक्ति से पूर्ण जीव की भाँति हुआ है। पुरुष अहंकारी, क्रोधी, तामसी, मदोन्मत्त, प्रेमोन्मत्त है। उसे शक्ति का अवतार कहना युक्तिसंगत होगा आदि प्रकृति का बर्वर जंगली पुरुष आज भी उसमें जाग रहा है। पुरुष स्वभाव से ही उपार्जनशील और रमणशील है। वह अपने अन्दर एक शक्ति का अनुभव करता है और उसी से प्रेरित होकर शीघ्रता और आतुरता में काम करता है।


स्त्रीत्व के गुण

- स्त्री कोमलता, मृदुता, सौम्यता एवं सहानुभूति की खान है उसमें भावनाओं की प्रचुरता है, दयालुता, स्नेह, सौकुमार्य, विवेक है। उसका भाव पक्ष पुरुष की अपेक्षा विशेष उन्नत एवं परिपक्व है। वह गम्भीरता से सोचती है, उसके दृष्टिकोण में विशालता है, उसकी अन्तर्दृष्टि अत्यन्त व्यापक है। स्त्री स्वभाव और शरीर से कोमल है।


स्त्री और पुरुष को अपने अन्दर ही सीमित रहने में सुख का अनुभव नहीं होता, वरन् वे विपरीत सेक्स वाले प्राणी के सहवास में रहकर पूर्णत्व की प्राप्ति के लिए इच्छुक होते हैं। एक दूसरे के प्रत्येक कार्य में सहायता करते हैं और अतृप्त कामनाओं को पूर्ण करते है, पुरुष जब पवित्र त्यागमयी भावनाओं से अपनी पत्नी को अपने समान सीमित कर उच्च आध्यात्मिक भूमि पर लाता है, तो उसे उसके पौरुष में विश्वास होता है। इसी प्रकार स्त्री सहायक, मित्र विपत्तियों में धैर्य प्रदान करने वाली, सहनशील बन कर पुरुष को समुन्नत करती है। 

सुखी, सन्तुष्ट, पवित्र भावनाओं वाले संयमशील और शिक्षित पति-पत्नी के बच्चे प्रारम्भ से ही उच्च संस्कार लेकर जन्मते है और पूर्ण गृहस्थ फलता-फूलता है। पति-पत्नी की हिंसात्मक क्रियाओं का स्थान रचनात्मक प्रवृत्तियों से लेती है। मनोविश्लेषण की दृष्टि से बाँझ स्त्री तथा वह पुरुष जिसके बच्चे न हो, भयानक विषैली भावना ग्रन्थियों से प्रसित रहते हैं, हिंसात्मक, घृणास्पद और बेरहमी के कार्य करते हैं। जब स्त्री-पुरुष को अपनी उच्चता, पवित्र आध्यात्मिक गुप्त शक्तियों में विश्वास होने लगता है, तब उनकी दबी हुई प्रवृत्तियों का रुझान रचनात्मक कार्यों की ओर अधिक हो जाता है। घृणा, क्रोध, ईर्ष्या, स्वार्थ नष्ट हो जाते है। विवाहित स्त्रियाँ कुँवारियों से अधिक जीती है।


गृहस्थ जीवन को सुखी बनाने के स्वर्ण सूत्र — डेलकार्नेगी ने दाम्पत्य मनोविज्ञान का गूढ अध्ययन कर जो निष्कर्ष निकाला है, उसे आज पाश्चात्य देशों में क्रांति हो गयी है। इसमें स्त्री-पुरुष के मन की अपेक्षा गुप्त भेदों का ज्ञान भरा पड़ा है। इनमें से कुछ निम्न हैं-


(१) पतियों को तंग मत करो यह नियम उन स्त्रियों के लिए है, जो समय-कुसमय अपने पति से उसकी आर्थिक स्थिति को ध्यान में न रख भाँति-भाँति की फरमायश करती हैं। जीभ पर अधिकार न होना, प्रलोभन, सिनेमा देखना, आभूषण अच्छे वस्त्रों की जिद से पति परेशान हो उठता है। विचार तथा स्वभाव के मतभेद होते है, फिर बढ़ कर पारिवारिक जीवन को नष्ट करते हैं।


(२) समालोचना मत करो 

पति या पत्नी जब एक दूसरे की कमजोरियों, खराबियों पर ध्यान देने लगते हैं, तो फिर प्रेम-डोर टूट जाती है। प्रेम की उच्च भूमिका में आपको एक दूसरे के दुर्गुणो, कमजोरियों को भी सहन करना है। यदि शीघ्र ही एक दूसरे की त्रुटियों पर ध्यान एक हो जाय तो एकता के नियमों के अनुसार उन्ही की अभिवृद्धि होगी।


(३) निष्कपट भाव से प्रशंसा करो

 अपने जीवन साथी को उत्साहित करना, ऊँचा उठाना, शिक्षित, सुसंस्कृत, सभ्य नागरिक बनाना आपका कर्तव्य होना चाहिए। प्रत्येक अच्छाई की प्रशंसा कीजिए और दिल खोल कर कीजिए। प्रशंसा से उनके और भी गुण, अच्छा स्वभाव विकसित हो सकेगा। मित्रभाव, सहनशीलता, सहयोग बढ़ेगा। अधिकांश पत्नियां अच्छी ही होती हैं, पर पति के उत्साहित न करने से उनका विकास रुक जाता है। झिड़कने, मारने पीटने, अशिष्ट व्यवहार करने या निर्दयता का व्यवहार करने से पत्नी का दिल टूट  जाता है। गुप्त विश्वास टूटते ही तलाक की नौबत आती है। अतः पति को सदा सर्वदा पत्नी को उच्च गुणों के सजेशन ही देने चाहिए। निष्कपट भाव से उसके प्रत्येक कार्य, घर की सजावट, रसोई बनाव-शृंगार, शिशुपालन आर्थिक सहयोग की प्रशंसा करनी चाहिए।

 (४) छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखो-

गृहस्थी छोटी-छोटी बातों से टूटती और बनती है। स्त्रियाँ पति को साफ-सुथरा देखना पसन्द करती है, अपनी बाबत अच्छे विचार पुनः पुनः सुनना चाहती हैं, अपने कपड़ो घरेलू व्यवस्था, भोजन की प्रशंसा सुनना चाहती है। यदि आप उनके किये हुए कार्य में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते तो वह क्यों अच्छी बनेगी।


कुछ व्यक्ति रुपया-पैसा अपने हाथ में रखते हैं और पत्नी को दो-दो चार बार आपसे माँगने पड़ते हैं। उसके 'अंह' और गर्व को धक्का पहुँचता है। अपने अन्दर वह हीनत्व की भावना का अनुभव करती है. जिससे पारस्परिक प्रेम में दरार पड़ जाती है। अतः पत्नी के प्रति व्यवहार में सावधानी बरतनी चाहिए। उसकी उचित और नैतिक मांगों की पूर्ति में आलस्य करना घर में झगड़े का वृक्ष बोना है।


जो युवक-युवती एक-दूसरे पर अंधाधुन्ध आसक्त होकर विवाह करते हैं, वे एक दूसरे के सुख और आनन्द पाने की बड़ी आशाएँ लेकर आते है। यदि दोनों एक दूसरे की छोटी-छोटी बातों का ध्यान न रखे तो शीघ्र ही दाम्पत्य जीवन कंटकाकीर्ण हो जाता है। एक दूसरे का मन रखने के लिए पर्याप्त समझ, साहस और कड़े परिश्रम की आवश्यकता है।


पत्नी से कुछ भी मत छिपाइए अन्यथा वह शक करेगी और गुप्त मानसिक व्यथा से दग्ध होती रहेगी। उसे यह बतला दीजिए कि आप क्या कमाते है ? कैसे व्यय करते है ? कितना बीमा करा रखा है ? किसके नाम वसीयत है ? आय-व्यय कैसे चलता है ? भविष्य में आपकी क्या-क्या योजनाएँ है ? कितना रुपया आपने एकत्रित किया है ? इत्यादि-इत्यादि ।


पति को निरन्तर कोमलता और निरन्तर पत्नी की देख-रेख द्वारा उसके प्रति अपने प्रेम का प्रकाश करते रहना चाहिए अन्यथा प्यार की भूखी स्त्री जहाँ भी उसे प्रेम मिलेगा, उसी ओर आकर्षित हो जायगी विवाह के पश्चात् जब तक जीवित रहे प्रेम दान करते रहना चाहिए। शिष्टाचार की छोटी-मोटी बातों को इज्जत और नये-नये उपहार लाने की बात भूल नहीं जाना चाहिये क्योंकि स्त्रियाँ इस बात को बहुत महत्व देती है। स्त्री प्रेम और प्यार के अभाव में साधारण सुख का जीवन भी व्यतीत नहीं कर सकती। प्रेम उसकी आत्मा का भोजन है।


(५) सुशील बनो -

 आपको ऐसा चुम्बक बनना चाहिए, जिससे आकर्षित होकर स्त्री अथवा पुरुष आपसे कुछ आध्यात्मिक प्रेरणा, उत्साह, शिक्षा, पथप्रदर्शन प्राप्त कर सके। प्रसन्नता, सौम्यता और सुशीलता से आप घर भर में रस संचार कर सकते हैं। ऐसा पति किस अर्थ का जिसके घर में प्रवेश करते ही सब डर जायें, बच्चे दुबक जायें, खामोशी और मुर्दानी छा जाय । विनयशीलता से आप अपनी पत्नी की इच्छाएँ समझ सकेगे। उसकी अनुचित मांगो को तर्क और बुद्धि द्वारा धीरे-धीरे दूर कर सकेंगे। क्रोध, मारपीट, द्वेष या तलाक द्वारा आप कदापि कुछ न कर सकेंगे। समानता, निष्कपटता, शिष्टता का व्यवहार ही सम्मानीय है।


(६) कामशास्त्र के ज्ञान की अनिवार्यता

 मनुष्य के काम जीवन का क्या तात्पर्य है ? उसकी निगूढतम गुत्थियों का अध्ययन प्रत्येक स्त्री-पुरुष के लिए अतीव उपयोगी है। सस्ती बाजारू अश्लील पुस्तकों से सावधान यह मार्ग बड़े उत्तरदायित्व और आर्थिक परीक्षा का है। अतः इसकी पुस्तकों के चुनाव विवेकपूर्ण ढंग से होना चाहिए।


दाम्पत्य कलह का एक कारण दाम्पत्ति का विशेषकर पुरुष का काम विज्ञान से अनभिज्ञ होना है। पुरुष स्वभाव से ही ढीठ और स्त्री शीलवती है। इसके अतिरिक्त वह केवल पतित्व की वेदी पर ही अपने को निछावर करने में आनन्द मानती है, वह पतित्व के साथ ही दाम्पत्य प्रेम भी चाहती है जो पुरुष प्रथम संयोग में ही स्त्री को अपनी कामना का शिकार बनाने की बर्वरता करता है, वह भयंकर भूल करके दाम्पत्य कलह का बीज बोता है। विषय मानसिक विकार एवं शरीर का मल पदार्थ है। किन्तु पवित्र दाम्पत्य प्रेम  हृदय की उच्चतम अभिव्यक्ति है। हृदय के आदान-प्रदान में पर्याप्त समय लगता है। हृदय ही स्त्री की सम्पत्ति है। वह सहज ही पुरुष को नहीं देती और एक बार देकर फिर वापिस नहीं लेना चाहती। अतः कामविज्ञान के शिक्षण से मनुष्य नारी हृदय की निगूढतम गहराइयों की शिक्षा पाकर बर्वरता, निष्ठुरता से बच सकता है।


उपरोक्त नियमों के पालन से बहुत लाभ हो सकता है। स्मरण रखिए गृहस्थाश्रम पति और पत्नी की साधना का आश्रयस्थल है। यहाँ जीवन की, धर्म, अर्थ और काम की साधना की जाती है। पति-पत्नी दोनों एक दूसरे के पूरक है, सहायक है, मित्र हैं। दोनों का कार्य एक दूसरे के गुणो की अभिवृद्धि करना है, क्षुद्रताओं का उन्मूलन करना है और परस्पर एक अभिन्नता बनाये रखना है। इसके लिए प्रत्येक को संयम, सहनशीलता एवं स्वार्थ त्याग अपने अन्दर विकसित करना चाहिए।


पति का नाम 'भर्तार' अर्थात् भरण और पोषण करने वाला है। पत्नी में उसको शारीरिक, मानसिक, सांस्कृतिक, सामाजिक जो विभूतियाँ या न्यूनताएँ हैं, उनकी पूर्ति का उत्तरदायित्व भी उसी के ऊपर है। उसकी शक्तियों का विकास करे, पोषण करे, कुत्सित मार्ग से बचावे तथा सदा सर्वदा सन्तुष्ट रखे।


पत्नी साधिका है। जिस प्रकार एक साधक अपने प्रभु की साधना में अपना सर्वस्व समर्पण कर देता है, उसी प्रकार पत्नी अपने मन में द्वेष की भावना न रखकर पति को अपना आराध्य मानकर अपना भला और बुरा सब कुछ सौंप दे। यदि पति कुमार्गगामी हो, तो प्रेम प्रशंसा और युक्ति द्वारा उसका परिष्कार करे। कुमार्गगामिता एक मानसिक रोग है। अशिक्षा और मूढ़ता की निशानी है। इस रोग के उपचार के लिए समझने, तर्क, बुद्धि तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से कुमार्ग की हीनता प्रदर्शित करने की आवश्यकता है। निराश होने के स्थान पर प्रयास पुरुषार्थ से अधिक लाभ हो सकता है।


पितृ ऋण के उद्धार का एकमात्र साधन दाम्पत्य जीवन की शान्ति है। सन्तान का उत्पादन और सुशिक्षण योग्य दम्पत्ति के बिना कदापि सम्भव नहीं है। योग्य माता-पिता, उचित वातावरण, घरेलू संस्कार, पुस्तकों तथा सत्संग द्वारा योग्य सन्तान उत्पन होती है। योग्य सन्तान के इच्छुकों को सर्वप्रथम स्वयं अपना परिष्कार एवं सुधार करना चाहिए।


दाम्पत्य जीवन का उद्देश्य 'भोग' नहीं उन्नति है। सब प्रकार की उन्नति के लिए दाम्पत्य जीवन आपको अवसर प्रदान करता है। यहाँ पहले शरीर फिर सामाजिक जीवन, व्यक्तिगत जीवन और आध्यात्मिक जीवन की उन्नति के साधनों को एकत्रित करना चाहिए। उन साधनों को अपनाना चाहिए जिससे परस्पर का द्वैत नष्ट हो और आत्मरति एवं आत्मप्राप्ति की ओर दोनो जीवन-साथी विकासमान हो। जब दोनों एक दूसरे की उन्नति में सहयोग प्रदान करेंगे, तो निश्चय ही अभूतपूर्व गति उत्पन्न होगी।


भोग का शमन भोग से नहीं होता। भोगने से वासनाएँ द्विगुणित होती है और अपने चंगुल से मनुष्य की मुक्ति नहीं होने देतीं। एक के पश्चात् दूसरा प्रलोभन मनुष्य को आकर्षित करता है। अतः जितने से शरीर मन, आत्मा की उन्नति हो, उतने से ही सम्पर्क करना चाहिये। जीवन में फैशनपरस्ती, अभक्ष पदार्थो का उपयोग, नशीली वस्तुओं, रुपया उधार देना या लेना, व्यर्थ के दिखावे बढ़ाने से मनुष्य उनका गुलाम बन जाता है। इनमें व्यवधान उपस्थित होने से कलह बढ़ता है।


स्त्री-पुरुष का दाम्पत्य सम्बन्ध आत्म-यज्ञ के लिये है यज्ञ में ईश्वरीय शक्तियों का विकास एवं आत्मभाव का विस्तार होता है। उच्च संस्कारों द्वारा मानव जीवन को परिपुष्टि करने के लिए ही यह दाम्पत्य जीवन का निर्माण किया गया है। इसलिये स्त्री-पुरुष को विषय-वासना का गुलाम नहीं बनना चाहिये। भोग से जितनी दूर रहा जाय, उतना ही उत्तम है।


सौन्दर्य की निस्सारता


"आवश्यकता है एक सुन्दर पढ़ी-लिखी कन्या की, जो सम्पूर्ण गृहकार्यों में निपुण हो तथा सीना-पिरोना इत्यादि जानती हो।" आजकल छपने वाले विवाह सम्बन्धी विज्ञापनों में सौन्दर्य की माँग उत्तरोत्तर अभिवृद्धि पर है। सौन्दर्य के लिये दौड़-धूप बढ़ रही है। रूप-रंग की चिन्ता माता-पिताओं के लिये एक विषम पहेली बनी है। युग की इस बढ़ती हुई मांग को देखते हुए अनेक प्रश्न मानस जगत् में उठ आते हैं। एक स्त्री के लिये सुन्दरता का क्या स्थान है ? क्या सुन्दर लड़की सीधी-साधी लड़की की अपेक्षा सुगमता के साथ जीवन यात्रा तय कर सकती है। क्या उसका सौन्दर्य उसके मार्ग को साफ करेगा ? क्या सब लोग सौन्दर्य के कारण उससे मित्रता करेंगे ? उसके चरणों पर लोटेंगे ? ये प्रश्न आधुनिक युग में यूरोप तथा अमेरिका के समाजो में वाद-विवाद के विषय बने हैं। सौन्दर्यशास्त्र के विशेषज्ञों में इस विषय पर मतभेद है।


बर्नार्डशा से एक बार पूछा गया कि स्त्री जीवन में सौन्दर्य का क्या मूल्य है ? तो उनने कहा था कि सुन्दर से सुन्दर स्त्री कुछ दिन पश्चात् साधारण सी प्रतीत होने लगती है। पति के लिये सौन्दर्य भी फीका सा लगने लगता है। वह रहते-रहते यह विस्मृत कर देता है कि उसकी पत्नी में सौन्दर्य नाम की कुछ चीज भी है। उसके लिये वह पत्नी साधारण सी हो जाती है। यही हाल मामूली स्त्रियों का है। प्रारम्भ में सम्भव है सौन्दर्य न होने के कारण वे पति प्रेम से वंचित रहें किन्तु कुछ सम्पर्क से अन्य स्त्री सुलभ गुणों का विस्तार होता है, तथा पारस्परिक दाम्पत्य प्रेम निखर आता है।


अभी हाल ही में चार्ल्स ग्रिफिथ का ब्यूटी इन दि इस्ट' नामक एक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है, उससे इंग्लैण्ड में खलबली मच गई है। उनका कथन है कि सौन्दर्य का स्थान जीवन में अत्यन्त न्यून है जो स्त्रियां रुपवती नहीं थीं, ऐसी अनेकों ने समाज में सफलता एवं आदर दोनों प्रचुर मात्रा में प्राप्त किये हैं। सुन्दरता चाहे और सब कुछ हो, किन्तु वह व्यक्तिगत सफलता के लिये आवश्यक नहीं है। चार्ल्स ग्रिफिथ का कथन है कि सौन्दर्य का प्रत्येक व्यक्ति पर प्रभाव तो पड़ता है किन्तु बुद्धि, शील, चरित्र के अन्य गुणों के बिना वह निरर्थक है।


संसार में शायद ही कभी ऐसा युग आया हो जब सौन्दर्य पर आकर्षक बनने की विधियों, वस्तुओं तथा साधनों पर इतना रुपया-पैसा लगा हो, जितना इस युग में लग रहा है। आजकल सिनेमा ने तो और भी गजब ढाया है। स्त्रियों को सिनेमा एक्ट्रेस बनने की धुन सवार है। घण्टों सुन्दरता की खोज चलती है। नये-नये वस्त्रों के आविष्कार किये जाते हैं। इसका फल यह है कि आज हमारे गृहस्थ जीवन में भयंकर असन्तोष उत्पन्न हो गया है।स्त्री का स्त्रीत्व ही सबसे सुन्दर है उसका स्त्री होना , महिलोचित गुणों से सम्पन्न होना उसका प्रधान आभूषण है। उन देशों की महिलाओं को देखिये जो साधारण ही हैं सुन्दर नहीं, किन्तु जो समाज में आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त कर रही है। सब कुछ सौन्दर्य पर ही निर्भर नहीं है। सौन्दर्य एक उन्माद है जो मार्ग में रोड़ा अटकाता है। इसके विपरीत जिस गृह में स्नेह, प्रेम, सौहार्द्र, विद्या प्रेम आदि सद्गुणों का निवास है, उसमें सौन्दर्य आँधी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। आज के पुरुष केवल कोरे सौन्दर्य से ऊबने लगे हैं। उन्हें सौन्दर्य के खोखलेपन का ख्याल हो उठा है। चकाचौध करने वाली रूप कुमारी के स्थान पर गुणवती कन्या ही श्रेष्ठ है।


वैवाहिक असफलता के कारण


हमारे समाज में नब्बे फीसदी विवाह केवल इस कारण असफल होते है कि पति या पत्नी निरन्तर एक दूसरे में कोई न कोई खराबी, कमजोरी या न्यूनता निकाला करते हैं। विवाह के पश्चात् कटुता का यहाँ तक कि तलाक का प्रमुख कारण है, तीखी आलोचना, निर्मम हृदय विदारक टीका-टिप्पणी, पति पत्नी में जरा सी कमी पाते ही झल्ला उठता है और बिगड़कर दो चार उलटी-सुलटी, जली-कटी सुना देता है। उधर सम्भ्रांत पत्नियाँ तक पति की बात पर तुनक उठती है, अपनी स्वतन्त्रता में जरा सा फर्क आते देख कर चिल्ला उठती है। भाँति-भाँति के भय दिखा कर पति पर आतंक जमाना चाहती है। इसके कारण क्या है ?


कारण है मनुष्य का 'अहं' प्रत्येक स्त्री-पुरुष बड़ी तत्परता से 'अहं' की रक्षा करता है। वह नहीं चाहता है कि कोई तनिक भी हानि उसे पहुंचाये जरा सी भी आलोचना 'अहं' पर बड़ा प्रभाव डालती है। कुछ व्यक्तियों का स्वभाव तो इतना ग्रहणशील होता है कि साधारण सी आलोचना का बड़ा विषैला प्रभाव उनके अन्तर्मन पर पड़ता है। उनका मानसिक संस्थान एक दम विक्षुब्ध हो उठता है और वह विद्रोह कर बैठते है। 'अहं' की रक्षा के लिये मनुष्य कुछ का कुछ करने को तत्पर रहता है पचास प्रतिशत विवाहो के असफल होने का एकमात्र कारण अपने जीवन साथी के 'अहं' पर हमला करने का है।


पति-पत्नी को इस सम्बन्ध में बड़ा सतर्क रहना चाहिए। यदि आप पति हैं तो भूल कर भी पत्नी के कामो की आलोचना न कीजिए। दोष निकालना, अधिक टीका-टिप्पणी करना, अपने विवाहित जीवन को काले बादलों से आच्छादित कर लेना है। यदि सम्भव हो तो इस अप्रिय कार्य को बिल्कुल ही न करें। यदि जीवन साथिन में कुछ कमजोरियाँ हैं तो उनकी ओर एक हल्का-सा संकेत यथेष्ट होता है। प्रेमपूर्ण सहानुभूति से स्निग्ध स्वर में जब कभी आपकी सहधर्मिणी अच्छी मुखमुद्रा में हो, सरलता से उनकी कमजोरियों पर प्रकाश डाल दीजिए। आलोचना ऐसे ढंग से की जाय कि उसका प्रभाव सृजनात्मक हो, वह केवल दूसरे को नीचा दिखाने या मजाक बनाने के लिए न हो, उनमे व्यंग्य-बाण न हो, कडवाहट न हो, शुष्कता न हो। आलोचना ऐसी हो जो अहं को मर्माहित न करे वरन् उसे सहारा देकर ऊपर उठाये, उन्नत एवं परिपुष्ट होने में सहायता करे। आपकी आलोचना सुनकर आपकी पत्नी आपसे घृणा करने के  स्थान पर आपको अपना हितैषी मान कर आपके कथनानुसार कार्य करने मे गर्व का अनुभव करे एवं क्रमश वह अपनी कमजोरियाँ दूर करती जाय।


उदारहणार्थ मान लीजिये, पत्नी ने भोजन अच्छा नहीं बनाया रोटियाँ जली हुई हैं, दाल मे नमक अधिक है और वह कुछ क्रुद्ध भी है। क्रोध की अवस्था में यदि आप आलोचना करने बैठ जायेंगे, तो कदापि उसका अच्छा प्रभाव न पड़ेगा। उल्टी पत्नी और नाराज होगी। जब उनका क्रोध शान्त हो ले, तब आप आलोचना करने बैठे, वह भी इस प्रकार मानो आप कोई सलाह उनके भले के लिये दे रहे हैं। उन्हें यह भ्रम न हो कि आप उन्हें नीचा समझते है और कुछ सिखलाना चाहते हैं। आप कहिए, आज आपका भोजन उस उच्च श्रेणी का नहीं बना है, जैसा प्रायः रहता है। आज शायद कुछ और काम बीच में आ पड़ा हो आप जैसा भोजन अन्यत्र दुष्प्राप्य है, सायं काल का भोजन बहुत ही उत्तम बनेगा।


व्यक्तिगत आलोचना, चाहे आप किसी की करें, यह ध्यान रखिए कि कही वह 'अहं' पर चोट तो नहीं कर रही है। यदि आपकी आलोचना अहं पर प्रभाव डाल रही है. तो इसका प्रत्यक्ष बुरा प्रभाव होगा। हो सकता है कलह बढ़ती जा या तलाक का अवसर भी आ जाय। प्राय स्त्रियां भावुक होती है और उन पर तनिक-सी भी आलोचना का कटु प्रभाव हो सकता है। प्रत्येक पति का कर्तव्य है कि. वह अपनी पत्नी के गर्व का उसके अहं का रक्षक बने।


प्रश्न है कि इस अहं की रक्षा क्योंकर की जाय ? आप पत्नी के साधारण कार्यों की तारीफ कीजिए। बढ़ावा दीजिए और कभी-कभी उसे प्रोत्साहन देने के लिए उसकी प्रशंसा कीजिए तारीफ करना, स्तुति के वाक्य कहना, बढ़ावा देना, खुशामद करना, स्त्री के गर्व की रक्षा के लिए वैसा ही जरूरी है, जैसे जीवन के लिए श्वास-प्रश्वाँस यदि पति इस गर्व की रक्षा का ध्यान रखें तो समाज मे फैलने वाले अनेक उपद्रव, तलाक, कलह इत्यादि रुक जायें


विवाह विज्ञान के एक आचार्य का मत है- 'सफल पति बनने के लिए स्त्रियों की खूबियों का बखान करो, उसका आदर करो अपनी प्रसन्नता प्रकट करो और इन सबके लिए उसकी अकारण प्रशंसा भी करो। यह समझकर चुप रह जाने की भूल न करनी चाहिए कि यह तो उसका कर्त्तव्य ही है। अपने कपड़ो और वेश पर सदा ध्यान रखो। स्त्री यदि अपने सौन्दर्य की चिन्ता करती है. अगर तुम्हारी प्रसन्नता के लिए उसकी वृद्धि के लिए वह निरन्तर नेष्टा करती है, तो इसका यह अर्थ है कि सौन्दर्य का मूल्य समझती है और दूसरे को भी साफ-सुथरे देखना पसन्द करती है।

यदि पति-पत्नी एक दूसरे के मनोभावों को समझे और उनका समुचित आदर करें तो कोई भी विवाह असफल न हो।


अपनी पत्नी से शिष्ट व्यवहार


अपनी पत्नी से भी सभ्यता का व्यवहार ही रखिये। जो पुरुष कभी-कभी उन पर हाथ उठा बैठते हैं, अपनी समझ कर तिरस्कार करते हैं, उनकी बेइज्जती करते रहते हैं, वे अशील हैं। गुप्त मन में उनकी स्त्रियों उन्हें दुष्ट, राक्षस-तुल्य समझती हैं। ऐसा प्रसंग ही मत आने दीजिए कि नारी को मारने-पीटने का अवसर आये। उसे अपने आचार, व्यवहार, प्रेम भरे सम्बोधन से पूर्ण सन्तुष्ट रखिये। पत्नी की भावनाओ की रक्षा, उसके गुणों का आदर, उसके शील-लज्जा व्यवहार की प्रशंसा मधुर सम्बन्धों का मूल रहस्य है पत्नी आपकी जीवन सहचरो है। अपने सद्व्यवहार से उसे तृप्त रखिये।


पत्नी पति की प्राण है, पुरुष की अन्द्धांगिनी है। पत्नी से बढ़कर कोई दूसरा मित्र नहीं पत्नी तीनों फलो धर्म, अर्थ, काम को प्रदान करने वाली है और संसार सागर को पार करने में सबसे बढ़ी सहायिका है। फिर, किस मुँह से आप उसका तिरस्कार करते हैं।


उससे मधुर वाणी में बोलिए। आपके मुँह पर मधुर मुस्कान हो, हृदय में सच्चा निष्कपट प्रेम हो, वचनों में नम्रता, मृदुलता, सरलता, प्यार हो। स्मरण रखिए, स्त्रियो का 'अहं' बड़ा तेज होता है, वे स्वाभिमानी, आत्माभिमानी होती हैं। तनिक सी अशिष्टता या फूहड़पन से क्रुद्ध होकर आपके सम्बन्ध में घृणित धारणाएँ बना लेती हैं। उनकी छोटी-मोटी माँगों या फरमाइशों की अवहेलना या अवज्ञा न करें। इसमे बड़े सावधान रहे। जो स्त्री एक छोटे से उपहार से प्रसन्न होकर दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाने को प्रस्तुत रहती है, उसके लिये सब कुछ करना चाहिये।


दाम्पत्य जीवन का सच्चा सार


संसार में एक दूसरे के अनुकूल स्वभाव वाले हर प्रकार से सन्तुष्ट, सन्तुलित, सुखी विवाहित जोड़े बहुत कम हैं जो युवक विवाह से पूर्व अपनी धर्मपत्नी के विषय में सिनेमा के रोमानी जगत जैसी सुमधुर कल्पनाएँ बना कर गगन-विहार किया करते हैं, उन्हें प्रायः विवाहित जीवन में भारी निराशा का सामना करना पड़ता है। पाश्चात्य देशों में विवाहों की अपेक्षा तलाको की संख्या उत्तरोत्तर अभिवृद्धि पर है। इसका कारण विवाहित जीवन में पारस्परिक उत्तरदायित्व की कमी और असन्तोष है।


एक शिक्षित युवक जब विवाह करता है तो उसके मन में अपनी पत्नी का एक आदर्श रूप उपस्थित रहता है वह उसे पुष्प सी कोमल चन्द्रमा सी सुन्दर, विद्या बुद्धि मे चतुर, संगीत-नृत्य विधाओं में निपुण, हर प्रकार से सरल, साधु, मीठे स्वभाव की कल्पना करता है। वह सिनेमा के चलचित्रों में कार्य करने वाली नर्तकियों को देखते-देखते एक ऐसा आदर्श मन में बसा लेता है जो कभी पूर्ण नहीं हो पाता। यह बड़ी-बड़ी आशाएँ, स्वप्नों के महल, कपोल कल्पनाएँ, रोमांस, मनोरंजन की आशाएँ वैवाहिक जीवन में प्रविष्ट होते ही टूटने लगते हैं। मनोविज्ञान का यह अटूट नियम है कि दूर से स्त्री को पुरुष तथा पुरुष को स्त्री आकर्षक प्रतीत होती है। विवाह के कुछ मास एक प्रकार के उन्माद में व्यतीत होते हैं। तत्पश्चात् मन ऊबने लगता है। पुरुष स्वभाव से नवीनता का उपासक है। समीप रहने वाली वस्तु उसे पुरानी नीरस, आकर्षणविहीन, फीकी-सी प्रतीत होने लगती है। यही दाम्पत्य जीवन के असन्तोष का कारण है, जिसकी वजह से तलाक जैसी अप्रिय बातें होती हैं। इस वृत्ति से संघर्ष कर उस पर विजय प्राप्त करने की आवश्यकता है।


विवाह से पूर्व स्त्री को पुरुष तथा पुरुष को स्त्री को देख लेने, परखने, उसके विषय में दूसरों से सलाह लेने, यदि सम्भव हो सके तो परीक्षा करने, हर प्रकार की सतर्कता, दूरदर्शिता बरतने की गुंजायश है। वर-वधू को चाहिए झूठी शर्म त्याग कर एक दूसरे के गुण, कर्म, स्वभाव का ज्ञान प्राप्त करें। समस्वभाव के विवाहित जोड़े प्रसन्न रहते हैं। यदि स्वभाव एक जैसा न हो, तो दूसरे साथी को उसका सन्तुलन करना होता है। एक सी रुचि के दो व्यक्ति जीवन में सरलता से जी सकते हैं। एक शिक्षित तथा दूसरा अशिक्षित होने से अनेक बार दृष्टिकोण में विभिन्नता तथा कटुता उत्पन्न होकर दाम्पत्य माधुर्य को नष्ट कर देती है। अतएव वर-वधू को प्रारम्भ में अति सावधानी एवं सतर्कता बरतने की आवश्यकता है।


अपने साथी के शरीर, मस्तिष्क, विचार तथा स्वभाव का ज्ञान प्राप्त कीजिये वह नीरस प्रकृति है या हँसमुख, मजाकिया 7 वह गम्भीर अध्ययनशील है या सदैव जल्दबाजी में रहने वाला तीव्र भावों में वह जाने चाला ? वह उदार है या संकुचित, जिद्दी निश्चयी, पुरुषार्थी मत्त या स्फूर्तिदान वह किसी कार्य को लगातार करता है या बीच में ही छोड़ भागने का अभ्यस्त है ? उसकी आर्थिक स्थिति तथा आवश्यकताएँ कैसी है इन तथा इसी प्रकार के अनेक प्रश्नो पर विवाह से पूर्व ही खूब देखभाल तथा विचार-विनियम करने की आवश्यकता है।


उत्तरदायित्व का निर्वाह विवाह के पश्चात् आप पर एक बड़ी जिम्मेदारी आ जाती है। पति को पत्नी के स्वास्थ्य, आराम, मानसिक तथा शारीरिक सुख का ध्यान रखना है तथा पत्नी को पति के कार्य, पेशे, भोजन, मनोरंजन, बच्चों की देखभाल, गृहप्रबन्ध इत्यादि में अपने पृथक्-पृथक् उत्तरदायित्व का निर्वाह करना है। पति का कार्यक्षेत्र अधिकतर घर के बाहर संघर्षपूर्ण कार्यस्थल है जहाँ उसे जीविका उपार्जन करने के हेतु कठोर परिश्रम, कार्यदक्षता, कौशल प्रदर्शित करना होता है। उसका उत्तरदायित्व अधिक है, क्योंकि उसे जीविका कमाने का कार्य तत्परता से करना होता है। पत्नी अपने गृहप्रबन्ध, मृदुल, सहानुभूति पूर्ण व्यवहार तथा सौन्दर्य से घर को स्वर्ग बनाती है।


"हमें अपने विवाहित जीवन में अपनी जिम्मेदारी निभानी है, अपने जीवन-साथी की निर्बलताओं को सहानुभूतिपूर्ण ढंग से निकालना है, उसके स्थान पर उत्तम गुणों का समावेश करना है, हम सब तरह के असन्तोषों को दूर करेंगे, परस्पर एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझेंगे, आपसी गलतफहमियों को न बढ़ने देगे, यह मानकर दाम्पत्य जीवन में प्रविष्ट होना श्रेयस्कर है। यह समझौते की भावना सुखमय दाम्पत्य जीवन का मूल मन्त्र है।


कौन पति-पत्नी नहीं झगड़ते ? विचारों में अन्तर कहाँ नहीं है ? एक से स्वभाव कहाँ मिलते है ऐसा कौन है जिसमें कमजोरियाँ, दुर्गुण, शारीरिक या मानसिक दुर्बलताएँ नहीं है ? यदि आप एक-दूसरे की दुर्बलताओं पर कलह करेंगे, तो अल्पकाल में असन्तोषदायक महा भयंकर राक्षस आपका विवाहित जीवन कटु बना देगा। आपका सौन्दर्य और प्रेम पिपासु मन एक स्त्री की सुन्दरता छोड़ दूसरी दूसरी से तीसरी, चौथी न जाने कहाँ-कहाँ मारा-मारा फिरेगा। मन की बागडोर ढीलो न कीजिए। अपने जीवन-साथी में ही सरलता, सौन्दर्य, कौशल, चतुरता, माधुर्य खोज निकालिये। उसकी अपूर्णता को पूर्ण बनाइये अशिक्षित है तो शिक्षित कीजिये, पुस्तकें, समाचार-पत्र, कहानियाँ उपन्यास पढाइये। यदि स्वास्थ्य खराब है, तो स्वास्थ्य रक्षा, व्यायाम, पौष्टिक भोजन और दुश्चिन्ताओं को दूर कर उसे सुन्दर बनाइये, किन्तु उसे त्यागने का भाव कदापि मन में उदित न होने दीजिये। त्यागने की बात सोचना, एक दूसरे की सहायता न करना, शील-सौन्दर्य की अभिवृद्धि न करना, विद्या प्रदान न करना पति के लिए लज्जा के योग्य है। दो-सूत्र


इस स्थिति पर विजय प्राप्त करने के दो मार्ग -प्रथम वह है जो दाम्पत्य जीवन का सच्चा सार है— अर्थात् यह दृढ प्रतिज्ञा और उसका निर्वाह कि हम दोनों पति-पत्नी एक दूसरे का परित्याग नहीं करेंगे हम प्रत्येक प्रेम, सहानुभूति, त्याग, शील, आदान-प्रदान, सहायता के टूटे हुए तार को गाँठ लेंगे हम विश्वास, आशा, सहिष्णुता, अवलम्ब उपयोगिता की गिरी हुई दीवार के प्रत्येक भाग की निरन्तर प्रयत्न और भक्ति से मरम्मत करेंगे, हम एक दूसरे से माँफी माँगने और समझौता करने को सदैव प्रस्तुत रहेंगे। सुलह दूसरा उपाय है पति-पत्नी की एक दूसरे के प्रति अनन्य भाव। पति-पत्नी एक दूसरे को लीन कर दें समा जायें, लय हो जायें, आधीनता की भावना छोड़ समभाव की पूजा करें। विवाह का आध्यात्मिक अभिप्राय दो आत्माओं का शारीरिक, मानसिक और आत्मिक सम्बन्ध है। इसमें दो आत्माएँ ऐसी मिल जाती है कि इस पार्थिक जीवन तथा उच्च देवलोक में भी मिली रहती है। यह दो मस्तिष्कों, दो हृदयो, आत्माओ तथा साथ ही साथ दो शरीरों का एक-दूसरे में लय हो जाना है। जब तक यह स्वरैक्य नहीं होता। विवाह का आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता विवाहित जोड़े का परस्पर वह विश्वास और प्रतीत होना आवश्यक है, जो दो हृदयों को जोड़कर एक करता है। जब दो हृदय एक-दूसरे के लिये आत्म समर्पण करते है, तो एक-दूसरे का कोई तीसरा व्यक्ति बिगाड़ने नहीं पाता है केवल इस प्रकार ही वह आध्यात्मिक दाम्पत्य अनुराग सम्भव हो सकता है, जिनका समझना उन व्यक्तियों के लिये कठिन है, जो अपने अनुभव से इस प्रेम और समझौते के इस पारस्परिक उत्तरदायित्व तथा सम्मान के, आशक्ति और आत्म सन्तोष के मानव तथा दिव्य प्रेरणाओं के विस्मयोत्पादक संयोग को, जिसका नाम सच्चा विवाह है, नहीं जानते।


एक-दूसरे की सहायता करते हुए, कष्टों को दूर करते हुए आर्थिक पूर्णता की ओर चलने से ही पारस्परिक सन्तोष प्राप्त होता है। मनु ने लिखा है कि जिस परिवार में पाँत और पत्नी सन्तुष्ट रहते हैं, वहाँ नित्य ही कल्याण होता रहता है। जहाँ स्त्रियों की पूजा है वहाँ देवताओं का वास होता है और जहाँ उनका सत्कार नहीं होता वहाँ की प्रत्येक क्रिया निष्फल होती है। जिस कुल को खियों में शोक होता है अर्थात् जिस कुल में स्त्रियाँ सताई जाती है शोकातुर, दुःखी, संतप्त रहती हैं, वह कुल नष्ट हो जाता है। खियाँ घर की लक्ष्मी हैं। जहाँ वे प्रसन्न रहती है, उस कुल को निरन्तर वृद्धि होती है। पति को पत्नी का तथा पत्नी को पति के सुखवर्द्धन का प्रयत्न करना चाहिये।


झगड़ों का निपटारा शीघ्र करें


पति-पत्नी के झगड़े कभी-कभी थोड़ी-थोड़ी बात में हो जाया करते हैं। छोटे-छोटे झगड़े यदि शान्त न किये जायें, तो विकट रूप ले लेते हैं। प्रायः पति मन ही मन अपने को बड़ा समझता रहता है। कलह होने पर वह सोचता है कि पत्नी को स्वयं उसे मनाना चाहिए, क्षमा-याचना करनी चाहिए। इसी प्रकार पत्नी का अहं कहना है कि वह पति को प्रेम करती है। पति उसे मनाते, वह क्यों माँफी माँगे ये दोनो ही दृष्टिकोण व्यर्थ और थोथे हैं। अतएव हर दृष्टि से त्याज्य है।


कभी-कभी पति को पत्नी के पत्नी को पति के चरित्र पर सन्देह हो जाता है भ्रम और सन्देह के जड़ पकड़ते ही गलतफहमी बढ़ती है। कालान्तर में वह एक जटिल मानसिक ग्रन्थि बन जाती है। गलतफहमी के कारण अनेक पति पत्नियों की हत्या कर डालते देखे गये हैं। चरित्र पर किया गया सन्देह अनेक बार झूठा सिद्ध होता है। पति-पत्नी को चाहिए कि खुल कर उसका निवारण कर लें। जो दोषी हो दूसरे से माफी मांग ले कलह और मनमुटावों को जल्दी से जल्दी तोड़ देने को प्रस्तुत रहना चाहिए। यदि पति-पत्नी में सच्चाई, ईमानदारी, एक दूसरे के प्रति वफादारी का भाव है, तो वे अवश्य अपने झगड़ों का का निवारण कर लेंगे। अपना दृष्टिकोण एक दूसरे के प्रति उदार, सहानुभूतिपूर्ण एवं कोमल रखिए। दूसरे शब्दों में एक दूसरे के लिए त्याग करने के लिए तैयार रहिए एक दूसरे के सुख-दुःख में साथ देना, झगड़ों को निपटाना, अवगुणों को दूर करना प्रेम का एक आवश्यक अंग है।


स्त्रियों का अहं बड़ी जल्दी घायल होता है। तनिक सी बात उनके मन में लग जाती है। स्वभावतः कोमल, लज्जाशील, सुकुमार होने के कारण वे जरा सी तिरछी बात में बुरा मानने, रूठने और नाराज होने को तैयार रहती है। उनकी पसन्द तथा आपकी पसन्द में अन्तर रहता है। संभव है जो बातें आपको प्रिय लगे, जो आपकी दिलचस्पी के विषय हो, उनमें वे तनिक भी दिलचस्पी न लें।


मनोविज्ञान का यह अटल सिद्धान्त है कि बिना चाही हुई राय, आचरण योग्य बातें शिक्षायें सम्मतियाँ, योजनाएँ, आलोचनाएँ दूसरा व्यक्ति पसन्द नहीं करता, चाहे वे कितनी ही श्रेष्ठ क्यों न हो। दूसरों की योजना या राय स्वीकार करने में हमारे 'अहं' भाव को चोट लगती है और हम हेठी समझते है। अपनी पराजय का भाव किसी को पसन्द नहीं आता।


अतएव कलह दूर करने के लिए आप सावधान रहिये। यदि आप पत्नी के कामों में अधिक हस्तक्षेप करेंगे या पत्नी पति के कार्यों में अनावश्यक टीका-टिप्पणी करेगी, तो उत्तेजना उत्पन्न होगी। तब पति उत्तेजित हो तो पत्नी को और जब पत्नी उम्र हो तो पति को पूर्ण शान्ति, सहानुभूति और सहनशीलता का परिचय देना चाहिए। दो गर्म या तोखी बात आपका जीवन-साथी कह दे तो उसे सहन करने में ही भलाई है। पति-पत्नी के जीवन मे सहिष्णुता का मूल्य अत्यधिक है। सहन कीजिए, उखाड़ये मत। यदि क्रोध, ईर्ष्या, नाराजगी के भाव को सहन कर कुछ दिन व्यतीत होने दिया जाय, तो समय के प्रभाव पुराने घाव स्वयं अच्छे हो जाते है। कटुता घुल जाती है। तनिक सोचकर देखिये, नाराज होने वाली आखिर आपकी पत्नी ही तो है। वह आपको प्रेम करती है, दिन-रात सेवा में जुटी रहती है, आपके बच्चों का पालन-पोषण, शिक्षण इत्यादि करती है यदि वह कुछ कह ही बैठी या उत्तेजना मे नाराज हो गई तो लौटकर उसे अपशब्द कहना, मारपीट बैठना, मानहानि करना कैसा अविवेकपूर्ण कार्य है ? इसी प्रकार पत्नी को यह स्मरण रखना चाहिए कि पति उसके तथा बाल बच्चों की उदर पूर्ति के लिये दिन-रात खून-पसीना एक करके कड़ा परिश्रम करता है, संसार के अनेक संघर्षो को झेलता है, दफ्तर में बीस बाबू खरी-खोटी सुनता है, यदि वह नाराज होकर कुछ कह बैठे तो इसमें उलट कर नाराज होने की कौन-सी बात है ? पत्नी का प्रेम, मृदुलता, सौहार्द, सहानुभूति, सज्जनता के गुण है, जिनसे उसका क्रोध स्वयं विलुप्त हो जायगा।


पाणिग्रहण के प्रथम मंत्र से ही स्त्रियों को यह उपदेश दिया जाता है कि वह गृहस्थ धर्म को अच्छी तरह प्रतिपालित करे और पाणिग्रहण करने वाले व्यक्ति के साथ इस संसार में सुख-सौभाग्य की वृद्धि करे। दूसरे मन्त्र का तात्पर्य यह होता है कि पति के घर जाकर अपने क्रोध एवं अमर्ष की संचित वासनाओं को जलाकर दूर कर दें, कभी भूलकर भी क्रोध, ईर्ष्या को दृष्टि से पति के प्रति या पति के स्वजनों के प्रति न देखे, प्रतिकूल आचरण न करें। ऐसा व्यवहार करें कि पति, पड़ौसी, सम्बन्धी यहाँ तक कि पशु आदि की भी मंगलकारिणी बने, क्योंकि पशु ही गृहस्थ पति के घर के सौभाग्यवर्द्धक एवं प्रतिष्ठा के सूचक है। नवोदा मे यही भावना होनी चाहिये। तीसरे मंत्र में पारिवारिक कठिनाइयों पर पति के साथ मनोयोगपूर्वक सहयोग का संकेत है।


एक मन्त्र का संक्षेप में तात्पर्य इस प्रकार है- "प्रियतमे । तुम्हें मैं केवल अपने सुख भोग और सेवा के लिए नहीं वरण कर रहा हूँ। तुम मेरे पिता की सेवा करना, मेरी माता बहिन तथा भाइयों की सुख-सुविधा का भी तुम्हें ध्यान रखना होगा।"


पूर्व काल में स्वार्थत्याग और सेवा का भाव कैसा महत्त्वपूर्ण था, यह उपरोक्त मंत्रों से विदित हो जाता है। इस पुनीत कर्त्तव्यक्षेत्र में कलह, क्लेश, ईयां द्वेष के लिए स्थान नहीं होना चाहिए।


पत्नी को चाहिए कि प्रेमिका के रूप में पति से व्यवहार करे। आजकल दाम्पत्य जीवन में जो विषमता और असन्तोष दिखाई देता है उसका कारण यही है कि पति-पत्नी के मध्य वैसा निस्वार्थ सेवामय, त्यागपूर्ण प्रेमपूर्ण व्यवहार नहीं होता जो विवाहोपरान्त कुछ वर्ष तक रहता है। स्री प्रेम की देवी है। उसका जीवन प्रेम से हो है। पुरुष बाह्य जगत में उलझा रहता है। वह विशुद्ध भाव से अनुरक्त पत्नी के लिए संसार के सब कष्टो को उसके प्रेम के लिए सहन करता है। अतः सब प्रकार के झगड़ो मनोमालिन्य और कलह से प्रेमपूर्ण सहानुभूति से ही काम लेकर एक दूसरे की गलतफहमी दूर करनी चाहिए।


अपने हृदय को विशाल कोजिए और ईर्ष्या, क्रोध, द्वेष, संदेह से ऊपर उठिये विवाहित जीवन एक समझौता है। शोध और ईर्ष्या से वह संकुचित होता है। अतएव दूसरों की बुराई देखना, चुगली करना, गुप्तरीति से चरित्रहीनता की चर्चा, पतन या गिरावट में प्रसन्नता इत्यादि दुर्गुणों को त्याग दीजिए। पतित व्यक्ति की टीका-टिप्पणी से आपको कोई लाभ नहीं हो सकता, केवल संकीर्णता ही उत्पन्न होती है। अतः परिवार के अन्य व्यक्तियों तक की बातें स्वीकार करते हुए दूसरो के विचारों एवं भावों की रक्षा करते हुए, सहनशीलता का परिचय देना चाहिए। पतियों को सहनशीलता का पालन करना चाहिए। यदि कभी उब बातें भी हो जायें, तो व्यर्थ मानसिक क्लेश बढ़ाने से कोई लाभ नहीं है। छोटे-छोटे झगड़े तो चुप रहने और थोड़े समय के प्रवाह से स्वयं विलुप्त हो जाते हैं।


सास-बहू के झगड़े- बहुसंख्यक परिवारों में सास-बहू के झगड़े चल रहे हैं। इसके अनेक कारण है। सास बहू को अपने नियन्त्रण में रखकर अनुशासन करना चाहती है। अपनी आज्ञानुसार उससे कार्य कराना चाहती है। कभी-कभी वह अपने पुत्र को बहका कर बहू की मरम्मत कराती है। प्रायः देखा गया है कि जहाँ कोई पुरुष स्त्री को कष्ट देता है, तो उसके मध्य में अवश्य कोई स्त्री सास, ननद या जिठानी रहती है। स्त्रियों में ईर्ष्या भाव अत्यधिक होता है। यह का व्यक्तित्व प्रायः लुप्त हो जाता है तथा उसे रौरव (नर्क) की यन्त्रणाएँ सहन करनी पड़ती है।


कहीं पर पति बहू के इंगित पर नृत्य करता है और उसके भड़काने से वृद्धा सास पर अत्याचार करता है। वृद्धा से कठिन कार्य कराया जाता है। वह धुंए में परिवार के निमित्त भोजन व्यवस्था करती है, जबकि बहू सिनेमा देखने या टहलने के लिए जाती है।


ये दोनों ही सीमाएँ निंद्य है। सास बहू के सम्बन्ध पवित्र हैं। सास स्वयं बहू को देखने के लिए लालायित रहती है। उसके लिए वह दिन बड़े गौरव का होता है, जब घर बहूरानी के पदार्पण से पवित्र होता है। उसे उदार, स्नेही, बड़प्पन से परिपूर्ण होना चाहिए। बहू की सहायता तथा पथ-प्रदर्शन के लिए कार्य करना चाहिए। छोटी-मोटी भूलों को सहृदयता से माफ कर देना चाहिए। इसी प्रकार यहू को सास में अपनी माता के दर्शन करने चाहिए और उसकी वही प्रतिष्ठा करनी चाहिए, जो वह अपनी माता की करती रही है। यदि पुरुष माता को माता के स्थान पर पूज्य माने और पत्नी को पत्नी के स्थान पर जीवन सहचरी, मिष्ठभाषिणी प्रियतमा माने तो ऐसे संकुचित झगड़े बहुत कम उत्पन्न होगे।


ऐसे झगड़ों में पुत्र का कर्तव्य बड़ा कठिन है। उसे माता की मान-प्रतिष्ठा का ध्यान रखना और पत्नी के गर्व तथा प्रेम की रक्षा करनी है। अतः उसे पूर्ण शान्ति और सहृदयता से कर्तव्य भावना को ऊपर रखकर ऐसे झगड़ो को शान्त करना उचित है। किसी को भी अनुचित रीति से दबा कर मानहानि न करनी चाहिए। यदि पति कठोर, उय लड़ने वाले स्वभाव का है, तो पारिवारिक शान्ति और समृद्धि भंग हो जायेगी। प्रेम और सहानुभूति से दूसरों के दृष्टिकोण को समझकर बुद्धिमत्ता से अग्रसर होना चाहिए।


ननद-भौजाई के झगड़े प्रायः देखा जाता है कि जहाँ ननदे अधिक होती है या विधवा होने के कारण मायके में रहती है, वहाँ बहू पर बहुत अत्याचार होते हैं। ननद-भाभी के विरुद्ध अपनी माता के कान भरती और भाई को भड़काती है। इसका कारण यह है कि बहिन भाई पर अपना पूर्ण अधिकार समझती है और अपने गर्व, अहं और व्यक्तित्व को अन्यों से ऊपर रखना चाहती है। भाई यदि अदूरदर्शी होता है, तो बहिन की बातों में आ जाता है और बहू अत्याचार का शिकार बनती है।


इन झगडों में पति को चाहिए कि पृथक्-पृथक् अपनी बहिन और पत्नी को समझा दे और दोनों के स्वत्व तथा अहं को पूर्ण रक्षा करे। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से दोनों का अध्ययन कर परस्पर मेल करा देना ही उचित है। मेल कराने के अवसरों की ताक में रहना चाहिए। दोनों को परस्पर मिलने, बैठने, साथ-साथ टहलने जाने एक-सी दिलचस्पी विकसित करने का अवसर प्रदान करना उचित है यह नहीं होना चाहिए कि पत्नी ही दोनों समय भोजन बनाती झूठे बर्तन साफ करतो, जिठानी के बच्चों को नहलाती घुलाती, आटा पीसती कपड़े धोती, दूध पिलाती या झाडू बुहारी का काम करती रहे। चतुर पति को चाहिए कि काम का बँटवारा कर दे। पत्नी को कम काम मिलना चाहिए क्योंकि उसके पास बच्चे भी पालने के लिए हैं। यदि कोई बीमार पड़ेगा, तो उसे उसका कार्य भी करना होगा।


वृद्धो का चिड़चिड़ापन और परिवार के अन्य व्यक्ति प्रायः देखा गया है कि आयु वृद्धि के साथ-साथ वृद्ध चिड़चिड़े नाराज होने वाले, सनकी, क्रोधी और सठिया जाते हैं। वे तनिक सी असावधानी से नाराज हो जाते हैं और कभी-कभी अपशब्दों का भी उच्चारण कर बैठते हैं। ऐसे वृद्ध क्रोध के नहीं, हमारी दया और सहानुभूति के पात्र है और हमें उनके साथ वही आचरण करना उचित है, जैसा बच्चो के साथ उनको विवेकशील योजनाओं तथा अनुभव से लाभ उठाना चाहिए और उनकी मूर्खताओं को उदारतापूर्वक क्षमा करना चाहिए।


वृद्धों को परिवार के अन्य व्यक्तियों के प्रेम और सहयोग की आवश्यकता है। हमें उनसे प्रीति करना, जितना हो सके आज्ञा पालन प्रतिष्ठा, उनके स्वास्थ्य का संरक्षण ही उचित है। खाने के लिए कपड़ों के लिए तथा थोड़े से आराम के लिए वह परिवार के अन्य व्यक्तियों की सहानुभूति की आकाक्षा करता है। उसने अपने यौवन काल में परिवार के लिए जो श्रम और बलिदान किए हैं, अब उसी त्याग का बदला हमे अधिक से अधिक देना उचित है परिवार के संचालन की कुंजी उत्तम संगठन है। प्रत्येक व्यक्ति यदि सामूहिक उन्नति में सहयोग प्रदान करे, अपने श्रम से अर्थ संग्रह करे, दूसरों को उन्नति में सहयोग प्रदान करे, सब के लिए अपने व्यक्तिगत स्वार्थो का बलिदान करता रहे तो बहुत कार्य हो सकता है।


स्वस्थ दृष्टिकोण दूसरों के लिए कार्य करना, अपने स्वार्थो को तिलांजिल देकर दूसरों को आराम पहुँचाना सृष्टि का यही नियम है। कृषक हमारे निमित्त अनाज उत्पन्न करता है, जुलाल वस्त्र बुनता है, दर्जी कपड़े सीता है, राजा हमारी रक्षा करता है। हम अकेले सब काम नहीं कर सकते हैं। मानव-जाति में पुरातन काल से पारस्परिक लेन-देन चला आ रहा है। परिवार में प्रत्येक सदस्य को इस त्याग, प्रेम, सहानुभूति की नितान्त आवश्यकता है। जितने सदस्य है सबको आप प्रेम-सूत्र में आवद्ध कर लीजिए। प्रत्येक का सहयोग प्राप्त कीजिए, प्यार से उनका संगठन कीजिए।


इस दृष्टिकोण को अपनाने से छोटे-बड़े सभी झगड़े नष्ट होते हैं। अक्सर छोटे बच्चों की लड़ाई बढ़ते-बढ़ते बड़ो को दो हिस्सो में बाँट देती है। पड़ोसियों में बच्चों की लड़ाइयों के कारण युद्ध उन उठता है। स्कूल में बच्चों की लड़ाई घरो में घुसती है। कलह बढ़कर मारपीट और मुकदमेबाजी की नौबत आती है। उन सबके मूल में संकुचित वृत्ति, स्वार्थ की कालिमा व्यर्थ वितंडावाद, दुरभिसन्धि इत्यादि दुर्गुण सम्मिलित हैं।


हम मन में मैल लिए फिरते हैं और इस मानसिक विष को प्रकट करने के लिए अवसरों की प्रतीक्षा में रहते हैं झगड़ालू व्यक्ति जरा-जरा सी बातों में झगड़ों के लिए अवसर ढूँढा करते हैं। परिवार में कोई न कोई ऐसा झगड़ालू व्यक्ति जिद्दी बच्चा होना साधारण-सी बात है। इन सब को भी विस्तृत और सहानुभूति के दृष्टिकोण से ही निरखना चाहिए।


हमें एक दूसरे के भावों, दिलचस्पी, रुचि, दृष्टिकोण, स्वभाव, आयु का ध्यान रखना अपेक्षित है। किसी को वृथा सताना या उससे अधिक कार्य लेना बुरा है उद्धत स्वभाव का परित्याग कर प्रेम और सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए। कुटिल व्यवहार के दोषों से जैसे अपना आदमी पराया हो जाता है. अविश्वासी और कठोर बन जाता है, वैसे ही मृदुल व्यवहार से कट्टर


शत्रु भी मित्र हो जाता है। विश्व में साम्यवाद को परिपुष्ट करने के लिए परिवार ही से श्रीगणेश करना उचित है। न्याय से मुखिया को समान व्यवहार करना चाहिए।


परिवार के युवक तथा उनकी समस्याएँ - प्रायः युवक स्वच्छन्द प्रकृति के होते हैं और परिवार के नियन्त्रण में नहीं रहना चाहते। वे उच्छृंखल प्रकृति के पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित हलके रोमांस के वशीभूत होकर पारिवारिक संगठन से दूर भागना चाहते है। यह बड़े परिताप का विषय है।


युवकों के झगड़ों के कारण है-१- अशिक्षा, २- कमाई का अभाव, ३- प्रेम सम्बन्धी अड़चने-घर के सदस्यों की रूढ़िवादिता और युवकों की उन्मुक्त प्रकृति, ४- कुसंग पानी का स्वच्छन्दता प्रिय होना तथा पृथक घर में रहने की आकाक्षा ६ विचार सम्बन्धी पृथकता- पिता का पुरानी धारा के अनुकूल चलना, पुत्र का अपने अधिकारों पर जमे रहना, ७-जायदाद सम्बन्धी बँटवारे से झगड़े। इन पर पृथक-पृथक विचार करना चाहिए।


यदि युवक समझदार और कर्तव्यशील है, तो झगड़ो का प्रसंग ही उपस्थिति न होगा। अशिक्षित, अपरिपक्व युवक ही आवेश में आकर बहक जाते हैं और झगड़े कर बैठते हैं। एक पूर्ण शिक्षित युवक कभी पारिवारिक विद्वेष या कलह में भाग न लेगा। उसका विकसित मस्तिष्क इन सबसे ऊंचा उठ जाता है। वह जहाँ अपना अपमान देखता है, वहाँ स्वयं ही हाथ नही डालता।


कमाई का अभाव झगड़ों का एक बड़ा कारण है। निखट्टू पुत्र परिवार में सब की आलोचना का शिकार होता है। परिवार के सभी सदस्य उससे यह आशा करते हैं कि वह परिवार की आर्थिक व्यवस्था में अधिक ह यॅटायेगा जो युवक किसी पेशे या व्यवसाय के लिए प्रारम्भिक तैयारी नहीं करते, वे समाज में 'फिट' नहीं हो पाते। हमें चाहिए कि प्रारम्भ से ही घर के युवको के लिए काम तलाश करले, जिससे बाद में जीवन प्रवेश करते समय कोई कठिनाई उपस्थित न हो। संसार कर्मक्षेत्र है। यहाँ हम में से प्रत्येक को अपना कार्य समझना तथा उसे पूर्ण करना है। हम में जो प्रतिभा, बुद्धि, अज्ञात शक्तियाँ हैं, उन्हें विकसित कर समाज के लिए उपयोगी बनना चाहिए।


जरमी टेलर कहते हैं "जीवन एक बाजी के समान है। हार-जीत तो हमारे हाथ में नहीं है, पर बाजी का ठीक तरह से खेलना हमारे हाथ में है। यह बाजी हमें बड़ी समझदारी से, छोटी-छोटी भूलों से बचते हुए निरन्तर आत्म-विकास और मनोवेगों का परिष्कार करते हुए करनी चाहिए।


बटैण्ड रसेल ने लिखा है- "इस जगत् में सब से बड़ी तारीफ की बात यह है कि जिन लोगों में स्वाभाविक शक्ति की न्यूनता रहती है, यदि वे उसके लिए सच्चा साधन और अभ्यास करें, तो परमेश्वर उन पर अनुग्रह करता है।" वर्गसा ने भी निर्देश किया - "गुवा पुरुष बहुत से अंशो मे जो होना चाहे हो सकते हैं।" मैक्सिम गोर्की ने कहा है- "जीवन में शारीरिक और मानसिक परिश्रम के बिना कोई फल नहीं मिलता दृढ वित्त और महान उद्देश्य वाला मनुष्य जो चाहे कर सकता है।"


प्रतिभा की वृद्धि कीजिए आपको नौकरी, रुपया, पैसा, प्रतिष्ठा और आत्म सम्मान प्राप्त होगा। उसके अभाव में आप निखट्टू बने रहेंगे। प्रतिभा आपके दीर्घकालीन अभ्यास, सतत् परिश्रम, अध्यवसाय उत्तम स्वास्थ्य पर निर्भर है। प्रतिभा हम अभ्यास और साधन से प्राप्त करते हैं। मनुष्य की प्रतिभा स्वयं उसी के संचित कर्मों का फल है। अवसर को हाथ से न जाने दे, प्रत्येक अवसर का सुन्दर उपयोग करें और दृढ़ता, आशा और धीरता के साथ उन्नति के पथ पर अग्रसर होते जायें। स्वसंस्कार का कार्य इसी तरह सम्पन्न होगा।


पिता के प्रति पुत्र के तीन कर्तव्य है-१-स्नेह, २-सम्मान तथा आज्ञा पालन जिस युवक ने पिता, प्रत्येक बुजुर्ग का आदर करना सीखा है, वही आत्मिक शान्ति का अनुभव कर सकता है।


परिवार से युवक का मन तोड़ने में विशेष हाथ पत्नी का होता है, उसे अपने 'स्व' का बलिदान कर सम्पूर्ण परिवार की उन्नति का ध्यान रखना चाहिए। समझदार गृहिणी समस्त परिवार को सम्हाल लेती है।


आज के युवक-प्रेम-विवाह से प्रभावित है। जिसे प्रेम-विवाह कहा जाता है, वह क्षणिक वासना का तांडव, थोथी समझ की मूर्खता, अदूरदर्शिता है जिसे ये लोग प्रेम समझते हैं, वह वासना के अलावा और कुछ नहीं होता। उसका उफान मत होते ही प्रेम-विवाह टूक-टूक हो जाता है। चुनावों में भारी भूलें मालूम होती हैं। समाज में प्रतिष्ठा का नाश हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को सन्देह की दृष्टि से देखा जाता है।


अनेक पुत्र विचारों में विभिन्नता होने के कारण झगड़ों का कारण बनते हैं सम्भव है युवक पिता से अधिक शिक्षित हो किन्तु पिता को अनुभव अपेक्षाकृत अधिक होता है। पुत्र को उदारतापूर्वक अपने विचार पिता के समक्ष रखने चाहिए और उनसे आवश्यक परामर्श करना चाहिए।


दाम्पत्य मनोरंजन


पति-पत्नी का सम्बन्ध केवल शारीरिक ही नहीं, मानसिक भी होता है। मानसिक क्षुधा के निवारण के लिए मनोरंजन की आवश्यकता है जब अप एकान्त मे रहते है. तो क्या बाते करते हैं?


पति को सबसे अधिक आवश्यकता पत्नी के द्वारा किये गये मनोरजन की होती है। एक अंग्रेज लेखक ने लिखा है कि उसने निश्चय कर रखा था कि मैं तब तक विवाह न करूँगा, जब तक मुझे रसिक पत्नी न मिलेगी स्त्री के लिए हँसमुख तथा रसिक होना सुन्दर होने की अपेक्षा कई गुना अधिक अच्छा है। जो स्त्री या पुरुष रसिक, आमोदप्रिय आनन्दी स्वभाव के है, वे अपनी गरीबी में भी विवाहित जीवन का आनन्द लूटते हैं। लड़की के विवाहित जीवन का सुखमय या दुःखमय होना इस तत्व पर निर्भर करता है कि उसमे रसिकता, आमोद-प्रमोद, आशावादिता है या नहीं ? यदि वह अपने पति को एक बहुत ही हँसाने वाले हँसा हँसा कर लोट-पोट करने वाले के रूप में देख सकती है, तो समझ लो कि उसका दाम्पत्य जीवन सुखमय होगा। गृहस्थी को नष्ट करने वाली स्त्रियाँ प्रायः वे होती है, जो पति की प्रत्येक बात को गम्भीरता से देखती है, जो जब कभी भी उनके पति की दृष्टि किसी दूसरी स्त्री पर पड़ जाय या जब वह नियत समय पर घर न पहुँचे तत्काल लड़ना प्रारम्भ कर देती है या पति के उनकी कोई चीज लाना भूल जाने पर रोने लगती है। इसके विपरीत हँसमुख प्रकृति की स्त्रियाँ वृद्धावस्था तक जीवन का आनन्द लेती हैं।


ऐसे अवसर ढूंढिये जिसमें आपको एक दूसरे से मनोरंजन करने का अवसर प्राप्त हो सायंकाल दोनों हवाखोरी को जाइये और अपने हृदयों के भार को हल्का करते चलिये। भावी जीवन की आनन्ददायक कल्पनाओं में बड़ा रस और आनन्द आता है। यह गम्भीरता का समय नहीं है। अपने दफ्तर की चिन्ताओं को छोड़ कर हंसी-खुशी के दो क्षण व्यतीत कीजिये। उद्यान में नदी के तट पर प्रात: सायंकाल टहलने से न केवल स्वास्थ्य ही बनता है प्रत्युत जीवन में रस और ताजगी आती है।


जो दम्पत्ति संगीत में निपुण है, उन्हें संगीत द्वारा मन में उल्लास उत्पन्न करना चाहिये। ताश खेलिए, कैरम शुरू कीजिए, चौपड़ या घर के कोई खेल ले सकते हैं। बच्चों में दिलचस्पी लीजिए। अखबार पढ़ कर सुनाइए जिससे एक दूसरे का मनोरंजन हो सके। कहानी, कविता, उपन्यास इत्यादि एक दूसरे को पढ़ कर सुनाइए। कभी-कभी सम्मिलित रूप में सिनेमा भी देखने जा सकते है। छोटी-छोटी यात्राएँ मनोरंजन की वृद्धि करती हैं। भोजन पकाने में दिलचस्पी लेकर आप पत्नी को प्रोत्साहित कर सकते है। सम्मिलित चाय मिष्ठान्न या फल खाना सुन्दर है। यथासम्भव एक-दूसरे की आवश्यकताएँ देखकर मनोरंजन की योजना बनानी चाहिए। कला, साहित्य, शिल्प बागवानी, छोटे जानवर पालकर, घर मे अच्छी-अच्छी तरकारियाँ, सलाद, मिठाइयाँ बनाकर नए-नए स्थानों की सम्मिलित सैरकर जीवन में सरसता का संचार किया जा सकता है। प्रति वर्ष कुछ धन संचित कर नए-नए स्थानों पर भ्रमण करने की योजना रखनी चाहिए। सप्ताह में इतवार की छुट्टी घर से बाहर किसी सुन्दर प्राकृतिक स्थान पर व्यतीत की जा सकती है। 

कुछ व्यक्तियों में यह गलत धारणा बैठ गई है कि काम सेवन ही दाम्पत्य जीवन का मुख्य मनोरंजन है। विवाह को काम सेवन का पासपोर्ट समझना महा अनर्थकारी विचार है। काम सेवन की मर्यादाएँ निश्चित होनी चाहिए और कम से कम इस ओर प्रवृत्त होना चाहिए।


काम वासना स्त्री-पुरुष के पारस्परिक आकर्षण का एक मनोवैज्ञानिक कारण है। पति-पत्नी जितना कम संभोग करते हैं, उतना ही उनका एक दूसरे के प्रति आकर्षण बना रहता है। प्रतिदिन सम्भोग का आनन्द लूटने वाले उस आकर्षण को नष्ट कर देते है, जो नियन्त्रित जीवन द्वारा प्राप्त होता है।


काम वासना की पूर्ति के पश्चात् व्यक्ति को मालूम होता है कि क्षणिक समागम के लिए उसने अपने जीवन का सार तत्व बहुमूल्य वीर्य नष्ट कर दिया है। अधिक वीर्यपात का अर्थ अनेक घृणित रोग होते हैं। ऐसा व्यक्ति वेश्यागामी बन जाता है और नपुसंकता, बहुमूत्र, गर्मी, सुजाक, कब्ज, प्रमाद तथा अन्य गन्दे रोगों का शिकार बन अल्पायु में ही काल-कलवित होता है। इस गन्दे मनोरंजन के प्रति सचेत रहना चाहिए।


भगवान का भजन, पूजन, कीर्तन, गायन, वादन, कविता पाठ, नृत्य, भ्रमण, घरेलू कार्यों में मनोरंजन के आनन्द लिये जा सकते है। अपने बच्चों भाई-बहिनों के साथ खेल कूदकर मन बहलाव किया जा सकता है।


उपयोगी मनोरंजन


हमारे परिवारों में आमोद-प्रमोद का कोई विशेष ध्यान नहीं रखा जा रहा है, फलतः वह दुःख से भरे है। हम अपने परिवार से अनेक प्रकार के काम तो चाहते है, उसके लिए पुनः पुनः उनसे कहते हैं, किन्तु हम यह नहीं सोचते कि परिवार में मनोरंजन के कितने साधन हमने एकत्र किये हैं। सौ में अस्सी प्रतिशत परिवार अशिक्षा के अन्धकार में डूबे है उनमें आमोद-प्रमोद की आवश्यकता ही अनुभव नहीं की जाती। जिन परिवारों में आमोद-प्रमोद का ध्यान नहीं दिया जाता, वहाँ के व्यक्तियों का जीवन बड़ा शुष्क और व्यस्त रहता है। वहाँ के व्यक्ति अल्पायु होते हैं।


अन्न-जल की तरह प्रफुल्लता- सरसता भी जीवन के सम्यक् संचालन हेतु आवश्यक है। इन्हें भी नियमित आहार जैसा ही अनिवार्य मानना चाहिए। इनके अभाव में जीवन शुष्क और बोझिल बन जाता है। इसलिए प्रत्येक परिवार के प्रधान सदस्यों को परिवारिक आमोद-प्रमोद की


व्यवस्था हेतु भी निरन्तर सजग तत्पर रहना चाहिए। आज सामान्यतः पारिवारिक मनोरंजन का एकमेव माध्यम सिनेमा रह गया है। किन्तु वस्तुतः सिनेमा स्वस्थ मनोरंजन अभी नहीं बन सका है और वह भौड़ा, स्तरहीन आर्थिक दृष्टि से महँगा तथा मानसिक बौद्धिक दृष्टि से हानिकर व दूषित माध्यम है हमारी अधिकांश वर्तमान फिल्ममेकर विषाक्त, विसंगत, विकृत एवं विचित्र कथानकों तथा दृश्यों का एक बेतुका संग्रह भर होती हैं। वे दर्शको के मस्तिष्क पर न केवल उत्तेजक, अवांछित प्रभाव डालती हैं, अपितु ये चिन्तन-शक्ति और विवेक-बुद्धि को भी दुर्बल बनाने वाली प्रेरणाओं से भरी होती है किन्तु हमारे परिवारों में आजकल मनोरंजन की व्यवस्था न किये जाने के कारण फिल्मे ही आमोद-प्रमोद का सर्वमान्य माध्यम बन चली है। जबकि यह मनोरंजन परिवार और समाज को पतन एवं विनाश के ही पथ पर ढकेलता है। अतः परिवार निर्माण के लिए स्वस्थ मनोरंजन की व्यवस्था करने में चूकना न चाहिए।


मनोरंजन के सामान्य सिद्धान्तों को समझ लेना आवश्यक है। शारीरिक श्रम की प्रधानता वाले व्यवसायों में लगे लोगों के लिए आमोद-प्रमोद के साधन मानसिक होने चाहिए, जबकि मानसिक श्रम की प्रधानता वाले लोगों को शारीरिक हलचलों वाले कार्यों खेल-कूद, दौड़-भाग, टहलना आदि को मनोरंजन के लिये अपनाना चाहिए।


दिन भर शरीरश्रम कर पसीना बहाकर आजीविका उपार्जन करने वाले मनोरंजन के ऐसे साधन चुने जिससे उनके थके-मंदि शरीर को अधिक परिश्रम न करना पड़े। सर्वोत्तम तो यह कि ये लोग अवकाश का समय पुस्तकालय में बिताएँ, समाचार-पत्र, साप्ताहिक मासिक पत्र-पत्रिकायें पढ़ें नई-नई पुस्तकें पढ़े तथा मनोरंजन के साथ ज्ञानवृद्धि भी करें।


इन दिनों सरकार प्रौढ़ शिक्षा को उचित महत्व दे रही है। श्रमिक, मिल-कर्मचारी, मिस्त्री, किसान, फुटकर व्यापारी जिन्हें शारीरिक भाग-दौड़ खूब करनी होती है, मनोरंजन के लिये प्रौढ़-शिक्षा योजना का भी लाभ उठाये। जो साक्षर है वे इसके द्वारा आगे शन-विकास करें। दूसरो को पढ़ायें। पढ़ाने के माध्यम इनमें औपचारिक पाठ्य पुस्तकों जैसे नहीं रखे जाते हैं, अपितु मनोरंजक ढंग से ही अनौपचारिक शिक्षा पाठ्यक्रम तैयार होता है। अतः उसे भी अपने मनोरंजन तथा विकास का एक साथ साधन बनाया जा सकता है। कविताएँ, गीत, दोहे, चौपाई, लोकगीत आदि सुलभ एवं सात्विक मनोरंजन है।


इनके सरस अंशों का उच्च-स्वर से पाठ करने से थकान और शुष्कता दोनों दूर हो जाते है।


लिखा-पढ़ी क्लक, अफसरी करने वाले सायंकाल कुछ न कुछ खेलने की योजना बनाये हाकी, फुटबाल, टेबिल-टेनिस, बेडमिंटन आदि जो भी रुचि हो, खेलें, टहलने जाये भागे दौड़े, उछलें कूदें, शारीरिक व्यायाम अवश्य करें। सामूहिक मनोरंजन के लिए भोजन के उपरान्त रात्रि में पूरा परिवार एक साथ बैठे एक व्यक्ति किसी स्वस्थ मनोरंजक पुस्तक, समाचार-पत्र, पौराणिक, धार्मिक ग्रन्थ आदि का उच्च स्वर से पाठ करे, अन्य सुनें। यह क्रम बदलता रहे। यदि सामर्थ्य हो, तो धीरे-धीरे करके घर में एक घरेलू पुस्तकालय खोल लिया जाय व अच्छे साहित्य का आनन्द लूटा जाय। उपयोगी पत्र-पत्रिकायें मँगाई जाये।


प्रयास यह रहना चाहिए कि प्रत्येक परिवार में कम से कम, महिला समस्याओं का सुगम संगीत का अभ्यास हो ही। हारमोनियम, सितार, तानपूरा तबला, ढोलक जो भी वाद्ययन्त्र रुचे और सुलभ हो उसी पर गाना चाहिए। अच्छी कवितायें गायी जायें। संगीत और वादन, मनोरंजन के श्रेष्ठ सात्विक साधन हैं। रेडियो से भी अच्छी धुनें सीखी जाती रह सकती है। एक रेडियो खरीद लेने की व्यवस्था करने का आजकल प्रायः प्रत्येक परिवार प्रयास करता है। इस रेडियो का उपयोग पूरी तरह किया जाये। मात्र फिल्मी गाने सुनते रहने से ही समय न खोया जाये। अपितु रेडियो कार्यक्रमों को भरपूर उपयोग किया जाये, जिनसे कि मनोरंजन एवं जानकारी दोनों प्राप्त होते हैं। रेडियो में विविध शैक्षणिक, सांस्कृतिक कार्यक्रम रखे जाते हैं। महिलाओं और बच्चों के अलग-अलग कार्यक्रम भी होते हैं। इनसे सुरुचिपूर्ण मनोरंजन एवं जानकार की वृद्धि दोनों लाभ हुआ करते हैं।


स्त्रियों का जीवन अधिक बँधा हुआ है। अतः उनके लिए छुट्टियों, पिकनिक, सैर आदि की अत्यन्त आवश्यकता है छुट्टी का दिन सदैव घर से बाहर बिताने का प्रबन्ध करना चाहिए। भोजन लेकर किसी उद्यान, झील नदी तट समीपस्थ जंगल या अन्य रमणीय प्राकृतिक स्थानों में जाया जाये वन-संचार के सामूहिक कार्यक्रम भी रखे जा सकते हैं। शिविर-जीवन का अभ्यास नितान्त आवश्यक है। ऐसे भ्रमण से शरीर और मन दोनों में नवीन स्फूर्ति का संचार होता है।कुछ लम्बी छुट्टियों में स्थान परिवर्तन किया जाये। पर्यटन से स्वास्थ्य संवरता है। प्रफुल्ल चित्त से घर-परिवार में नई ताजगी का संचार होता है। साप्ताहिक अवकाश के दिन भी भोजन के साथ ही खेलने का सामान साथ ले जाकर दिनभर का स्नान, भोजन, खेल संगीत, भ्रमण का कार्यक्रम रखा जा सकता है।


पव-त्यौहारों का वर्तमान बोझिल रूप तो सर्वथा त्याज्य और परिवार के सदस्यों को उनका यही स्वरूप भी भली-भाँति ज्ञात हो चुका है। वर्षो का उल्लास और प्रेरणा के विशिष्ट अवसरों के रूप में ही मनाया जाना चाहिए, ताकि हृदय में उत्साह और मन में आह्लाद का संचार हो उठे।

अपने मिशन के प्रत्येक सदस्य को विभिन्न संस्कार आयोजना तथा पर्वो को सर्वोत्कृष्ट रूप में मनाने की दिशायें प्राप्त है और ये आयोजन पारिवारिक एवं सामाजिक मनोरंजन तथा लोकशिक्षण के अनूठे माध्यम हैं। इनका समाज में सर्वत्र प्रचलन हो जाये, तो स्वस्थ्य मांगलिक मनोरंजन का अक्षय स्रोत ही सबके सामने खुल जाये और सिनेमा के विषाक्त मनोरंजन का आकर्षण भी उतना प्रबल तथा प्रभावकारी न रहे।


हर घर में विचार गोष्ठियों और छोटे आयोजनो का प्रचलन विस्तार हो। जन्मदिन, विवाह, पुंसवन, नामकरण अन्नप्राशन, मुण्डन, विद्यारम्भ जैसे परिवारिक संस्कारों का समुचित आयोजन हो, जप, हवन, सहगान, प्रवचन क्रम चले तो प्रत्येक परिवार में श्रेष्ठ परम्पराओं की स्थापना का प्रकाश और प्रेरणा तो मिलेगी ही, उत्कृष्ट, सात्विक मनोरंजन की आवश्यकता भी पूरी होती चलेगी।


इसी प्रकार दीपावली, बसंतपंचमी, शिवरात्रि, होली, रामनवमी, गायत्री जयन्ती, गंगादशहरा, श्रावणी, कृष्णाष्टमी और विजयादशमी के पर्वो के सामूहिक आयोजन मनोरंजन एवं लोकशिक्षण को नई दिशाएँ उद्घाटित करने वाले सिद्ध होगे। स्वस्थ, सुरुचिपूर्ण, सात्विक, आमोद-प्रमोद की व्यवस्था के अभाव में हमारा पारिवारिक जीवन शुष्क तथा बोझिल हो चला है। इस स्थिति में हम सबका पारिवारिक एवं सामाजिक भूमिका तथा दायित्व और अधिक महत्त्वपूर्ण हो उठा है। उसका निर्वाह करते हुए हम स्वयं को भी तथा औरो को भी आनन्द तथा नवीन शक्ति से भरते रह सकते है।



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