मंगलवार, 11 जुलाई 2023

हम साथ साथ हैं

 मित्रता की आवश्यकता एवं उसका निर्वाह

परिवार में अनेक ऐसी अड़चनें आती है जिनमे पड़ोसी तथा मित्रो की सहायता के बिना काम नहीं चलता । विवाह, जन्मोत्सव, प्रवास में जाने पर बीमारी में, मृत्यु के दुःखद प्रसंगों में आर्थिक कठिनाइयों के मौकों पर तथा जटिल अवसरों पर राय लेने के लिए मित्रो की  आवश्यकता है। मित्र तथा उत्तम पड़ोसी का चुनाव बड़ा कठिन है। अनेक व्यक्ति आपसे अपना काम निकालने के स्वार्थमय उद्देश्य से मित्रता करने को उतावले रहते हैं किन्तु अपना कार्य निकल जाने पर कोई सहायता नही करते। मित्र का चुनाव सावधानी से व्यक्ति का चरित्र, आदतें, संग, शिक्षा इत्यादि का निश्चय करके  होना चाहिए। आपका मित्र उदार, बुद्धिमान पुरुषार्थ और सत्यपरायण होना चाहिए। विश्वासपात्र मित्र जीवन की एक औषधि है। हमे अपने मित्रों से यह आशा करनी चाहिए कि वे हमारे उत्तम संकल्पों को दृढ करेंगे तथा दोषो एवं त्रुटियों से बचायेंगे, हमारी सत्य पवित्रता और मर्यादा को पुष्ट करेंगे। यदि हम कुमार्ग पर पाँव रखेंगे, तब हमे सचेत करेंगे सच्चा मित्र एक पथ-प्रदर्शक, विश्वासपात्र और सच्ची सहानुभूति से पूर्ण होना चाहिए।

 "उच्च और महत्वपूर्ण कार्यों में इस प्रकार सहायता देना, मन बढ़ाना और साहस दिखाना कि तुम अपनी निज की सामर्थ्य से बाहर काम कर जाओ। यह कर्तव्य उसी से पूर्ण होगा, जो दृढ चित्त और और सत्य संकल्प का हो। हमें ऐसे ही मित्रों का पल्ला पकड़ना चाहिए, जिनमें आत्मबल हो जैसे सुग्रीव ने राम का पल्ला पकड़ा था।"

मित्र हों तो प्रतिष्ठित और शुद्ध हृदय के हो, मृदुल और पुरुषार्थी हों, शिष्ट और सत्यनिष्ठ हो, जिससे हम अपने को उनके भरोसे पर छोड़ सके और यह विश्वास कर सके कि किसी प्रकार का धोखा न होगा। मित्रता एक नई शक्ति की योजना है।  "आचरण, दृष्टान्त ही मनुष्य जाति की पाठशाला है, जो कुछ उससे सीख सकता है वह और किसी से नही।'

यदि आप किसी के मित्र बनते हैं तो स्मरण रखिये आपके ऊपर यही जिम्मेदारी आ रही है आपको चाहिए कि अपने मित्र की विवेक-बुद्धि अन्तरात्मा को जाग्रत करे, कर्तव्य बुद्धि को उत्तेजना प्रदान करें और उसके लड़खड़ाते पाँवों में दृढ़ता उत्पन्न कर दे। जीवन के आवश्यक कार्य हमारे कर्म चार प्रकार के होते है।

(१) पशु तुल्य (२) राक्षस तुल्य, (३) सत्पुरुष तुल्य, (४) देव तुल्या प्रत्येक व्यक्ति को अपने परिवार में कार्य करते समय इन पर दृष्टि डालनी चाहिए। वे सब कार्य जिनमे बुद्धि का उपयोग न किया जाय, क्षणिक आवेग या प्रकृति के संकेत पर बिना जाने-बुझे कर डाले जायें पशु तुल्य कार्य हैं। जैसे भोजन, कामेच्छा की पूर्ति, गुस्से में मार बैठना, प्रसन्नता में वृथा फूल उठना जीभ तथा वासनाजन्य सुख इसी श्रेणी में आते है।

स्वार्थ की पूर्ति के लिए जो कार्य किये जायें, वे राक्षस जैसे कार्य होते है। राक्षस वृत्ति वाले पुरुष साम दाम, दण्ड, भेद से अपना ही अपना भला चाहते हैं। दूसरो को मार कर स्वयं आनन्द में मस्त रहते हैं। उन्हें किसी के दुःख तकलीफ, मरने-जीने से कोई सरोकार नहीं है। ऐसे अविवेकशील माँस भक्षण, रति-प्रेम, व्यभिचार, चोरी, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, जैसे गुप्त पाप किया करत है। 'खाओ-पीओ मौज उड़ाओ' यही उनका आदर्श है। दुर्भाग्य व्यभिचार, मांस भक्षण, मद्यपान, भोग उनके आनन्द के ढंग है। 

सत्पुरुष आज की आवश्यकताओं की पूर्ति करता, कल के लिए योजना बनाता, धन, अनाज, वस्त्र इत्यादि का संग्रह करता, अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान रखता, बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और भावी उन्नति का विचार रखता है। वह पृथ्वी पर ही अपनी सद्भावनाओं तथा सद्बछाओ द्वारा स्वर्ग का निर्माण करता है। वह जानता है कि जीवन में धन सफलता की कसौटी नहीं है। धर्म ही वह साधन है जिसके द्वारा पुण्यजीविका एकत्र की जाती है।

वह पाप जीविका, छल-जीविका, जुआ, सट्टा, भिक्षा, ब्याज से दूर रहता है वह दूसरे को ठगने का प्रयत्न नहीं करता। उसकी जीविका उपार्जन का कार्य सउद्देश्य से होता है। सच्चाई और पुण्य की कमाई से खूब फूलता फलता है। बुराई से खरीदी हुई प्रतिष्ठा क्षणिक होती है। यथाशक्ति वह दूसरों को दान-पुण्य से सहायता करता है। जीवन निर्वाह के बदले वह उचित सेवा भी करता है।

देव तुल्य जीवन का उद्देश्य त्याग तथा साधना द्वारा जन सेवा के कार्य है। यह सेवा शरीर, मन या शुभ विचारों के द्वारा हो सकती है। विश्व कल्याण के लिए जीने वाला व्यक्ति मनुष्य होते हुए भी देवता है। वह अपनी बुद्धि एवं ज्ञान को विश्वहित के लिए बलिदान करता है। ज्ञान चर्चा द्वारा वह दूसरों का मन भी उच्च विषयों की ओर फेरता है। उसकी दिनचर्या में उत्तम प्रवचनों का श्रवण, शंकानिवारण, पठन, चिन्तन, आत्मनिरीक्षण, निर्माण और उपदेश होते है। वह संसार की वासनाओं के ऊपर शासन करता है।


दाम्पत्य जीवन का सुख यों प्राप्त करें

दाम्पत्य जीवन में आपसी सम्यक बूझ और स्नेह प्रेम न हुआ, तो पास्परिक क्लेश कटुता बढ़ने लगते हैं और जीवन जल्दी ही नरक तुल्य बन जाता है। इस नारकीयता से त्राण पाने के लिए पति-पत्नी तलाक की आवश्यकता महसूस करते है और जिस जीवन की शुरूआत सुख-सृष्टि की अनन्त संभावनाओं के साथ हुई थी, वह अन्ततः दारुण दुःख के साथ बिखर जाता है। यहाँ कुछ आवश्यक ज्ञातव्य दिये जा रहे है, जिनका यदि दाम्पत्य जीवन में पालन किया गया, तो उनसे पति-पत्नी के बीच वास्तविक स्वर्ग-सृजन में सहायता मिल सकती

 पति-पत्नी एक दूसरे को सच्चे हृदय के गहन तल से प्रेम करें। प्यार का अर्थ है प्रियजनों के दोष और त्रुटियो को क्षमा करते रहना। मतभेद होने पर समझौता करे और गलतफहमी होने पर जल्दी से जल्दी उसे दूर करे। प्रेम मे अभाव को भुला देना चाहिए। क्षमाशीलता से सरसता पुनः आ जाती है।  पति-पत्नी परस्पर एक दूसरे में अविचलित विश्वास रखें। दाम्पत्य जीवन में सन्देह के समान कोई बड़ा शत्रु नहीं है। मन को विषमय बनाने के लिए सन्देह से बढ़कर अन्य भावना नहीं है।

 साथ-साथ रहे सुख-दुःख में संपद- विपद में, हर्ष और आह्लाद में सदा एक-दूसरे के साथ रहें। जीवन में कष्ट आये, तो साथ रहें, हर्ष के अवसर आये तो साथ ही हर्षित होकर खुशी मनायें। बीमारी में एक दूसरे का पूरा साथ दें धर्म के सब कार्य हमारे यहाँ सम्मिलित मिलकर मनाने की प्रथा है। सम्मिलित दान, स्नान, यात्रा, कर्म इत्यादि से धर्म की सिद्धि मानी गई है। पति-पत्नी को चाहिए कि सब कामों में साथ-साथ रहे।

एक दूसरे की निस्वार्थ भाव से सेवा करें और उसके लिए अपने स्वार्थो का परित्याग करें। पत्नी पति के लिए और पति पत्नी के लिए अपने संकुचित स्वार्थ का त्याग करें। इस पारिवारिक त्याग से, आदान-प्रदान की नीति से काम लें। इससे वाणिज्य व्यापार तो चलता ही है, पर गृह संसार में भी यही नीति लाभ देती है।

 एक दूसरे के आचरण की आलोचना न करें। बुराई किसमें नहीं है ? कमजोरियों से कौन बचा है ? सबसे पहले दम्पत्ति को दोषान्वेषण की आदत छोड़ देनी चाहिए। एक दूसरे के दोष दर्शन से दाम्पत्य जीवन में कटुता उत्पन्न होती है और पारस्परिक विश्वास नष्ट हो जाता है। दोष देखने का अर्थ एक दूसरे को नीचा दिखाना है। इससे घृणा उत्पन्न होती है, यह घृणा बड़े-बड़े राज्यों को समाप्त कर देती है। घृणा से मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं।

 मैं अपनी पत्नी की अपेक्षा बड़ा हूँ या मैं अपने पति से ऊँची हूँ, यह सब मन मे न आने दीजिये। इससे अहंभाव उत्पन्न होता है, स्वेच्छाचारिता बढ़ जाती है और स्वार्थ की इस खीचातानी में दाम्पत्य जीवन की डोर टूट जाती है। दाम्पत्य जीवन में तो दोनों को सदा समानता का ही भाव मन और कर्म में रखना चाहिए।

 विवाह किया है, इसलिए हमारा दूसरे के ऊपर पूरा-पूरा हर प्रकार का अधिकार है। हम अपने साथी से सब प्रकार की आशा कर सकते है—ऐसा कभी भी न सोचें। मनुष्य आखिर मनुष्य ही है, देवता नही है। मनुष्य मे चाहे योग्यता और शक्ति कितनी ही बड़ी क्यों न हो, किन्तु दुर्बलता आखिर सब में है— इस बात का स्मरण रखिए। हो सकता है कि अपनी पत्नी से या पति से कोई दुर्बलता सूचक कार्य हो जाय, यदि ऐसा हो तो उदारतापूर्वक उसे क्षमा कर देने में ही दोनो की भलाई है।  सदा गम्भीर मत बने रहिए, इससे जीवन नीरस हो जाता है। दोनों मिल-जुलकर हँसी-खुशी के लिए भी समय रखिये, हँसना, बोलना, मनोरंजन करना भोजन से भी अधिक उपयोगी है। हँसमुख आदमी कभी अस्वस्थ नहीं रहता। हृष्ट-पुष्ट और स्वस्थ व्यक्ति ही प्रसन्नचित होते हैं मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि हँसने से शरीर का रक्त उष्ण होता है और नाड़ी की स्पन्दन क्रिया नियमित होती है। हँसने से शरीर में बल और साहस की वृद्धि होती है। हँसना जीवन की शक्ति को बढ़ाता है, प्रसन्नता और आनन्दी स्वभाव चेतना-शक्ति बढ़ाते हैं। मृदुल हास से स्वभाव, शरीर और आत्मा दृढ होते हैं। हास-परिहास, दाम्पत्य जीवन के लिए बहुत आवश्यक है, स्वास्थ्य और सुख का आधार है। हँसते हुए जीवन बिताना एक प्रकार से मानसिक और शारीरिक शक्ति बढ़ाने की चिकित्सा है। ९. पहले प्रियजन बाद में मैं पहले उसका सुख, इस बात को स्मरण रखते हुए अपने सुख को पीछे रखिये।पति पत्नी से और पत्नी पति से शिष्टाचार का पालन करें। अभ्यागत के प्रति भी ऐसा ही व्यवहार उचित है। अशिष्ट व्यवहार दाम्पत्य जीवन में भी सर्वधा निन्दनीय और त्याज्य है।


हमारे उत्सव तथा त्यौहार


वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना का उदय सुखद पारिवारिक जीवन के लिए उत्सव तथा त्यौहार बड़े उपयोगी है। इनके द्वारा अनेक लाभ है। (१) अच्छा मनोरंजन होता है। इसमे सामूहिक रूप से समस्त परिवार के व्यक्ति सम्मिलित हो सकते हैं। अभिनय, गान, कीर्तन, पठन-पाठन, स्वाध्याय इत्यादि साथ-साथ करने में सबमें भ्रातृभाव का संचार होता है। (२) समता का प्रचार त्यौहारों में हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति सामूहिक रूप से उन्हें सफल बनाने का उद्योग करता है। (३) पुराने सांसारिक एवं आध्यात्मिक गौरव की स्मृति पुनः हरी हो जाती है। यदि हम गहराई से विचार करें, तो हमे प्रतीत होगा कि प्रत्येक त्यौहार का कुछ गुप्त आध्यात्मिक अर्थ है। हिन्दू उत्सव एवं त्यौहारों ने समता, सहानुभूति तथा पारस्परिक संगठन की पवित्र भावना निहित है। इन गुणो का विकास होता है। (४) आध्यात्मिक उन्नति का अवसर हमे इन्हीं त्यौहारों द्वारा प्राप्त होता है। हमारे प्रत्येक उपवास, मौनवत समारोह का अभिप्राय सब परिवार में प्रेम, ईमानदारी, सत्यता, उदारता, दया, श्रद्धा, भक्ति और उत्साह के भाव उत्पन्न करना होता है। ये सब आत्मा के स्वाभाविक गुण है। यही मनुष्य की स्थायी शक्तियाँ है।


ये उत्सव तथा त्यौहार केवल रस्म अदायगी, बाह्य प्रदर्शन या झूठा दिखावा मात्र न बने, प्रत्युत पारिवारिक भावना, संगठन, एकता, समता और प्रेम की भावना के विकास में सहायक हो। पारिवारिक जीवन का विकास करने के लिए हमें कटुता और विषमता को भावना त्वागनी होगी, स्नेह सरिता प्रवाहित करनी होगी और सहानुभूति का सूर्य उदय करना होगा।


उत्सव तथा त्यौहारों में हम सबको एक ही स्थान पर एकत्रित होने का अवसर प्राप्त हो जाता है, हम मिल-जुल कर परस्पर विचार-विनिमय कर सकते हैं, एक ही विषय पर सोच-विचार कर अपनी समस्याओं का हल सोच सकते हैं। परस्पर साथ रहने से हम एक-दूसरे के गुण-दोषों की ओर भी संकेत कर सकते है। ये वे अवसर हैं जो पारिवारिक भेद-भाव भुला कर पुनः स्नेह, सहानुभूति में आबद्ध करते हैं। बड़े उत्साह से हमें इन्हें मनाना चाहिए।


मूर्खतापूर्ण आदतें-वे आदतें कौन सी हैं जिनसे परिवार का सर्वनाश होता है ? प्रथम तो स्वार्थमय दृष्टिकोण है, जिसकी संकुचित परिधि में केवल मुखिया ही रहता है। जो मुखिया अपने आप अच्छी से अच्छी चीजें खाता, सुन्दर वस्त्र पहिनता अपने आराम का ध्यान रखता है और परिवार के अन्य सदस्यों को दुःखी रखता है, वह दुर्मति अस्त है। इसी प्रकार अत्यधिक क्रोधी, कामी, अस्थिर चित्त, मारने-पीटने वाला, वेश्यागामी व्यक्ति परिवार के लिए अभिशाप है।


अनेक परिवार अभक्ष्य पदार्थ के उपयोग के कारण नष्ट हुए हैं। शराब ने अनेक परिवारों को नष्ट किया है। इसी प्रकार सिगरेट, पान, तम्बाकू, बीड़ी, गाँजा, भाँग, चरस, चाय इत्यादि वस्तुओं में सबसे अधिक धन स्वाहा होता आया है। इन चीजो से जब खर्चा बढ़ता जाता है तो उसकी पूर्ति जुआ, सट्टा, चोरी, रिश्वत, भ्रष्टाचार से की जाती है। जो व्यक्ति संयमी नहीं है, उससे उच्च आध्यात्मिक जीवन की कैसे आशा की जा सकती है ? नशे में मनुष्य अपव्यय करता है और परिवार तथा समाज के उत्तरदायित्व को पूर्ण नहीं कर पाता। विवेकहीन होने के कारण वह दूसरों का अपमान कर डालता है, व्यर्थ सताता है, मुकदमेबाजी चलाता है। समय और धन नष्ट हो जाता है। शराबी लोगों के गृह नष्ट हो जाते है। प्रतिष्ठा की हानि होती है बच्चों और पत्नी की दुर्दशा हो जाती है। जो लोग भाँग, अफीम इत्यादि का नशा करते हैं वे भी एक प्रकार के मद्यपी ही परिगणित किये जायेंगे।


माँस भक्षण भी एक ऐसा ही दुष्कर्म है, जिससे प्राणी मात्र को हानि होती है। इससे हिंसा, प्राणीवध, भाँति-भाँति के जटिल रोग उत्पन्न होते है पशु प्रकृति जायत होती है। अधिक मिठाइयाँ या चाट-पकौड़ी खाना भी उचित नहीं है।


कर्जा लेने की आदत अनेक परिवारों को नष्ट करती है। विवाह जन्मोत्सव, यात्रा, आमोद-प्रमोद में अधिक व्यय करने के आदी अविवेकी व्यक्ति अनाप-शनाप व्यय का लिया हुआ कर्ज कभी नहीं उतरता। सामान और घर तक बिक जाते हैं। आभूषण बेचने तक की नौबत आती है। इसी श्रेणी में मुकदमेबाजी आती है। यवाशक्ति आपस में मेल-मिलाप कर लेना ही उचित है। मुकदमे के चक्र में समय और धन दोनों की बरबादी होती है।


व्यभिचार सम्बन्धी आदतें समाज में पाप और छल की वृद्धि करती है। विवाहित जीवन में जब पुरुष अन्य स्त्रियों के सम्पर्क में आते हैं, तो समाज में पाप फैलता है। कुटुम्ब का प्रेम, समस्वरता, संगठन नष्ट हो जाता है। गृह-पत्नी से विश्वासघात होने से सम्पूर्ण घर का वातावरण दूषित और विषैला हो उठता है। शोक है कि इस पाप से हम सैकड़ों परिवारों को नष्ट होते देखते हैं और फिर भी ऐसी मूर्खतापूर्ण आदतें डाल लेते हैं। आज के समाज में प्रेयसी, सखी, क्रेन्ड के रूप में खुला आदान-प्रदान चलता है। इसके बड़े भयंकर दुष्परिणाम होते


बचे हुए समय का उपयोग कैसे


होना चाहिए ?


परिवार के स्त्री-पुरुष दोनों को कुछ-न-कुछ फालतू समय मिलता है। जिसका उपयोग आलस्य, हँसी-ठट्ठा या चुगली, गप-शप में किया जाता है। हमारे परिवारों मे समय का मूल्य नहीं समझा जाता है। पुरुष प्रायः आर्थिक समस्याओं में उलझे हुए गृह से बाहर रहते हैं। खियाँ भोजनोपरान्त या तो सो जाती है या घर में बैठ कर व्यर्थ की टीका-टिप्पणी, परछिद्रान्वेषण लड़ाई-झगड़ो, चौपड़ खेलने में समय नष्ट करती है।


आज का युग हमें पुकार-पुकार कर चेतावनी दे रहा है, 'उठो, तन्द्रा छोड़ो, जागो और अपनी उन्नति के लिए प्रत्येक क्षण का समुचित उपयोग करो। देखो प्रत्येक परमाणु आगे बढ़ रहा है, उन्नति करने के लिए उद्योग कर रहा है। व्यर्थ की सुस्ती, आलस्य या व्यर्थ की टीका-टिप्पणी में समय नष्ट करने का किसे अवकाश है ? यहाँ तो प्रत्येक पल उन्नति के लिए लगाना है। अब विश्व का कण-कण प्रगतिशील है, तो क्या आप व्यर्थ ही सोते रहेंगे ? क्या अपना समय हम व्यर्थ नष्ट कर देंगे ?


दैनिक कार्यक्रम: परिवार के स्त्री वर्ग का उत्तरदायित्व अधिक है। अब युग उन्नति करने का है। प्रत्येक पल का उचित उपयोग कर निरन्तर अवसर होने का है। प्रत्येक प्रगतिशील परिवार के स्त्री-पुरुष को चाहिए कि दिन-भर का कार्यक्रम दिन प्रारम्भ होने से पूर्व तैयार कर ले। यदि दिन प्रारम्भ हो जायेगा, तो इतना अवकाश प्राप्त न होगा कि यह सोचा जा सके कि आज कौन-कौन सा महत्त्वपूर्ण कार्य करना है चतुर विद्यार्थी, व्यापारी, अध्यापक, इंजीनियर, ठेकेदार रात्रि में दूसरे दिन के लिए कार्यक्रम तैयार करते हैं। खियों को भोजन बनाना नित्य कर्म, घर की सफाई और शिशु पालन का समय निकालकर कुछ फुरसत का अवकाश निकालना चाहिए।


अवकाश का सदुपयोग सर्वप्रथम प्रत्येक परिवार का यह कर्तव्य होना चाहिए कि घर की जितनी नारियाँ निरक्षर हो, उनको साक्षर बनाया जाय। बेपढ़ा-लिखा होना सबसे बड़ा अभिशाप है। यदि पति, भाई या घर का और कोई सदस्य शिक्षित हो, तो उसे घर में विद्यादान का कार्य करना चाहिए। आज के युग में विद्या प्राप्ति के साधन इतने सुलभ और सस्ते हैं, जितने किसी भी युग में न थे। पुस्तकें, मासिक-पत्र, स्टेशनरी, कागज इत्यादि अत्यन्त सस्ते में ही प्राप्त हो जाते हैं। समाचार-पत्रों की सुविधा थोड़े ही पैसों में हो जाती है। मासिक पत्रिकाएँ प्रत्येक स्थान पर सुलभतापूर्वक ली जा सकती है। पास-पड़ोस से माँग कर भी इनका उपयोग किया जा सकता है।


परिवार में आने वाले समाचार-पत्रों का, पत्रिकाओं का चुनाव बड़ी सतर्कता से होना चाहिए। आजकल सिनेमा से सम्बन्धित अश्लील, कुरुचिपूर्ण, कामोत्तेजक पुस्तकें और पत्रिकाएँ ढेर की ढेर मिलती हैं। इनके मायाजाल में कदापि न फँसिये स्त्रियों के लिए कोई भी सद्विचारपूर्ण शिक्षा प्रदान करने वाली, उत्तम मासिक पत्रिका चुनी जा सकती है। परिवार में एक छोटा-सा घरेलू, पुस्तकालय अवश्य होना चाहिए, जिसमें मानव जीवन को ऊंचा उठाने वाले सद्ग्रन्य रहे


जो परिवार अच्छी स्थिति में हैं, उनमें घर के लिए एक मास्टर की योजना रह सकती है, जो अशिक्षितों को अक्षर ज्ञान करा कर उच्च स्थिति में पदार्पण कर सके। परिवार स्वयं एक पाठशाला है, जिसमें प्रत्येक सदस्य को प्रेम और उत्तरदायित्व की शिक्षा प्राप्त होती है। फिर क्यों न शिक्षा का विधिवत् पालन किया जाए?


शिक्षा के जिस महान कार्य को आप पूर्ण करना चाहते हैं, उसे छोटे से प्रारम्भ कीजिए। एक छोटे से भाग को हाथ में लीजिए और उस भाग को पूरी सावधानी से दिलचस्पी और लगन से दृढ़तापूर्वक करने का प्रयत्न कीजिए। जब आप परिवार से शिक्षा की बात कहेंगे, तो वे सम्भव है इसे पहले न पसन्द करें, पर बाधाओं से मत घबराइये। इस पुण्य कार्य को मत त्यागिये वरन् जैसे भी बन पड़े थोड़ा-बहुत समय इस कार्य के निमित्त नित्य लगाते रहिये। नियमित रूप से कुछ पढ़ाने लिखाने, कविता पाठ कराने, खेल, कहानी, समाचार-पत्र पढ़ाने से साधारण योग्यता अवश्य प्राप्त क जा सकती है। पहले एक सदस्य को फिर उसकी सहायता से दूसरे-तीसरे और चौथे को शिक्षित कीजिए। जिस आदमी को एक बार अपनी योग्यता पर विश्वास हो गया, वह बड़े कठिन कामों में हाथ डालने लगता है और बड़े से बड़े कार्यों को सुगमता से सम्पन्न कर डालता है। 

विद्या ही आत्मा का भोजन है। फालतू समय का उपयोग सात्विक ज्ञान संचय, पुस्तक पढ़ने, अखबारों से संसार की घटनाओं के विषय में जानने, मासिकपत्रों के अध्ययन में व्यतीत होना चाहिए। पहले पुस्तकें, कहानियों, कविताएँ, उपन्यास इत्यादि पढ़ने की अभिरुचि उत्पन्न कीजिए। तत्पश्चात् क्रमश: कठिन और गम्भीर विषयों की ओर अग्रसर हुजिए अध्यात्म, मनोविज्ञान इत्यादि गम्भीर विषयों का अध्ययन करने से मानव जीवन के ज्ञान का सम्पूर्ण भाग प्राप्त किया जा सकता है।


ज्ञान प्राप्ति के अन्य साधन स्वाध्याय से ज्ञान बढ़ता है। जो व्यक्ति पुस्तके पढ़ता है, वह उच्चतम ज्ञान के साथ अटूट सम्बन्ध स्थापित करता है। सुशिक्षा, विद्या, विचारशीलता, समझदारी, सुविस्तृत जानकारी अध्ययन, चिन्तन, मनन, सत्संग तथा दूसरों के अनुभव द्वारा हम में से प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको सुसंस्कृत बना सकता है। मनुष्य स्वयं अनेक शक्तियों को लेकर भूतल पर अवतरित हुआ है। जन्म से प्रायः हम सब समान ही है। अन्तर केवल विकास का ही है। स्वाध्याय द्वारा ही हमारा विकास सम्भव है। स्कूल-कालिज में भी केवल स्वाध्याय करने के उचित साधन उपस्थित किए जाते हैं। स्वाध्याय अर्थात् स्वयं अपने परिवार और उद्योग से शिक्षित होकर संसार में महात्मा भवत, ज्ञानी, तपस्वी, त्यागी, गुणी, विद्वान, महापुरुष, नेता, देवदूत, पैगम्बर तथा अवतार हुए है। ज्ञान ने ही मनुष्य को तुच्छ पशु से ऊंचा उठाकर एक सुदृढ़ असीम शक्तिपुंज नाना देवी सम्पदाओं तथा कृत्रिम साधनों से सम्पन्न अधीश्वर बनाया है। जीवन का सुख इस विद्यायल पर ही बहुत हद तक निर्भर है। ज्ञान प्राप्ति के कुछ उपाय ये है-


१. विद्वानों के प्रवचनों को ध्यान से सुनना और


उनके अनुसार आचरण करना।


२. उत्तम ग्रन्थों का पठन-पाठन उन्हें स्मरण रखना, मस्तिष्क का एक भाग बनाना। ३. ज्ञान का विस्तारण दूसरे को देने से विद्याबल बढ़ता है।


४. स्वयं विचार करना। जगत, संसार, मानव


स्वभाव तथा आदतों पर विचार करना।


५. आत-निरीक्षण ६. उपदेश ग्रहण किसी के उपदेश की सत्यता की जाँच लोग उनके आचरण से ही करेगे। इसलिए यदि ज्ञानी पुरुष स्वयं कर्म न करेगा, तो वह सामान्य लोगों को आलसी बनाने का एक बहुत बड़ा कारण बन जायेगा।


शिक्षित स्त्रियों पति को आर्थिक सहायता देने के लिए छोटी-मोटी नौकरी भी सकती है। कर उनके लिये (१) अध्यापिका, (२) नर्स (३) डाक्टरनी (४) सम्पादिका, लेखिका (५) शिशु संस्थाओं की देखभाल, (६) उद्योग मन्दिरों में कार्य सिखलाने का काम उपयुक्त है। शिक्षा के क्षेत्र में खियो की नितान्त आवश्यकता है। कुमारी अध्यापिकाओं से विवाहित अध्यापिकाएँ तथा लेड़ी प्रोफेसर अधिक चतुर और अनुभवी समझी जाती है। बाल मन्दिरों में शिशुओं की देखभाल के लिए शिक्षित मनोविज्ञानवेत्ता स्त्रियों की बेहद जरूरत है। स्त्रियों के शफाखानों में, प्रसूति गृहों में लेडी डाक्टरों की तथा चतुर नर्सों की आवश्यकता है। सरकार के दफ्तरों, पोस्टऑफिसों तथा रेलवे में टिकट चेक करने के लिए स्त्रियों की आवश्यकता है। जो बहिने अपने चरित्र की दृढ़ता में विश्वास करती है और साधारण से ऊँची है, उन्हें विवेकपूर्ण ढंग से घर को आर्थिक सहायता प्रदान करनी चाहिये।


ऐसे भी अनेक उद्योग-धन्धे हैं, जिन्हें आप अपने पति की सहायता से घर में कर सकती है। देशी-विदेशी हर प्रकार के सुगन्धित तथा सादे तेल, इत्र, एसेन्स, वेसलीन, स्नो, क्रीम, हैजलीन, फलों के शर्बत इत्यादि की कुछ शिक्षा प्राप्त कर सकती हैं और छोटे पैमाने पर इन्हें तैयार कर सकती हैं। देशी बड़ी-बूटियों से भिन्न-भिन्न प्रकार के रंग बनाना, कपड़े रंगना, कपड़े सीने का काम, फूल-पत्ती काढ़ना भी चलाये जा सकते हैं। थोड़ी पूँजी से घर में प्रिंटिंग प्रेस चलाया जा सकता है, जिसमें खियाँ कम्पोजिंग, कटाई, छपाई, जिल्दसाजी, लिफाफे बनाना, लेटरपैड तैयार करने का कार्य कर सकती है।


यदि आपके पास थोड़ी-सी भूमि है तो दो पेशे और भी शुरू किये जा सकते हैं। (१) बागवानी-घर के लिए सब्जी उगाना, पुष्ष उत्पन्न करना, गमलों में कलम इत्यादि लगाना, छोटे फल उत्पन्न करना बड़ा लाभदायक मनोरंजन है। (२) दूध का व्यवसाय तीन-चार गाय-भैंस पालकर दूध, घी और मक्खन का काम चलाया जा सकता है। दूध, घी का कार्य तो त्रियों के हाथ में सफलता से दिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त अगरबत्ती बनाना दियासलाई बनाना इत्यादि के काम भी चलाये जा सकते हैं। दरवाजों तथा खिड़कियों पर लगाने का पेन्ट घर में बनाया जा सकता है। पंजाब में अनेक दुकानें पापड़ का ही व्यवसाय कर हजारों का लाभ उठाती है। पापड़ों के साथ वे कुरेरी, वड़ियो तथा अन्य इसी प्रकार की वस्तुएं घर पर तैयार कर सकती हैं। रंग का काम भी उनके हाथ की बात है। मोमबत्ती का व्यापार थोड़े पैसे से परों में प्रचलित किया जा सकता है। आतिशबाजी का सामान तैयार करने के लिए थोड़ी-सी सामग्री- शोरा, गन्धक, पोटाश, बारूद इत्यादि की आवश्यकता पड़ती है। इसके अतिरिक्त गड़े-से परिश्रम से डबल रोटी बनाना सीख सकती है। वाराई बुनना, निवाड़ तैयार करना, चर्खा कातकर सूत तैयार करना, गाले बुनना, टोकरियाँ तैयार करना चिके, दरियाँ इत्यादि तैयार करना- घरो में किए जाने वाले कुछ उद्योग धन्धे है। आजकल पाश्चात्य देशों की महिलाओं के


कार्य-कलाप देखकर दंग हो जाना पड़ता है। हम वहाँ की उच्छृंखलता को खतरनाक समझते हैं, किन्तु सदाचार और नैतिकता हमारे चरित्र के अंग हैं। हमें सतर्कता से उनके परिश्रम तथा सात्विक गुणों को अपनाना चाहिये। परिश्रम की दृष्टि से पाश्चात्य देशों की स्त्रियों को कई भागों में विभाजित किया जा सकता है– (१) शिक्षालयों की अध्यापिकाएँ २ - गृहपरिचारिका ३- अभिनेत्रियाँ ४- कार्यालयों की लेखिकाएँ ५–उच्च गृह की गृहस्वामिनियाँ ६ दाइयाँ और डाक्टरनियाँ इत्यादि । अभिनेत्री का जीवन निद्य और वासना-जन्य है। प्रत्येक दृष्टि से यह निकृष्ट एवं त्याज्य है। उसे छोड़कर अन्य पेशों के लिए चुनाव किया जा सकता है।


फालतू समय का एक उपयोग मनोरंजन है। सम्पूर्ण दिन कार्य करते-करते महिलाओं का दिल और दिमाग शिथिल हो जाता है। वे घर के कारावास में बन्द रहती हैं। छुट्टी के दिन उन्हें उद्यानों की सैर करनी चाहिए, सहेलियों के यहाँ मिलने जाना चाहिए, सरिताओं के तट पर तथा पर्वत प्रदेशों की यात्राएँ करनी चाहिए। तैरना खेलना भी है और व्यायाम भी फोटोग्राफी, लकड़ी का काम, लेख लिखना, कविता करना या अन्य कोई शौक का कार्य किया जा सकता है। अपने बच्चों को पढ़ाने का कार्य बहुत श्रेयस्कर है। राष्ट्रीय कार्यों में अनेक विजयलक्ष्मियों की आवश्यकता है। यदि प्रयत्न करें तो भारत में रचनात्मक योजनाओं के लिए अनेक राष्ट्रीय विचारों वाली विदुषी नारियाँ तैयार की जा सकती है। भारत में अभी देवमाता अदिति, लोपामुद्रा, मैत्रेयी, गार्गी, जैसी महामान्या नारियों को भुलाया नहीं जा सकता। फालतू समय में शास्त्रों का अध्ययन कर भारतीय ललनाएँ वक्ता लेखिकाएँ, कवयित्री विदुषी, ब्रह्मवादिनी बन सकती हैं।


शान्तिमय गृहस्थ जीवन


आपका परिवार का एक छोटा-सा स्वर्ग है, जिसका निर्माण आपके हाथ में है। परिवार एक ऐसी लीला भूमि है जिसमें पारिवारिक प्रेम, सहानुभूति सम्वेदना, मधुरता अपना गुप्त विकास करते हैं। यह एक ऐसी साधना भूमि है, जिसमें मनुष्य को निज कर्त्तव्यों तथा अधिकारों, उत्तरदायित्वों एवं आनन्द का ज्ञान होता है। मनुष्य को इस भूतल पर जो सच्चा और अकृत्रिम सौख्य और दुःख से मुक्त सुख प्राप्त हो सकता है वह कुटुम्ब का ही सुख है।


कुटुम्ब की देवी स्त्री है। चाहे वे माता भगिनी या पुत्री किसी भी रूप में क्यों न हो उन्हीं के स्नेह से, हृदय की करुणा, रस स्निग्ध वाणी और सौन्दर्यशील प्रेम से परिवार सुखी बनता है। वह स्त्री जिसका हृदय दया प्रेम से उछलता है परिवार का सबसे बड़ा सौभाग्य है। उसकी वाणी में सुधा की सी शीतलता और सेवा में जीवनप्रदायिनी शक्ति है। उसके प्रेम की परिधि का निरन्तर विकास होता है। वह ऐसी शक्ति है, जिसका कभी क्षय नहीं होता और जिसका उत्साह एवं प्रेरणा, परिवार में नित्य नवीन छटाएँ पूर्णता में नवीनता उत्पन्न कर मन को मोद, बुद्धि को प्रबोध और हृदय को संतोष प्रदान करती है।


हिन्दू परिवार में पुत्र क्षणिक आवेश में आकर स्वच्छन्द विहार के लिये परिवार का तिरस्कार नहीं करता वरन् परिवार के उत्तरदायित्व को और भी दृढ़ता से वहन करता है। हिन्दू जीवन में पति उत्तरदायित्वों से भरा हुआ प्राणी है। अनेक विघ्नों के होते हुए भी उसका विवाहित जीवन मधुर होता है। यहाँ संयम, निष्ठा, आदर प्रतिष्ठा तथा जीवन-शक्ति को रोक रखने का सर्वत्र विधान रखा गया है। यदि यह संयम न हो तो विवाहित जीवन गरल-मय हो सकता है। हिन्दू नारी को भोग-विलास की सामग्री नहीं, नियन्त्रण प्रेरणा, साधना, विघ्नबाधाओं के साथ देने वाली जीवन संगिनी के रूप में देखता है।


इन देवी गुणों की वृद्धि कीजिए- पारिवारिक जीवन को मधुर बनाने वाला प्रमुख गुण निःस्वार्थ प्रेम है। यदि प्रेम की पवित्र रज्जु से परिवार के समस्त अवयव सुसंगठित रहें, एक दूसरे की मंगल कामना करते रहें, एक-दूसरे को परस्पर सहयोग प्रदान करते रहे, तो सम्पूर्ण सम्मिलित कुटुम्ब सुघड़ता से चलता रहेगा। परिवार एक पाठशाला है, एक शिक्षा संस्था है, जहाँ हम प्रेम का पाठ पढ़ते हैं।


अपने पारिवारिक सुख की वृद्धि के लिये यह स्वर्णसूत्र स्मरण रखिये कि आप अपने स्वार्थों को पूरे परिवार के हित के लिये अर्पित करने को प्रस्तुत रहें। हम अपने सुख की इतनी परवाह न करें, जितनी दूसरों की हमारे व्यवहार में सर्वत्र शिष्टता रहे। यहाँ तक कि परिवार के साधारण सदस्यों के प्रति भी हमारे व्यवहार शिष्ट रहें छोटों की प्रतिष्ठा करने वाले उनका आत्म-सम्मान बढ़ाने वाले, उन्हें परिवार में अच्छा स्थान देकर समाज में प्रविष्ट कराने वाले भी हमी हैं।


छोटे-बड़े भाई-बहिन घर के नौकर, पशु-पक्षी सभी से आप उदार रहें। प्रेम से अपना हृदय परिपूर्ण रखे। सबके प्रति स्नेहसिक्त, प्रसन्न रहें आपको प्रसन्न देखकर . घर भर प्रसन्नता से फूल उठेगा, प्रफुल्लता वह गुण है जो थके-हारे सदस्यों तक में नवोत्साह भर देता है।


आप अपने परिवार में खूब हँसिये खेलिये, क्रीड़ा कीजिये। परिवार में ऐसे रम जाइए कि आपको बाहरीपन मालूम न हो आत्मा तृप्त हो उठे। चुन-चुन कर अपने परिवार में मनोरंजन के भी नवीन ढंग अपनायें। लेकिन इन सब के मूल में जो वृत्ति है वह हँसी-विनोद और


विश्राम की है।


http://literature.awgp.org/book/gruhasth_ek_tapovan/v5.24

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