मंगलवार, 11 जुलाई 2023

हम साथ साथ हैं 1

 प्रत्येक जीव के जीवन में यौवन के उभार के समय एक ऐसा अवसर आता है, जब वह धीरे-धीरे इस बात का अनुभव करने लगता है कि उसके पास कुछ वस्तुओं, गुणों, स्वाभाविक विशेषताओं की कमी है। पुरुष में यौवन उभार आने पर जहाँ उसका पुरुषत्व विकसित होता है, वहाँ उसके अन्तर्मन में कामावेग भी उत्पन्न होता है। वह किसी पर अधिकार करने के लिये प्रेमोपासना करने लगता है, पुरुष स्त्री की ओर सहज भाव से रस लेने लगता है उसमें उसे कुछ अजीब आकर्षण प्रतीत होने लगता है उसके हाव-भाव उसे आकर्षक लगते हैं। इसी प्रकार नारी जीवन में भी प्रणय की गुप्त इच्छाएँ धीरे-धीरे विकसित होने लगती हैं। अपनी कोमलता,  लज्जा इत्यादि के कारण वह मनोभावों के आत्म समर्पण के लिये उन्मुख होती है। वह अपने भेद गुप्त रखने में कुशल होती है किन्तु उसका सहज ज्ञान क्रमश प्रकट होने लगता है। नर-नारी की ये स्वभावगत विशेषताएँ हैं, जो समाज का निर्माण करती हैं  

पृथक् स्त्री-पुरुष अधूरे और अपूर्ण हैं। यदि स्त्री-पुरुष पृथक रहेंगे, तो वे समाज के लिये अनुपयोगी, अपरिक्व, अविकसित रहेंगे स्त्री और पुरुष दोनों के मिलने से नर-नारी की स्वाभाविक अपूर्णता दूर होती है। एक-दूसरे की कमी जीवन सहचर प्राप्त करने से हो पाती है जैसे धनात्मक और ऋणात्मक तत्वों के मिलने से विश्व बनता है, वैसे ही स्त्री तथा पुरुष के मिलने से 'मनुष्य' बनता है यहीं पूरा मनुष्य समाज के उत्तरदायित्वों को पूर्ण करता है।


विवाह की उपयोगिता

आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार काम इच्छाओं का दमन मानसिक बीमारियाँ उत्पन्न करता है इसी से अनेक बार मानसिक नपुंसकता उत्पन्न होती है। मनुष्य के अन्तस्थल में अनेक वासनाएँ दब कर अन्त प्रदेश में छिप जाती हैं। इनसे समय-समय पर अनेक बेढंगे व्यवहार गाली देने की प्रवृत्ति, कुशब्दों का उच्चारण, आत्महीनता की भावना ग्रन्थि की उत्पत्ति, स्मरण-विस्मरण, पागलपन तथा प्रलाप, हिस्टीरिया इत्यादि अनेक मानसिक व्याधियों उत्पन्न होती हैं। मानसिक व्यापारों में एक विचित्र प्रकार का संघर्ष चला करता है। मन की अनेक भावनाएं विकसित नहीं हो पाती, मनुष्य शिकायत करने की मनोवृत्ति का शिकार बना रहता है दूसरे के प्रति वह अनुदार रहता है, उसकी कटु आलोचना किया करता है। अधिक उम्र या असन्तोषी, नाराज प्रकृति, तेज स्वभाव का कारण वासनाओं का समुचित विकास एवं परिष्कार न होना ही है। इस प्रकार का जीवन गीता में निद्य माना गया है।


प्रत्येक स्त्री-पुरुष के जीवन में एक समय ऐसा आता है, जब उसे अपने जीवन साथी की तलाश करनी होती है। आयु, विचार, भावना स्थिति के अनुसार सद्ग्रहस्थ के लिये उचित जीवन साथी की तलाश होनी चाहिये उचित शिक्षा एवं आध्यात्मिक विकास के पश्चात् किया हुआ विवाह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ठीक है। आजन्म कौमार्य या ब्रह्मचर्य महान है। उनका फल अमित है किन्तु साधारण स्त्री-पुरुषों के लिये यह सम्भव नहीं है। इससे मन की अनेक कोमल भावनाओं का उचित विकास एवं परिष्कार नहीं हो पाता। वासना को उच्च स्तर एवं उन्नत भूमिका में ले जाने के लिये एक-एक सीढ़ी चढ़ कर चलना होता है। एक सीढ़ी को लाँघ कर दूसरी पर कूद जाना कुछ इच्छाओं का दमन अवश्य करेगा, जिसके फलस्वरूप मानसिक व्याधि हो सकती है अत प्रत्येक सीढ़ी पर पाँव रख कर उन्नत जीवन पर पहुंचना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिये।


एक पिता तथा माता के हृदय में जो नाना प्रकार के स्वर झंकृत होते है, उन्हे भुक्त भोगी ही जान सकते है। दो हृदयों के पारस्परिक मिलन से जो मानसिक विकास सम्भव है, वह पुस्तको के शुष्क अध्ययन से नहीं प्राप्त किया जा सकता। विवाह कामवासना की तृप्ति का साधन मात्र है, ऐसा समझना भयंकर भूल है। वह तो दो आत्माओं के दो मस्तको के दो हृदयो के और साथ ही साथ दो शरीरों के विकास तथा एक दूसरे में लय होने का मार्ग है। विवाह का मर्म दो आत्माओं का स्वरैक्य है, हृदयों का अनुष्ठान है, प्रेम, सहानुभूति कोमलता, पवित्र भावनाओं का विकास है। यदि हम चाहते हैं कि पुरुष प्रकृति तथा स्त्री-प्रकृति का पूरा-पूरा विकास हो, हमारा व्यक्तित्व पूर्ण रूप से खिल सके तो हमें अनुकूल विचार, बुद्धि, शिक्षा एवं धर्म वाली सहधर्मिणी चुननी चाहिये। उचित वय में विवाहित व्यक्ति आगे चलकर प्रायः सुशील, आज्ञाकारी प्रसन्नचित सरल, मिलनसार, साफ-सुथरे, शान्तचित्त वचन के पक्के, सहानुभूतिपूर्ण मधुर भाषी, आत्म विश्वासी और दीर्घजीवी पाये जाते हैं। कुँवारा प्रायः अतृप्त वासना, स्वप्नदोष लड़कपन, संकोची और संकुचित दृष्टिकोण वाला रहता है. वह जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता, सामाजिक कार्यों में दिलचस्पी नहीं रखता, दूसरों के दुर्गुणों तथा न्यूनताओं में आनन्द लेता है। संघर्ष से दूर भागता है, वह विरोधी, वाचाल तथा ईर्ष्या से युक्त होता है, क्रोध, घृणा, भय, वासना और लज्जा से उसकी शान्ति सदैव भंग रहती है। आजन्म कौमार्य देश, धर्म और समाज के लिये हितकर नहीं है।


गृहस्थ धर्म एक योग-साधना


गृहस्थ धर्म एक योग-साधन है, कि मनुष्य पर पग-पग पर उत्तरदायित्व एवं कर्तव्यों का भार है। यह आश्रम हमें आगे आने वाले कष्टसाध्य जीवन की एक तैयारी कराता है। यदि इसमें रह कर हम इन्द्रिय सुखों की निरसारता, क्षणभंगुरता एवं नीरसता को न जानें और सीधे वानप्रस्थ या संन्यास आश्रम ग्रहण कर ले, तो हमारी बड़ी साधना में वासनाओं और क्षुद्र इच्छाओं का ताण्डव चलता ही रहेगा।


गृहस्थाश्रम अन्य तीनों आश्रमों की पुष्टि के लिए है। दूसरे शब्दो में यों कहा जाता है कि ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ, संन्यास यह तीनों ही आश्रम गृहस्थाश्रम को व्यवस्थित और सुख-शान्तिमय बनाने के लिए हैं। ब्रह्मचारी इसलिए ब्रह्मचर्य का पालन करता है कि उसका भावी गृहस्थ जीवन शक्तिपूर्ण और समृद्ध हो वानप्रस्थ और संन्यासी लोग लोकहित की साधना करते हैं। इहलोक और संसार का सुख प्रकट करने वाला गृहस्थ धर्म ही है। यदि गृहस्थाश्रम की व्यवस्था बिगड़ जाय तो अन्य तीनों आश्रम ठीक रीति से नहीं चल सकेगे।


गृहस्थाश्रम से 'अहं' का विस्तार होता है। आत्म-भाव की सीमा बढ़कर उसमे परिवार के अन्य सदस्य भी आते है। छोटे-छोटे शिशुओं की सेवा सुश्रूषा में निःस्वार्थ भाव से संलग्न होना पड़ता है।स्त्री, पुत्र, सगे-सम्बन्धी परिवार, पड़ोसी, घर के पशु-पक्षी आदि में आत्मीयता बढ़ जाती है। क्रमश उन्नति की और हम चलते हैं। अन्त में मनुष्य पूर्ण अथवा आत्म-संयमी हो जाता है। दूसरों के लिए अपने को भूल जाता है। खुदी मिटती जाती है और खुदा मिलता जाता है। गृहस्थ-योग को साधना जब अपनी विकसित अवस्था पर पहुँचती है तो आत्मा-परमात्मा में लीन हो जाती है।

गृहस्थ हमें तुच्छता और संकीर्णता से महानता और उदारता की ओर ले जाता है, स्वार्थ का परिशोधन कर परमार्थी बना देता है। यदि हम गृहस्थ धर्म के सब उत्तरदायित्वों को पूर्ण करते रहें, स्वार्थ हटाकर परमार्थ की साधना करते रहें, तो ब्रह्म-निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं।आत्मीयता की उन्नति का अभ्यास करने के लिए सबसे उत्तम स्थान अपना घर है। आत्मीयता के साधन में अपना दृष्टिकोण देने और सेवा करने का बनाना पड़ता है। प्रेम की उदार भावनाओं से अपने अन्त करण को परिपूर्ण कर सगे-सम्बन्धियों के लिए त्याग करना पड़ता है। इस आत्मीयता के प्रसार से घर स्वर्ग बन जाता है।


गृहस्थ का सोपान पार करने के पश्चात् जीवन यात्रा का एक नया चरण प्रारम्भ होता है। मनुष्य को प्रतीत होने लगता है कि सांसारिक सुखो के आगे भी कोई चीज है। काम, क्रोध, लोभ, मोह से भरे हुए जीवन से उसे परितोष नहीं हो पाता। वह धीरे-धीरे आत्मा के सुखमय प्रदेश में प्रवेश करता है। आत्मा का प्रदेश वह मंगलमय संसार है जहाँ इन्द्रियों की लोलुपता आकर्षण और प्रलोभन नहीं है।


गृहस्थाश्रम की श्रेष्ठता महान है


भारतवर्ष मे विवाह-बन्धन अत्यन्त पवित्र धार्मिक कृत्य माना गया है। इसमें अनेक उद्देश्यो की प्रतीति और महान् उत्तरदायित्वों की पूर्ति के साधन समाविष्ट है। भारत के प्राचीन मुनियों ने इसमें मानव प्रकृति की उद्दाम प्रवृत्तियों को संयमित करने, प्रकृति द्वारा आयोजित प्रजनन तथा सृष्टि विस्तार, सामाजिक सुव्यवस्था सुदृढ नागरिक निर्माण और अन्त में निवृत्ति की चरम सीमा पर पहुँचने की व्यवस्था की है।


धर्म-शास्त्र का प्रवचन है- "तथातथैव कार्याणि न कालस्तु विधीयते।


अभिनव प्रयुज्जानो इस्मिन्नेव प्रलीयते ॥"


इस संसार के साथ हमारा संयोग है, इसी संसार में हमारा लय हो जायगा, तब हमे जिस समय जो कर्तव्य हो, वही करना अनिवार्य है। व्यक्तिगत सुविधा तथा असुविधा को लेकर कर्तव्य के पुण्य पथ से परिभ्रष्ट होना उचित नहीं इसीलिए धर्म ने गृहस्थाश्रम को तपोभूमि कह कर उसकी महत्ता स्वीकार की है। यहाँ तक कि धर्म की दृष्टि में गृहस्थाश्रम ही चारों आश्रमो का मुख्य केन्द्र है। इस सम्बन्ध मे योगिवर वशिष्ठ का निर्देश देखिए-


"गृहस्थ एवं यजते गृहस्थस्तप्यते तपः। चतुर्णामाश्रमाणान्तु गृहस्थस्तु विशिष्यते ॥"

अर्थात् गृहस्थ ही वास्तविक रूप से यज्ञ करते है। गृहस्थ हो वास्तविक तपस्वी है— इसलिए चारी आश्रमों में गृहस्थाश्रम ही सबका सिरमौर है।


भारतीय धर्म के अनुसार गृहस्थाश्रम प्रकृत तपोभूमि है। इस काल में दो पवित्र आत्माओं का परस्पर सामंजस्य होता है तथा वे जीवन के युद्ध में प्रविष्ट होते है। उन्हें पग-पग पर उत्तरदायित्व कठिनाइयों सांसारिक संघर्ष, प्रतियोगिताओं में भाग लेना होता है। दोनों आत्माएँ। परस्पर सम्मिलित होकर एक दूसरे की सहायता करते


हुए तपस्या और साधना के मार्ग पर अग्रसर होती है। प्रकृति के प्रजनन क्रिया की सिद्धि के निमित्त जिस उद्दाम वासना को मानव हृदय में प्रतिष्ठित किया है, उसको उच्छृंखलता यौवन में आकर इतनी तीव्र हो उठती है कि सामाजिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से उसका सम आवश्यक है। भारतीय धर्म ने उस उद्दाम प्रवृत्ति को स्वीकार किया है तथा विश्व को संस्थिति और सम्पूर्णता के लिए मनुष्य के विकास के लिए उसे जरूरी माना है। अतएव प्रत्येक नागरिक को इस महायज्ञ में प्रवृत्त होने का आदेश प्रदान किया है।


गृहस्थाश्रम विषय भोग को सामग्री नहीं है, विलास मन्दिर नहीं वरन् दो आत्माओं के पारस्परिक सहवास द्वारा शुद्ध आत्म-सुख, प्रेम और पुण्य का पवित्र प्रसाद है. वात्सल्य और त्याग की लीलाभूमि है, निर्वाण प्राप्ति के लिए शान्ति-कुटीर है। विवाह से मनुष्य समाज का एक अंग बनता है अपूर्णता से पूर्णता प्राप्त करता है, निर्बलता से सबलता की ओर अग्रसर होता है उसे नये सम्बन्ध प्राप्त होते हैं नये उत्तरदायित्व और नये आनन्द प्राप्त होते है। भारतीय ऋषियों ने गृहस्थाश्रम को अनेक व्रत नियम अनुष्ठान आतिथ्य सत्कार इत्यादि पुण्य कर्तव्यो की लीलाभूमि बनाकर उसकी महिमा को द्विगुणित किया है। उन्होंने पारिवारिक व्यवस्था में प्रेम और वात्सल्य तथा दूसरी ओर अपने से छोटों के लिए उन्हीं के हित में त्याग तथा तपस्या के द्वारा इसे तपोभूमि के समान पवित्र बना दिया है।


स्वामी अभेदानन्द लिखते है— इस तपोभूमि के पुण्य स्वरूप और पुण्य साधना का मधुर रहस्य जानने के लिए हम हिमालय की उस तुषार मण्डित शिला पर चले जहाँ हिमालय की किशोरी पार्वती तपश्चर्या में निमग्न है। यहाँ भारतीय गृहस्थाश्रम के मंगलमय स्वरूप का प्रथम दर्शन है। गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होने से पूर्व रमणी को तपोमयी साधना में प्रवृत्त होना पड़ता, क्योंकि जिस मंगलमय उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह अपने पवित्र सुन्दर जीवन को उत्सर्ग करती है, उसके लिए तपस्या और त्याग की परम आवश्यकता है। कुमार की उत्पत्ति तपस्या की सिद्धि का मधुर फल है, क्योंकि विश्व के परित्राण के लिये देश के मंगल के लिये समाज के "अभ्युदय के लिये और मनुष्यता की मर्यादा को अक्षुण्ण रखने के लिये ही कुमार के अवतार की आवश्यकता है। पुत्र या कन्या का जन्म भी धार्मिक महत्व रखता है। उसमें रमणी की उत्कृष्ट सिद्धि भी सम्मिलित है।"


भारतीय वैवाहिक जीवन मंगलमय है। उसका प्रत्येक व्रत, नियम, अनुष्ठान, पूजन-चिन्तन इत्यादि विशेष महत्त्व रखता है। सतीत्व तथा एकपलीवत की पवित्रता से समुज्ज्वल मातृत्व के मृदुल वात्सल्य से विभूषित, उत्तरदायित्वों के मनोरम भार से परिपूर्ण प्रेम के प्रवाह से पूर्ण भारतीय विवाहित जीवन त्याग का तेजोमय तीर्थ और पुण्य एवं कर्म की भूमि है। इसी के द्वारा लियों में स्त्रीत्व तथा पुरुषो मे पुरुषत्व का विकास होता है। नर-नारी के मंगलमय थिर सम्मिलिन के समय भारतीय समाज उन दोनों को प्रणय सूत्र में आवद्ध करने के साथ ही साथ इस जन्म तथा मृत्यु के पश्चात् परलोक में भी परस्पर सहायता सहानुभूति एवं स्नेहमय व्यापार के प्रतिज्ञासूत्र में आवद्ध करता है।


हमारा हिन्दू धर्म जिस मंगलमयी साधना को लेकर सदा व्यस्त रहता है, वह है "प्रवृत्ति को निवृत्ति के पथ पर परचालित करना" हमारे यहाँ वासना को प्रवृत्ति को माना है, किन्तु साथ ही साथ इस प्रवृत्ति के परिष्कार, उन्नतिकरण और अन्तत निवृत्ति में परिणत करना यह फल माना है। वैवाहिक जीवन हमारे जीवन की एक स्टेज है. जो भावी जीवन के निर्माण में सहायक है। हम सदा से यह मानते आये हैं कि असंस्कृत और उच्छृंखल प्रवृत्ति, साधना और तपस्या के द्वारा परम शान्त और त्यागमयी बनाई जा सकती है। विनाश की अपेक्षा वृत्तियो का सही मार्गों में बहाव, स्वार्थ और लालसा से निकल कर प्रेम और त्याग के मार्गों में उनका प्रवाह हमारे लिये विशेष महत्व रखता है।


आदि कवि से लेकर पण्डितराज जगन्नाथ तक ने अपने साहित्य में गृहस्थाश्रम का मनमोहक रूप प्रतिष्ठित किया है। कौन ऐसा प्रान्त है जिसमें मातृत्व को मंगलमय मूर्ति सतीत्व का त्याग सौन्दर्य और वात्सल्य की मन्दाकिनी प्रवाहित न हुई हो ?


गृहस्थ में प्रविष्ट न होने वाला व्यक्ति अनेक प्रकार से मानसिक रोगों का शिकार बनता है। आयु कम रहती है. मानसिक भावनाएँ विकसित नहीं हो पाती, संसार के महत्वपूर्ण कार्यों में जी नहीं लगता, मन पुनः पुनः सुन्दर स्त्रियों के मानचित्र बनाता और स्वप्नदोष उत्पन्न करता है अविवाहित पुरुष की उत्पादन शक्ति क्षीण होती है। विवाह से उसे नया चाव, उत्साह, स्फूर्ति और प्रेरणा प्राप्त होती है। इसी प्रकार अविवाहित स्त्री कुदन, अनिद्रा, प्रमाद, चिन्ता, हिस्टीरिया प्रजनन को गुप्त भावना, अतृप्ति, स्वार्थी और क्रोधी हो जाती है। विवाहित स्त्री का सौन्दर्य बढ़ता है। शरीर के सब अंगो का नवीन ढंग से विकास होता है। मृदुल भावनाओं- दया, प्रेम, सहानुभूति, वात्सल्य, करुणा की अभिवृद्धि होती है।


विवाह से पूर्णता की प्राप्ति

 पृथक् पृथक् स्त्री और पुरुष अपूर्ण है। उनके गुण तथा स्वभाव भी अपने अन्दर एक प्रकार की कमी, हीनता और किसी अदृश्य वस्तु की कामना करते है। जो गुण एक में नहीं है, दूसरों में उनकी मौजूदगी आकर्षण का विषय बनती है। स्त्री-पुरुष दोनों के स्वभावों का विश्लेषण करना हो, तो निम्न प्रकार से हो सकता है


स्त्रियों में लज्जाशीलता, चारुता, सहजज्ञान, पातिव्रत्य कोमलता, सूक्ष्मता भावुकता होती है। वे मानसिक संवेगी को तीव्रता से अनुभव करती हैं। वे स्नेह सरोवर की मीन है। उन्हें रूप लावण्य की अनुपम राशि प्रदान की गई है। शान्तिप्रियता, सहनशीलता और धैर्य भी बहुत होता है। ये बातें बहुत कम करती है, पर सुनती बहुत अधिक हैं।


पुरुष पाशविक वृत्तियों, शक्ति क्रोध, कार्य- दक्षता तथा अहंवादी है। क्रियाशीलता और प्रभुता प्रदर्शन उसके प्रमुख गुण है। पुरुष का मस्तिष्क पाशविक वृत्तियों के क्षेत्र में अत्यधिक बलवान है। प्रेम, क्रोध और प्रतिशोध के समय कुछ काल के निमित्त उद्भ्रान्त-सा हो जाता है। प्रेम में शीघ्रता करता है। वह स्वभावतः मजबूत, निर्णायक, प्रामाणिक, स्वाभिमानी, प्रचण्ड, उप, दांता, उदार, कठिन परिश्रमी, बेलगाम, निग्रहहीन और युद्ध करने वाला है। उसका मन अस्थिर, चंचल-बेकाबू और एक विस्फोटक समान है।


दोनों में स्वतन्त्र यौन प्रभेद मिलते है। नर प्रेम करने में उन्मत्त, शीघ्र आवेगपूर्ण काम-स्थिति में प्रचण्ड है। वह प्रेम से पूर्व स्त्री को हर प्रकार से अनुगत करने में सवेष्ट रहते हैं। तत्पश्चात् प्रेमाराधना में लापरवाह से हो जाते हैं। पुरुष के प्रेम में प्रचण्डता है, किन्तु वह शीघ्र ही ठण्डा हो जाने वाला ज्वालामुखी है। पुरुष के लिए प्रेम एक प्रकार का खेल है। इसके विपरीत स्त्री का सम्पूर्ण जीवन ही प्रेम से निर्मित हुआ है। वह प्रेम से ही जीती है और उसी से अपना भविष्य बनाती है। उसके आन्तरिक भावो का विकास प्रेम से ही होता है। किसी कवि ने सत्य ही कहा है- प्रेम स्त्री का सम्पूर्ण अस्तित्व है  

स्त्री का प्रेम शान्त पर सतत् प्रवाहित होने वाली सरिता की तरह गम्भीर है। वह इन्द्रियों से प्रारम्भ होकर आत्मिक ज्ञान की ओर अभिवृद्धि को प्राप्त होने वाला है। स्त्री एक बार प्रेम-दान देकर पुरुष को अपना सर्वस्व दान देती है। उसमें भक्तिभाव, पातिव्रत्य और आत्मिकशन अपेक्षाकृत अधिक है। स्टीफन विंग ने सत्य ही निर्देश किया है— पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में मन क्षेत्र अधिक स्थूल और प्रसारित है, परन्तु उनमें वह उतने प्रधान भाव से व्यक्त नहीं होता। पुरुषों में कामवासना की स्वाभाविक प्रवृत्ति, शक्ति का एक अशान्त स्रोत है। वह उछल-उछल कर सब प्रकार की नालियों में बह जाता है।"


स्त्री प्रेम से शासन करना चाहती है। उसका प्रेम विकेन्द्रित होता है, जिसमे उसके बच्चे, पति, भाई-बहिन इत्यादि सम्मिलित है। मातृत्व का भार उठाने पर उसका वात्सल्य विकसित होता है, करुणा, सहानुभूति, दया, प्रेम, की नाना धाराओं में बहने लगता है। वह अपने बच्चे पर तो प्रेम न्यौछावर करती ही है, सभी बच्चों, पशु-पक्षियों तक को भावुक दृष्टि से निहारती है। स्त्री की भावनाएँ तीव्र होती है। संवेग तथा भावना का उसके हृदय में राज्य है। सोच में डूबे रहना, प्रतीक्षा करना और सहजज्ञान ये स्त्री के सनातन गुण हैं। वे अपने सहजज्ञान से पुरुष की साधारण और मुख्य आवश्यकताओं को पहले से ही भांप लेती है और उसका प्रबन्ध करती हैं। दूसरों के मनोभावों को भाँपने तथा भविष्य में आने वाली विपत्तियों का अनुमान लगाने के लिए उन्हें विशेष गुप्त मनोवैज्ञानिक शक्तियाँ प्रदान की गई है।


 अधिकांश स्त्रियाँ एक तीखी और गहरी दृष्टि से जान लेती हैं कि यह व्यक्ति कैसा है ? धोखेबाज, बदमाश या सज्जन, नैतिक, बुद्धिमान मूर्ख स्त्रियाँ दुराचारियो के वश मे आ सकती है किन्तु बुद्धिमती स्त्री बड़ी चतुर होती है। वह उसके चेहरे से अन्दर के मनोभाव पढ़ सकती है। यदि आप अपना दुःख-दर्द स्त्रियों के सामने वर्णन करे तो दे सहानुभूति प्रदर्शित करेंगी। वे पुरुषों की अपेक्षा अधिक भावुक हैं, अधिक प्रकार से मानसिक भावो का प्रकाश और अनुभव करती है। धार्मिक विचार में वे पुराने संस्कारों से चिपकी रह जाने वाली है। स्त्री पुरुष की अपेक्षा अधिक व्यवहारकुशल है, अपने व्यवहार में अधिक उदार होती है। पुरुष के प्रेम पर सदा विचार किया करती हैं और उसके प्रशंसायुक्त प्रेम भरे वाक्य सुनने के लिये सदैव लालायित रहा करती है। संक्षेप में पुरुष की अपेक्षा वह अधिक सहनशील, शान्त, प्रतिभासम्पन्न उदार एवं सहजज्ञान युक्त होती हैं।


विवाह में स्त्री-पुरुष के उल्टे गुण एक दूसरे से मिलकर पूर्णता की सृष्टि करते हैं। दोनों का संयोग समाज का एक 'यूनिट' बनाता है। यही यूनिट सम्मिलित रूप में समाज को आगे बढ़ाता है। न तो पुरुष स्त्री के बराबर है, न स्त्री पुरुषों के गुणों का अनुकरण कर अपने अन्दर उन्हें उत्पन्न कर सकती है। सृष्टिकर्ता की रचना ऐसी है कि दो विभिन्न गुण वाले प्राणी भाईचारे और पारस्परिक साझेदारी से एक दूसरे के स्वभाव और प्रकृति को समझकर सम्मिलित रूप से आगे बढ़ते हैं। स्त्री तथा पुरुष के गुण-दोष एवं प्रकृति एक स्थान पर मिलने से 'मनुष्य' बनता है। यदि ये दोनों लिंगों के प्राणी एक दूसरे से पृथक् रहेंगे या लैगिक प्रतियोगिताओं में उलझे रहेंगे, तो गृहस्थों में पारस्परिक कलह की वृद्धि रहेगी, समाज की समस्वरता नष्ट हो जायगी।


 गृहस्थी एक साझे की दुकान है। इस दुकान के प्रधान साझेदार दो है—स्त्री और पुरुष यह दुकान तभी फलती-फूलती है और लाभप्रद होती है, जब ये दोनों साझेदार एक-दूसरे के स्वाभाव, प्रकृति, गुण, दोष, आवश्यकता और विशेषता को समझते हो। एक दूसरे का सम्पर्क ज्ञात न होने से उनका साझा भली भाँति नहीं चल सकता। विज्ञान ने स्त्री और पुरुष की तुल्यता की घोषणा की है, न कि उनकी समानता की बात केवल इतनी ही है कि स्त्री और पुरुष दोनों के संयोग से मनुष्य बनता है, ठीक उसी प्रकार जैसे धनात्मक और ऋणात्मक अणुओं के मिलने से विश्व बना है।"


विवाह के पश्चात् पुरुष को स्त्री के सुख के लिये तथा स्त्री को पति के आनन्द के निमित्त कुछ बलिदान करना पड़ता है। दोनो ही एक दूसरे को सुखी देखना चाहते है। अपने जीवन-मित्र के लिये अधिक से अधिक त्याग करने को प्रस्तुत रहते हैं। अतः स्वार्थ और संकुचितता नष्ट हो कर उदारता और त्याग की भावनाएं जागृत होती है। जीवन का क्रम है "सुख की ओर अग्रसर होना।" इस त्याग का यह फल होता है कि दोनों ही सुखी रहते हैं। एक दूसरे के लिये सुख खोजने की प्रवृत्ति तथा उपकरण प्रस्तुत करने से अपने लिये सुख पाने का राज-पथ तैयार किया जाता है। इस प्रवृत्ति का जनक है कर्तव्यनिष्ठ गृहस्थ जीवन गृहस्थ जीवन एक ऐसी पाठशाला है जिसमे स्त्री-पुरुष के स्वभाव एक होकर एक दूसरे के कमी की पूर्ति करते हुये अधिक से अधिक सुख, समृद्धि और समाज हित के लिये अग्रसर होते हैं। विवाहित स्त्री-पुरुष त्याग और आत्म समर्पण की प्रतिमूर्ति है। पुरुष सिंह के समान बलशाली, क्रोधी और तीव्र मनोविकारो का लड़ाकू जीव है। लेकिन अपनी पत्नी के समक्ष वह दयालु हो उठता है। जिस नारी को वह एक पराये घर से लाता है, अपने गृह की सम्पूर्ण व्यवस्था गुप्त बातें उसे सौंप कर ठण्डी साँस लेता है। सब रुपया कमा कर उसी लक्ष्मी को अर्पण करता है। वह स्वयं अपने आप कुछ नहीं खाना चाहता। भूखा रह कर पत्नी के लिये अच्छी से अच्छी सामाग्री प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार पत्नी स्वयं दुःख उठा कर घर के कार्यों में लग कर पति को सुखी देखना चाहती है। वह अपना सुख, खान-पान, पहनावा इत्यादि पति के सुख पर उत्सर्ग कर देती है। यह पारस्परिक आत्म-समर्पण ही गृहस्थ जीवन का निर्माण करता है।



दाम्पत्य जीवन की सफलता


पुरुष का स्वभाव है कि जब तक अपनी प्रेमिका को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उसे पाने के लिये अत्यन्त इच्छुक रहता है, प्राणपण से चेष्टा करता है, प्रत्येक प्रकार से प्रेम प्रदर्शन करता है और स्त्री के अतिरिक्त अन्य कुछ भी चीज नहीं प्राप्त करना चाहता है किन्तु एक बार मनचाही पत्नी पाने के पश्चात् क्रमश उसके मन क्षेत्र में भारी परिवर्तन प्रारम्भ होता है। विवाह के तीन चार मास पश्चात् वह पत्नी की ओर से उदासीन सा होने लगता है। आधी उम्र आने पर अर्थात् ३५, ४० वर्ष का होने पर उसे स्त्री में विशेष आकर्षण नहीं रह जाता। वह उसे अपने विचारों का केन्द्र नहीं मानता प्रत्युत अन्य सांसारिक कार्यों में प्राणपण से जुट जाता है। स्त्री उसके हृदय के एक कोने में पड़ी रहती है। अधिक आयु होने पर वह स्त्री से चिढ़ने लगता है। कितने ही उनसे डरने लगते है। दूसरे उनसे सर्वथा उदासीन होने लगते हैं। कुछेक स्त्री को देख कर डर सकते हैं, उनकी फरमाइश पूरी नहीं करना चाहते।


स्त्री का प्रेम प्रारम्भ में बिल्कुल नहीं रहता किन्तु विवाह के पश्चात् या जान पहिचान होने के पश्चात् धीरे-धीरे विकसित होता है। तीन मील लम्बे बूटों की रफ्तार से वह नहीं बढ़ती, जरा-जरा सी आगे चलती है। जब वह एक बार प्रेमी प्राप्त कर लेती है तो स्वभावतः उसे छोड़ना नहीं चाहती। उसमे ममता अहं, करुणा, सहानुभूति की मात्रा अधिक है। विवाह के पश्चात् उसकी यह आकांक्षा रहती है कि पति के प्रति उसका प्रेम बढ़े वह उसके हाथ में रहे, उसी से प्रेम करे, अन्य किसी को अपने प्रेम में कोई हिस्सा न दे। स्त्री हर प्रकार आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक दृष्टि से उसकी स्वामिनी बनने को लालायित रहती है।


स्त्री का हृदय प्रेम, करुणा, ममता एवं सहानुभूति की रंगभूमि है, वह कोमलता एवं सहनशीलता की कल्पलता है, क्षमा एवं त्याग की तपोभूमि है, वह भिन्न-भिन्न भावनाओं का आश्चर्यजनक सम्मिश्रण है। वह चिर सुन्दर है, चिर कोमल है, वह अपने प्रिय के लिए अपने सर्वस्व का त्याग कर सकती है और अपने मान-अपमान एवं निन्दा-स्तुति की भी चिन्ता नहीं करती। वह बड़े से बड़े अपराधी को भी क्षमा कर सकती है।


दो प्रतिकूल तत्वों का सम्मिश्रण उक्त दोनों प्रतिकूल तत्वों से ही संसार का निर्माण हुआ है। इसी प्रतिकूलता में संसार का आनन्द अन्तर्निहित है। बिना पुरुष के नारी अभाव का अनुभव करती है, बिना स्त्री के पुरुष में लग कर पति को सुखी देखना चाहती है। वह अपना सुख, खान-पान, पहनावा इत्यादि पति के सुख पर उत्सर्ग कर देती है। यह पारस्परिक आत्म-समर्पण ही गृहस्थ जीवन का निर्माण करता है।


पुरुष का निर्माण एक युद्ध करने वाले, दृढ़ी, निडर, हृदयहीन सैनिक के समान किया गया है। उसमें जीवन निर्वाह के साधनों को एकत्रित करने का साहस है। दूसरी ओर, स्त्री में लावण्य एवं रूप की अनुपम राशि प्रदान की गई है। यदि पुरुष उद्दण्ड है, तो स्त्री कोमल, सहनशील। पुरुष शक्ति आक्रामक है, तो स्त्री-शक्ति आत्म रक्षक। पुरुष उन्नतिशील होता है, तो स्त्री धैर्यवान। पुरुष अधिकार, शक्ति व दण्ड से शासन करता है, स्त्री अपने प्रेम से आँसू से और मृदुलता से यदि पुरुष शब्दों में विनय करता है तो स्त्री दृष्टि की विनम्रता से ।

 "पुरुष वर्तमान में भविष्य को भूल जाता है, स्त्री भविष्य को संभालने व अधिक सुखकर बनाने में सदैव प्रयत्नशील रहना चाहती है। स्त्री के मातृभाव के लिए पूर्ण त्याग व निःस्वार्थ परिश्रम की आवश्यकता है। पुरुष अपने प्रेम को केन्द्रित कर सकता है, परन्तु स्त्री जब मातृत्व का भार ग्रहण कर लेती है तो उसकी प्रेम-धारा सर्वतोमुखी होकर प्रवाहित होती है।"


"पुरुष अग्रगामी है किन्तु स्त्री मार्ग प्रदर्शक । पुरुष शीघ्रता से प्यार करता है परन्तु स्त्री का प्रेम इतना प्रबल होता है कि वह अपने प्रेमी के दुर्गुण भी नहीं देखना चाहती पुरुष प्रेम के प्रमाण नहीं चाहता, स्त्री का आत्म समर्पण ही उसके लिये यथेष्ट प्रमाण है पर स्त्री पुरुष के प्रेम पर हमेशा सोचा- विचारा करती है।"


"पुरुष के जीवन में प्रेम एक छोटा-सा हिस्सा है, वह शीघ्रता से प्यार करता है, जैसे भागता सा हो। किन्तु स्त्री पग-पग पर रुकती है, सोचती है, तब अपना हृदय देती है। वह अपने प्रेमी के प्रेम का सबूत दिन में कई बार उसके मुख से वाणी से एवं नेत्रों से चाहती है। उसका संसार मोहब्बत से सराबोर है, अन्य बातें उसमें गौण महत्व रखती हैं। स्त्री जीवन प्रेम पर ही अवलम्बित है। प्रेम की प्यासी स्त्री को ठुकरा कर भारी शत्रुता खड़ी की जा सकती है। पुरुष आखिर निश्चयी, मजबूत एवं स्फूर्तिमान होता है, स्त्री अधिक सहनशील प्रेमी, उदार। पुरुष चीर-फाड़ करने वाला निर्दय सर्जन बन सकता है तो सेवा-शुश्रूषा के लिये कोमल हृदय स्त्री की आवश्यकता पड़ती है।"


सफल दाम्पत्य जीवन का रहस्य

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