शुक्रवार, 20 जून 2025

 "मैं वह धरती हूं, राम ! जिसकी छाती करुणा से फटती है तो शीतल जल उमड़ता है; घृणा से फटती है तो लावा उगलती है। दोनों मिल जाते हैं तो भूचाल आ जाता है ! आज मेरी स्थिति भूडोल की है, राम !" आवेश से कैकेयी का चेहरा लाल हो गया, "मैं इस घर में अपने अनुराग का अनुसरण करती हुई नही आयी थी। मैं पराजित राजा की ओर से विजयी सम्राट् को संधि के लिए दी गयी एक भेंट थी। सम्राट् और मेरे वय का भेद आज भी स्पष्ट है। मैं इस पुरुष को पति मान पत्नी की मर्यादा निभाती आयी हूं, पर मेरे हृदय से इनके लिए स्नेह का उत्स कभी नही फूटा। ये मेरी मांग का सिंदूर तो हुए, अनुराग का सिदूर कभी नहीं हो पाए। मै इस घर में प्रतिहिंसा की आग में जलती, सम्राट् से संबंधित प्रत्येक वस्तु से घृणा करती हुई आयी थी। तुम जैसे निर्दोष, निष्कलुष और प्यारे बच्चे को अपने महल में घुस आने के अपराध में मैंने अपनी दासी से पिटवाया था..."

"मुझे याद है, मां !"

"वह मैंने तुम्हें नही पिटवाया था, मेरी प्रतिहिंसा ने सम्राट् के पुत्र को पिटवा-कर, सम्राट् को पीड़ित कर, प्रतिशोध लेना चाहा था। तब मैं तुमसे घृणा करती थी, तुम्हारी मां से घृणा करती थी, बहन सुमित्रा से घृणा करती थी। मैं रघुवंशियों से, मानव-वंश की परंपराओं से प्रत्येक वस्तु से घृणा करती थी। जहां तक संभव हुआ, मैंने बड़ा उद्दंड, उच्छृंखल और अमर्यादित व्यवहार किया केवल इसलिए कि इन सब के माध्यम से मैं सम्राट् को पीड़ा पहुंचा सकूं। पर क्रमशः मैंने पहचाना कि मैं तुम्हें या बहन कौसल्या को पीड़ा पहुंचाकर, सम्राट् को पीड़ा नहीं पहुंचा रही हूं- उससे तो मैं सम्राट् को सुख दे रही हूं। तुम लोगों से उनका संबंध भावात्मक नहीं, अभावात्मक था। तुम लोग तो स्वयं मेरे समान पीड़ित थे, अपमानित थे। और फिर तुम्हारे और बहन कौसल्या के गुण मेरे सामने प्रकट हुए । मुझे तुम लोगों से सहानुभूति हुई, जो क्रमशः प्रेम में बदल गयी। क्या मैं झूठ कह रही हूं, राम ?"

"नही, मां !" राम ने स्वीकार किया, "तुमने मुझे भरत का-सा प्यार दिया है।"

"मैंने क्रमशः मानव-बंशी परंपराओं का विरोध भी छोड़ दिया। मैने पहचाना कि अपनी प्रतिहिंसा में मैंने न्याय-अन्याय का विचार छोड़ दिया है। मैं स्वयं राक्षसी बन रही हूं। मैं किसी अन्य को नही, स्वयं अपनी आत्मा को पीड़ा दे रही हूं। शनैः शनैः मैने स्वयं को सहज किया। अपना विरोध छोड़ने के प्रयत्न में, पिता द्वारा लिया गया वचन भुला दिया, शंबर-युद्ध के पश्चात् मिले अपने वरदानों का उपयोग नही किया; और अयोध्या की प्रजा के समान चाहा कि राम ही युवराज हों। तुम ही इस योग्य थे, पुत्र ! तुम ही इस योग्य हो। किंतु मुझे अपनी सद्भावन का पुरस्कार क्या मिला ?"

राम मौन रहे। वे भरी आखों से कैकेयी को देखते रहे ।

"इस राज-प्रासाद मे मुझ पर कभी विश्वास नही किया गया। मुझे सदा चुडैल समझा गया। मेरे भाई को आतंकी माना गया। मेरे मायके की परपराओ को हीन और घृणित कहा गया। मैं सदा यहा अपरिचित होकर रही एक बाह्य वस्तु जिसका यहा के हवा-पानी से कोई मेल नही था। मै बहन कौसल्या या सुमित्रा या अन्य किसी को उसके लिए दोष नही देती। उनसे मेरा सबंध ही ऐसा था. वे मुझ पर विश्वास नही कर सकती थी। मुझे और किसी से शिकायत नही। शिकायत है अपने इस पति से, जो बलपूर्वक मुझसे विवाह कर मुझे यहा लाया। जिसने अयोग्य होते हुए भी मुझसे सद्भावना चाही और प्राप्त की; कितु स्वय मेरे प्रति घोर दुर्बलता का अनुभव करते हुए भी मुझ पर कभी विश्वास नही किया।

 मैं उसके लिए आकर्षण किंतु भय की वस्तु रही। उसने मुझे अपने सिंहासन पर तो स्थान दिया, किंतु हृदय मे नही। मैं उस सारे समय के लिए क्या कहू, राम ! जब-जब सुना कि मेरे पति ने कोई कर्म किया है, कोई निर्णय किया है, किंतु भयभीत होकर मुझसे छिपाया है। झूठ बोला है। उस झूठ को छिपाने के लिए फिर-फिर झूठ बोला है। अपने ऐसे व्यवहार से उसने अपना आत्म-विश्वास खोया हे. स्वयं अपने-आपको और मुझे बार-बार अपमानित किया है। राम ! तुम पुत्र हो मेरे। तुम्हे कैसे बताऊं कि हमारी राते प्यार-मनुहार में कटने के स्थान पर झगड़ों और लानत-मलामत मे बीत जाती थी । बार-बार संकल्प करने के बाद भी झगड़े होते रहे। कलह-क्लेश शांत ही नही हुए। पति पत्नी के इन झगड़ो के दुष्प्रभाव से बचाने के लिए, उसे एक शांत और स्नेहिल वातावरण देने के लिए, मै भरत को बार-बार उसके ननिहाल भेजती रही..."

कैकेयी का स्वर रुंध गया। उसकी आंखों मे जल और अग्नि एक साथ प्रकट हुई, "और अंत में मैने क्या पाया, राम ! कल रात ढले कुन्जा तुम्हारे युवराजाभिषेक का समाचार लायी। मैने बहुमूल्य मोतियो की माला कुन्जा को पुरस्कार मे दे डाली। किंतु उस मूर्खा, कुटिला दासी ने वह मेरे मुह पर दे मारी। किस आधार पर किया उसने यह दुस्साहस ?'

कैकेयी क्षण-भर रुकी; और पुनः बह निकली, "तुम्हारे पिता के मेरे प्रति अविश्वास के आधार पर। उसने मुझे बताया कि यह गोपनीय निर्णय था। सम्राट् को आशंका थी कि कुछ लोग अभिषेक मे विघ्न डालेंगे, राम को नष्ट करने के लिए रातों-रात उस पर आक्रमण करेगे। किससे था भय? मुझसे मेरे पुत्र से ! मेरे भाई से ! इसीलिए मुझे बताया नही। भरत को ननिहाल भेज दिया।

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