पहली बार राम की गंभीरता उदासी में परिवर्तित हुई। प्रातः पिता के सम्मुख जाने के समय से अब तक मे पहली बार उन्होंने स्वयं को ढीला छोड़ा। पिता की बात और थी- वे चिंतित थे, वृद्ध थे और कैकेयी के मोह में बंधे थे। माता कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी की बात भिन्न थी; उन सबके अपने मोह और अपनी सीमाएं थीं। पर सीता के सम्मुख वे अपनी चिताएं, द्वंद्व और आशंकाएं प्रकट कर सकते है। अपनी पत्नी के सम्मुख मन नही खोल सके, तो फिर कहीं भी नही खोल सकेंगे...
"अभिषेक नही होगा। चौदह वर्षों के दंडक-वास का आदेश हुआ है।" राम बोले, "नही जानता प्रसन्न होने की बात है अथवा उदास होने की। जाना तो था ही पर निर्वासन.."
सीता ने राम को निहारा। नही यह परिहाम नही है। उनकी मुद्रा, उनकी वाणी, उनके हाव-भाव बता रहे है, यह नाटक नही है- अभिनय नही है। यह यथार्थ है। तभी तो प्रातः सुमत्र इतने उदास थे...
सीता की मुद्रा के साथ-साथ उनको वाणी भी गंभीर हो गयी, "आप इस आदेश का पालन करेंगे ?"
"और कोई विकल्प नही।"
सीता ने अपना संपूर्ण अस्तित्व, अपनी आंखों में भरकर, राम को पूरी तन्मयता के साथ देखा। एक गहन चिंतन, उस चिंतन से उबरकर, निर्णय तक पहुंचने की स्थितियां उन्होंने चामत्कारिक शीघ्रता से पार कीं; और बोलीं, "विकल्प नहीं है तो आदेश को हंसकर सिर-माथे पर लेना होगा। क्या-क्या तैयारी कर लूं ?"
राम मुग्ध हो उठे। मुग्धा वस्था में परेशानी खो गयी। सीता वास्तविक संगिनी थीं- शब्द के सही अर्थों में। उन्होंने यह नहीं पूछा कि वनवास का आदेश किसने दिया, क्यों दिया, उस आज्ञा को स्वीकार करने की बाध्यता क्या है सीता ने इस निर्णय से उन्हें टालना नहीं चाहा, समझानें का प्रयत्न नहीं, हठ नहीं। एक क्षण के लिए भी शंका नहीं, द्वंद्व नही, संकोच नही जिसकी संगिनी ऐसी हो, उसे किसी और का सहारा क्या करना है ?...
"तुम तैयारी क्यों करोगी, सीते? मैं वन जा रहा हूं, तुम्हें किसी ने राजप्रासाद छोड़ने को नहीं कहा।"
सीता मुसकराई, "मुझे अलग से कहने की आवश्यकता नही है। आदेशों से पति-पत्नी के संबंध बदल नहीं जाते।" सहसा उनका स्वर विस्मय से भर उठा, "कहीं आप अकेले जाने की बात तो नहीं सोच रहे ?"
राम का विषाद घुल गया। सीता के निष्कपट व्यवहार ने उनका आत्मविश्वास पूरी तरह लौटा दिया था। मां के रोने ने उन्हें विह्वल कर दिया था, सीता के व्यवहार से वे फिर स्थिर हो गये थे। लीला पूर्वक हंसकर बोले, "नही। सारा कुटुंब साथ चलेगा । आदेश मुझे मिला है तो मैं ही जाऊंगा।"
राम ने प्रातः से अब तक की घटनाएं विस्तार से सीता को सुनाई।
सीता ध्यान से सुनती रही; किंतु सुन लेने के पश्चात् भी उनका निर्णय नही बदला, "मैं कैसे मान लूं कि पति-पत्नी मे भी आदेश केवल एक व्यक्ति को दिया जा सकता है। किसी कारण से कभी मुझे भी ऐसा ही कोई आदेश मिले, तो क्या आप मुझे अकेली को वन भेजकर स्वयं राजप्रासाद में रह जाएंगे ?"
"तुम्हारी बात भिन्न है। तुम स्त्री हो।..."
सीता ने राम की बात बीच में काट दी, "हमारा समाज यह भेद करता है, पर आप स्त्री-पुरुष के अधिकारों की समानता के समर्थक हैं, राम! आप कैसे कह सकते हैं कि आपका मेरे प्रति जो कर्तव्य है, वही मेरा आपके प्रति नही है ?"
"ठीक है। तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध तुम्हें अयोध्या में छोड़कर नही जाऊंगा; पर कुछ बाते विचारणीय है। मां को बड़ी दुखी मनःस्थिति में छोड़कर जा रहा हू। पति-पत्नी एकरूप हैं। इसीलिए एक ही समय में दो कार्य करने के लिए विभक्त हो जाते हैं। मेरी अनुपस्थिति मे, मेरे स्थान पर, मेरी मां की देख-भाल करो।"
"बहुत बढ़िया ।"
सीता के अधरों पर एक तीखी मुसकान थी, "विवाह के पश्चात् के इन चार वर्षों मे, कुल-वृद्धाओं और सारी प्रजा द्वारा लगाए गये बंध्या होने के आरोप को इसलिए झेलती रही हूं कि आप कर्तव्य की पुकार पर वन जाएं तो मैं सोलहों श्रृंगार किए, मणि-माणिक्य के आभूषण पहने, सेवक-सेविकाओं तथा परिजनो से घिरी, माता कौसल्या की सेवा का नाटक करने के लिए, पीछे रह जाऊं। आप दिन-दिनभर बाहर जनता के कार्यों में व्यस्त रहे और पीछे मैं अकेली यह सोच-सोचकर तृप्त होती रही कि मेरे पति आत्मकेंद्रित, स्वार्थी मनुष्य नही हैं। उनमें पर-दुःख-कातरता है। मैं अपने भीतर दमित ऊर्जा को सड़ते देखती रही और आपसे कहती रही कि मुझे अधिक कार्य मिले, जिससे मेरा अस्तित्व भी सार्थक हो सके । आपने सदा यही कहा कि अभी अवसर नही आया। और आज, जब अवसर आया है कि मैं आपके साथ दंडक वन जाऊं; पीड़ित तथा त्रस्त जन-सामान्य के सीधे संपर्क में आऊं; उनके लिए कुछ कर अपने अस्तित्व को उपयोगी बनाऊं, तो आपकी मातृ-भक्ति, सास की सेवा के झूठे बहाने की आड़ में मुझे सड़ने-गलने के लिए यहां छोड़ जाना चाहती है। इससे तो कही अच्छा होता, मैं माता कौसल्या की बात मान, उनकी गोद मे पौत्र डाल, उनके मन को संतोष देती।"
"सीते !" राम ने अनुराग भरी दृष्टि से सीता को निहारा, "मुझे गलत मत समझो । अयोध्या मे नागरिक सुविधाओ और सुरक्षा के वातावरण के मध्य रहकर जन-कल्याण का कार्य करना और बात है; राक्षसों, दस्युओं, हिंस्र पशुओं से भरे उस बीहड़ वन मे समय बिताना और बात । क्या तुम्हारे लिए वनवास सुविधा-जनक होगा ?"
सीता के चेहरे का तेज उभरा। सुहाग भरी वाणी मे तमककर बोली, "सुविधाओं और सुरक्षाओं की बात मुझसे मत कीजिए। सुविधा की बात सोचने-वाला व्यक्ति कभी स्वार्थ से उबर सका है? आज तक यही समझा है आपने मुझे । राजप्रासाद का लालच मुझे न दे। जहां आप जाएंगे, मैं भी जाऊंगी।"
"मेरी बात नही मनोगी ?"
"यह बात नही मानूंगी ।"
"लोग क्या कहेगे ।"
"उन्हें बुद्धि होगी, तो कहेंगे कि सीता पति से प्रेम करती है।"
"नही, प्रिये !" राम फिर गंभीर हो गये, "मैं तुम्हारी क्षमताओं को जानता हूं, इसीलिए चाहता हूं कि तुम यही रहो। तुम यहां रहोगी, तो मुझे वन में मां की चिन्ता नही सताएगी। और" राम ने रुककर मीता को देखा, "प्रेम अथवा आदर्श की भावुकता मे यथार्थ को अनदेखा मत करो। वन में राजप्रासाद नही होते, सेना नही होती, प्रहरी नहीं होते। पेट की अंतड़ियां भूख से बिलबिलाकर टूट रही हों, तो खाने को अन्न नही मिलता; सर्दी-गर्मी में उपयुक्त कपड़े नहीं मिलते ।"
सीता का स्वर अत्यन्त विक्षोभ पूर्ण हो उठा, "तो आप यही समझते हैं कि सुख-सुविधापूर्ण जीवन के लिए मैं आपके साथ हूं!
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