शनिवार, 21 जून 2025

 "व्यक्ति रावण से अधिक महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति रावण है।" ऋषि बोले, "विरोध उस दुष्ट प्रवृत्ति और भ्रष्ट व्यवस्था का है, जिसका अधिनायकत्व रावण कर रहा है। जनस्थान मे अगस्त्य और पुत्री लोपामुद्रा उससे जूझ रहे हैं, सशस्त्र जन-बल तैयार कर । किष्किंधा मे वाली का छोटा भाई सुग्रीव, उसके सहयोगी हनुमान और जामवंत; यहां तक कि वाली का तरुण पुत्र अंगद भी, रावण के निरंतर वर्धमान प्रभाव से प्रतिदिन उलझ रहे है। किंतु उनकी समस्या और भी विकट है। उनका अधिपति वाली स्वयं राक्षस नही है। वह एक प्रकार का पूजापाठी और कर्मकांडी व्यक्ति है, जो उसे धार्मिकता का आवरण प्रदान करता है; किंतु उसमे कुछ दुर्बलताएं हैं। वह स्त्री-लोलुप और कामी है। फिर रावण का मित्र होने के कारण ने केवल वह अधिकाधिक सुविधा जीवी होता जा रहा है तथा प्रजा की उपेक्षा कर रहा है; वरन् रावण के बढ़ते हुए प्रभाव का विरोध भी नही कर रहा । सुग्रीव और उसके साथी, विकासमान दुष्टता को देख रहे हैं, और भीतर-ही-भीतर ऐंठ रहे है। और अंत मे, स्वयं रावण के अपने घर मे विभीषण और उसके मुट्ठी भर साथी है। विभीषण रावण का भाई होते हुए भी, उसकी किसी नीति से सहमत नही है, किंतु रावण के सम्मुख वह पूर्णतः अशक्त है। राघव ! आज राक्षसी शक्तियां सगठित है, और मानवीय शक्तियां बिखरी हुई है। विजय संगठन की होती है। अतः राक्षसी तंत्र का ध्वंस करने का श्रेय भी उसी व्यक्ति को मिलेगा, जो राक्षस-विरोधी शक्तियों का सगठन करने में सफल होगा."

सहसा भरद्वाज अत्यन्त भावुक हो उठे, "और मेरी विडंबना यह है, राम ! कि मैं शरीर से यहां बैठा हू और आत्मा मेरी लोपामुद्रा और अगस्त्य मे बसती है। उन्होंने राक्षस-विरोधी इस संघर्ष को, चिंतन के धरातल से, कर्म के धरातल पर उतार दिया है। संघर्ष केवल सिद्धांत के धरातल पर होता है, तो प्रवृत्ति का विरोध कर हम व्यक्ति के साथ समझौता कर, जी लेते है; किंतु संघर्ष के कर्म  धरातल पर उतरने के पश्चात् कोई समझौता नही होता, समन्वय नही होता, सह-अस्तित्व नही होता।"

भरद्वाज मौन ही नही हुए, किसी और लोक में लीन हो गये। कोई और व्यक्ति भी नही बोला। चारों ओर निस्तब्धता छा गयी। सीता ने दृष्टि उठाकर राम को देखा - वे भरद्वाज से कम लीन नही थे। इतने लीन वे कभी-कभी ही होते थे, और तभी होते थे, जब उनके मन में कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण घटित हो रहा होता था, और उनका निश्चय करने का क्षण होता था, जब कोई विचार कर्म मे परिणत हो रहा होता था और लक्ष्मण ! लक्ष्मण के मन मे जो कुछ था, वह सब उनके मुख-मंडल पर प्रतिबिंबित था। वे उग्र से उग्रतर होते जा रहे थे..

"भैया ! हम यहां से कब चलेंगे ?" सहसा लक्ष्मण ने पूछा ।


अपनी अन्तर्मुखी दृष्टि से, क्षण भर राम ने प्रश्नवाचक मुद्रा में लक्ष्मण को देखा और दूसरे ही क्षण वे खिलखिलाकर हंस पड़े, "ऋषि-श्रेष्ठ ! आपकी बातों ने लक्ष्मण के उग्रदेव को जगा दिया है। उन्हें न्याय-अन्याय, मानवता और राक्षसत्व की संघर्ष-भूमि में पहुंचने की जल्दी मच गयी है। वे अब इस आश्रम में अधिक रुक नहीं पाएंगे।"

भरद्वाज मुसकराए, "मैं तो कब से कामना कर रहा हूं कि जन-जन में यह उग्रदेव जागे । यदि मेरी बातों ने लक्ष्मण के उग्रदेव को जगाया है, तो मैं धन्य हुआ, राम ! पर, पुत्र सौमित्र ! अब संध्या का समय है। इस समय यात्रा उचित नहीं। आज रात मेरे ही आश्रम में आतिथ्य ग्रहण करो। कल प्रातः प्रस्थान करना। मेरे शिष्य अगले पड़ाव तक तुम्हारे साथ जाएंगे और तुम्हारे शस्त्रास्त्रों के परिवहन में तुम्हारी सहायता करेंगे।"

"यही उचित होगा।" राम बोले, "क्यों वैदेही ?"

"देवर की क्या इच्छा है ?" सीता ने लक्ष्मण की ओर देखा ।

"जो ऋषि श्रेष्ठ का आदेश हो।" लक्ष्मण अपने आक्रोश को दबा रहे थे।

नरेंद्र कोहली अवसर 

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