रविवार, 29 जून 2025

 द्वार पर किसी के हाथ की थाप पड़ी ।

राम तत्काल उठ खड़े हुए। आज कुछ भी असहज नहीं था। किसी भी क्षण कोई भी सूचना आ सकती थी।...

राम ने कपाट खोला। दीपक के प्रकाश में सामने सौमित्र खड़े थे। उनका चेहरा पहले से भी अधिक निर्जीव लग रहा था। एक ही संध्या में कितने बदल गये थे सौमित्र !

"अभी तक सोये नहीं ?" राम स्वयं को संभालकर अत्यन्त कोमल स्वर में बोले, "कोई समाचार आया है क्या ?"

लक्ष्मण ने ऐसी दृष्टि से राम को देखा, जैसे उनकी कठोरता के विरुद्ध शिकायत कर रहे हों। फिर आंखें झुकाकर धीमे स्वर में बोले, "थोड़ी देर आपके पास बैठ सकता हूं ?"...

राम हतप्रभ रह गये वे एक के पश्चात एक भूल कैसे करते जा रहे हैं. पहले भी उन्होंने सौमित्र की भावनाओं की ओर ध्यान नहीं दिया था, अब फिर वे उनकी ओर से आंखें मूंद, अपने कुटीर में अकेले बंद हो गये थे। अपने दुख को कलेजे से लगाये, लोगों की दृष्टि से बचकर, एकांत में रोने का प्रयत्न कर रहे थे - उन्होंने क्यों नहीं सोचा कि इस दुख का बहुत बड़ा अंश उनके और सौमित्र के बीच सामान्य भी था। सीता उनकी पत्नी हैं तो सौमित्र की सखावत भाभी. मुखर उनसे बढ़कर सौमित्र का मित्र था फिर अन्याय के विरुद्ध यह युद्ध, जीवन का यह लक्ष्य, अकेले राम का नहीं था। वनवास में, लक्ष्य के लिए संघर्ष में सौमित्र कभी पीछे नहीं रहे थे फिर सौमित्र से अलग उनका दुख अपना कैसे हो सकता है. दोनों का दुख था, दोनों को सहना था इसको तो भाई के वक्ष से लगकर ही, साथ रोकर ही सहन किया जा सकता था; और भाई के कंधे से कंधा मिलाकर ही इसका प्रतिकार किया जा सकता था.

"आओ, सौमित्र !" राम का स्वर विह्वल हो उठा। वे लक्ष्मण को उनके बांहों से घेर भीतर ले आये ।

लक्ष्मण को आसन पर बैठा, राम सम्मुख बैठ गये। सहज होने का प्रयत्न करते हुए धीरे से बोले, "बहुत दुखी हो, सौमित्र ?"

लक्ष्मण तुरन्त नहीं बोले। कुछ देर शून्य में देखते रहे, जैसे बोलने के लिए शक्ति बटोर रहे हों, "दुखी क्षुब्ध अपमानित सबसे अधिक अपराध-बोध से पीड़ित हूं..।"

"सौमित्र !"

"मुझे दंड दें, भैया ! मैं अपराधी विश्वासघाती..." राम चौके, "क्या है तुम्हारे मन में, सौमित्र!"...

"आपकी अनुपस्थिति में रक्षा का दायित्व मेरा था।" लक्ष्मण का स्वर अत्यन्त उदास था, "भाभी के अपहरण, मुखर के वध के लिए अपराधी मैं हूं। उन्हें अकेले, असुरक्षित छोड़कर जाने का औचित्य..."

"सौमित्र ! सीता और मुखर 'वस्तु' नहीं थे, जिनकी रक्षा का दायित्व तुम पर था।" राम बोले, "वे सचेतन प्राणी थे। तुम्हारे संरक्षित थे, किंतु तुम्हारे साथी भी थे। वे सैनिक थे और शत्रु से युद्ध कर रहे थे।" राम ने रुककर लक्ष्मण को देखा, "इस दीर्घकालीन युद्ध में अनेक छोटी-बड़ी झड़पों में हम विजयी हुए हैं, किंतु इस झड़प में शत्रु विजयी हो गया है। इस पराजय को उसके वास्तविक रूप में ग्रहण कर, हमें आगामी व्यूह के लिए सन्नद्ध रहना चाहिए। अपनी भूलों से कुछ सीख आगे बढ़ना चाहिए। तुम्हें दंड किस बात का दूं ?..."

"मैं अपनी ग्लानि और अपराध-बोध का क्या करूं?" अपनी व्याकुलता में लक्ष्मण ने अपने सिर को अनेक झटके दिये ।

"यह तर्क नहीं, भावना है- जो निजी क्षति से उत्पन्न हुई है।" राम का स्वर भर्रा आया, "निजी रूप से मैं भी बहुत पीड़ित हूं, सौमित्र ! व्यक्तिगत क्षति के लिए बहुत रो चुका हूं। अब सैनिक-धर्म समझने का प्रयत्न कर रहा हूं।"

लक्ष्मण की दृष्टि में राम के लिए सम्मान और स्नेह दोनों थे, "आपके जैसा ठंडा कलेजा कहां से लाऊं?" लक्ष्मण की आंखों से अश्रु चू पड़े, "इस धधकती ज्वाला का क्या करूं ? इच्छा होती है, इस सृष्टि को नष्ट कर दूं, यहां न्याय कभी विजयी नहीं होगा।"

राम स्नेहसिक्त आंखों से लक्ष्मण को निहारते रहे, जैसे उनकी भावना की प्रशस्ति गा रहे हों; और फिर धीरे से बोले, "आग तो मेरे वक्ष में भी ऐसी लगी है कि स्वयं ही भस्मीभूत होने की आशंका जगती है। विनाश का उन्माद मेरे मन में भी बवंडर के समान उठा था; किन्तु सौमित्र ! संसार के कुछ नियम हैं। उनके विरुद्ध आचरण करने से कभी सफलता नहीं मिलती। हमें धैर्य तथा विवेक से योजनाबद्ध रूप में सीता की खोज करनी होगी। सीता का अपहरणकर्ता ही मुखर का हत्यारा भी है। उसकी शक्ति के अनुरूप अपना संगठन करना होगा। ऐसा न हो कि अपनी असावधानी से हम अपना अहित कर बैठें और वैदेही के लिए और अधिक कष्ट के कारण बन जाएं ו"

"मैं क्या करूं, भैया ?"

"अपने शोक को ऊर्जा में बदलो।" राम की शांति में उनका संकल्प बोल रहा था, "व्यक्ति के रूप में नहीं, सैनिक के रूप में सोचो।"

लक्ष्मण ने अपने सिर को झटका दिया, "शोक मना चुका। अब स्वयं को युद्ध के लिए तैयार करूंगा।"

जाने के लिए लक्ष्मण उठ खड़े हुए ।

"आज रात यहीं सो रहो, सौमित्र !" राम के स्वर में अथाह प्यार था।

"नहीं, भैया !" लक्ष्मण के शोक में से उनका ओज. झांक उठा, "शोक का काल समाप्त हुआ। शस्त्रागार के प्रहरी के रूप में, अपने ही कुटीर में सोऊंगा।"

नरेन्द्र कोहली अभूदय 

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