'वानरराज ! राक्षसराज ने कहा है कि', शुक असाधारण शालीनता से बोला, 'हमारे दोनों राज्यों की मैत्री अपके पिता सम्राट ऋक्षराज के समय से ही चली आ रही है। वाली मेरा मित्र था। उसके हाथों अपने परिजन मायावी के वध के पश्चात् भी मैंने उसका विरोध नहीं किया। इस दृष्टि से तुम मेरे भाई के समान हो। तुम्हारा मैंने कभी कोई उपकार नहीं किया, तो कभी कोई अपकार भी नहीं किया। तुमसे मेरी शत्रुता नहीं है। ऐसे में एक बाहरी व्यक्ति, जिसका न अपना राज्य है, न सेना है, वानर जिसकी न जाति के हैं, न गोत्र के - वह बाहरी व्यक्ति तुम्हें फुसलाकर मेरे विरुद्ध लड़ने के लिए ले आया है। शत्रुता किसी की और युद्ध में प्राण देने कोई और आया है। यदि मैंने राम की पत्नी का हरण किया है तो उसमें तुम्हें मुझ जैसे मित्र के विरुद्ध युद्ध करने की क्या आवश्यकता है ? इस युद्ध में विजय वानरों की हो या राक्षसों की - राज्य या मेरा जाएगा या तुम्हारा, सेनाएं मेरी नष्ट होंगी या तुम्हारी, परिजन मेरे मरेंगे या तुम्हारे- इस युद्ध में इस कंगले राम का कुछ भी दांव पर लगा हुआ नहीं है। इस युद्ध की जय-पराजय से निरपेक्ष- वह दोनों स्थितियों में लाभ में ही रहेगा। उस कंगले परदेसी के बहकावे में क्यों आते हो? तुम्हें कुछ चाहिए तो मुझसे कहो । युद्ध में सिवाय अपने और अपनी जाति के विनाश के तुम्हें और कुछ हाथ नहीं लगेगा ।'
आरम्भ में सुग्रीव भी अत्यन्त शांत बने रहे थे, किन्तु क्रमशः उनकी व्यग्रता उनके चेहरे पर प्रकट होती दिखाई दी। अंत तक आते-आने लगा कि यदि दूत मौन नहीं हो गया होता तो सुग्रीव उसे मौन कर ही देते ।
दूत के चुप होने तक सुग्रीव का धैर्य जैसे समाप्त हो चुका था। वे वानरराज की मर्यादा भूलकर अत्यन्त क्रुद्ध व्यक्ति के समान फूट पड़े, 'आज रावण को याद आया है कि वह राक्षसराज है और मैं वानरराज हूं; इसलिए हममें मैत्री ही नहीं, भ्रातृत्व का सम्बन्ध है। वह भूल गया कि आज तक समस्त नृपों को वह अपना दास बनाने के लिए सैनिक अभियान करता आया है। उसने नृपों को अपना मित्र नहीं; दास माना है। वह नृप होकर भी पर-धन, पर-अधिकार और पर-स्त्रियों का हरण करता आया है, और जिसे वह बार-बार उपेक्षा और अवहेलना से कंगला, निर्धन और तपस्वी कहता आया है वह स्वत्वहीन आर्य राम मुझ और विभीषण जैसे अपमानित, अवमानित, निष्कासित असहाय मित्रों को साम्राज्यदान करते आए हैं। जब मेरी पत्नी का अपहरण कर, मुझे किष्किंधा से निष्कासित किया गया था और मैं अपने प्राणों की रक्षा के लिए वनों-पर्वतों में छिपा फिरता था, तब रावण को याद नहीं आया था कि मैं उसका भाई हूं।' सुग्रीव ने रुककर शुक को देखा और पूरे आक्रोश से बोले, 'रावण से कहना कि मैं और वह कैसे भाई हैं, इसे वह भूल जाए; किन्तु विभीषण और रावण कैसे भाई हैं, इसे याद रखे। यह संदेश उसने अपने सहोदर भ्राता विभीषण को क्यों नहीं भेजा कि वे उससे मिलकर अपना मतभेद दूर कर लें। और दूत!' सुग्रीव का स्वर और भी ऊंचा हो गया, 'अभी तक कोई नहीं भूला कि रावण लंका का निवासी नहीं है- वह बाहर का व्यक्ति है। रावण की राजसभा में एक भी सभासद लंका का मूल निकासी नहीं है। और जहां तक जाति की बात है, राम मेरी जाति के नहीं हैं;
किन्तु वे सब दीन-हीन, निराश्रित दुर्बल लोग, जिन्हें रावण की राक्षसी सेनाएं मारती, काटती, पीटती, लूटती तथा पीड़ित करती रही हैं- वे सब मेरी ही जाति के हैं। राम की जाति को रावण नहीं जानता। राम की जाति मानवता की जाति है. यह बात तुम्हारे उस रावण की समझ में नहीं आएगी ... तुम अब जाओ, अन्यथा तुम्हारा कोई अनिष्ट हो जाए तो मैं उत्तरदायी नहीं होऊंगा ।'
किन्तु शुक वहां से टला नहीं। वह धृष्टतापूर्वक वहीं खड़ा रहा। 'एक निवेवन और है, सम्राट् !' वह अत्यन्त वक्र वाणी में बोला, 'यदि आप राम और लक्ष्मण को बंदी कर राक्षसराज को सौंप दें तो वे आपको समस्त वानर जातियों का एकछत्र सम्राट् स्वीकार कर लेंगे; अन्यथा वह चुप हो गया ।
'अन्यथा ?' सुग्रीव ने पूछा ।
'अन्यथा', वह एक विषैली मुसकान अपने अधरों पर ले आया, 'अन्यथा स्वर्गीय सम्राट वाली के न्यायोचित उत्तराधिकारी युवराज अंगद को वानरों के सम्राट् के रूप में प्रतिष्ठित कर, आपको भ्रातृ वध के अपराध के दंडस्दरूप मृत्यु-दंड...'
शुक की बात अभी पूरी नहीं हुई थी कि अंगद उस पर झपट पड़े। इससे पहले कि कोइ उन्हें रोकता. उन्होंने शुक के मुख पर तीन-चार मुष्टि-प्रहार कर डाले । वह मुख से रक्त थूक रहा था कि राम ने आगे बढ़कर अंगद की बांह पकड़ ली।
अंगद का शरीर, राम के स्पर्श से जैसे बंध गया किन्तु उनकी जिह्वा चल निकली, 'नीच ! तू यहां अपनी धूर्तता दिखाने आया है। हममें फूट का विष-वृक्ष बोना चाहता है। तेरा राजाधिराज क्या सारे विश्व का न्यायनियंता है ! उसने किस न्याय से कुबेर की लंका छीनी थी तथा अन्य लोगों के राज्यों, धन तथा स्त्रियों का हरण किया था। जा, जाकर उसे कह दे कि वह राजनीति की चिंताएं अब छोड़ दे। हम स्वयं लंका में आ रहे हैं, उसके अपराधों और पापों के लिए उसे मृत्युदंड देने; और लंका के हेमसिंहासन पर न्यायोचित उत्तराधिकारी को बैठाने...'
'शांत हो जाओ, युवराज !' राम मधुर स्वर में बोले, 'इस व्यक्ति पर क्रोध करना अनावश्यक है। यह तो दूत मात्र है।' वे शुक की ओर मुड़े, 'दूत ! यद्यपि रावण ने मुझसे सम्बोधित होना अपने लिए अवमानना माना है, फिर भी जब कभी रावण के पास पहुंच सको, उसे मेरा एक संदेश दे देना।' वे थमकर बोले, 'मेरे पास न राज्य है, न सत्ता, न सेना- मैं निर्धन, कंगाल तथा निष्कासित वनवासी हूं; किन्तु मेरे पास अपने इन मित्रों के रूप में जो धन है, वह रावण के साम्राज्य पर भी भारी पड़ेगा।' वे मुसकराए।
नरेन्द्र कोहली अभूदय
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