मंगलवार, 4 मई 2021

काम ,प्रेम ओर भक्ति

  हम कामवासना को ही प्रेम समझ लेते हैं। और कामवासना प्रेम नहीं है, प्रेम बन सकती है।

कामवासना में संभावना है प्रेम की। लेकिन कामवासना प्रेम नहीं है। केवल बीज है। अगर ठीक—ठीक उपयोग किया जाए, तो अंकुरित हो सकता है। लेकिन बीज वृक्ष नहीं है।

इसलिए जो कामवासना से तृप्त हो जाए या समझ ले कि बस, अंत आ गया, उसके जीवन में प्रेम का पता ही नहीं होता।

कामवासना प्रेम बन सकती है। कामवासना का अर्थ है, दो शरीर के बीच आकर्षण, शरीर के बीच। प्रेम का अर्थ है, दो मनों के बीच आकर्षण। और भक्ति का अर्थ है, दो आत्माओं के बीच आकर्षण। वे सब आकर्षण हैं। लेकिन तीन तलों पर।

जब एक शरीर दूसरे शरीर से आकृष्ट होता है, तो काम, सेक्स। और जब एक मन दूसरे मन से आकर्षित होता है, तो प्रेम, लव। और जब एक आत्मा दूसरी आत्मा से आकर्षित होती है, तो भक्ति, श्रद्धा।

हम शरीर के तल पर जीते हैं। हमारे सब आकर्षण शरीर के आकर्षण हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि शरीर का आकर्षण बुरा है।

शरीर का आकर्षण बुरा बन जाता है, अगर वह उससे ऊपर के आकर्षण तक पहुंचने में बाधा डाले। और शरीर का आकर्षण सहयोगी हो जाता है, सीढी बन जाता है, अगर वह ऊपर के आकर्षण में सहयोगी हो।

अगर आप किसी के शरीर की तरफ आकर्षित होकर धीरे— धीरे उसके मन की तरफ भी आकर्षित होने लगें, और किसी के मन के प्रति आकर्षित होकर धीरे— धीरे उसकी आत्मा के प्रति भी आकर्षित होने लगें, तो आपकी कामवासना विकृत नहीं हुई, ठीक मार्ग से चली और परमात्मा तक पहुंच गई।

लेकिन किसी के शरीर पर आप रुक जाएं, तो ऐसा जैसे आप कहीं गए और किसी के घर के बाहर ही घूमते रहे और दरवाजे से भीतर प्रवेश ही न किया। तो गलती घर की नहीं है; गलती आपकी है। घर तो बुला रहा था कि भीतर आओ। दीवालें बाहर से दिखाई जो पड़ती हैं, वे घर नहीं हैं।

शरीर तो केवल घर है। उसके भीतर निवास है। उसके भीतर दोहरा निवास है। उसके भीतर व्यक्ति का निवास है, जिसको मैं मन कह रहा हूं। और अगर व्यक्ति के भी भीतर प्रवेश करें, तो अंतर्गर्भ में परमात्मा का निवास है, जिसको मैं आत्मा कह रहा हूं। हर व्यक्ति अपने गहरे में परमात्मा है। अगर थोड़ा उथले में उसको पकड़े, तो व्यक्ति है। और अगर बिलकुल बाहर से पकड़े, तो शरीर है। हर व्यक्ति की तीन स्थितियां हैं। शरीर की भाति वह पदार्थ है। मन की भांति वह व्यक्ति है, चेतन। और परमात्मा की भांति वह निराकार है, महाशून्य है, पूर्ण।

काम, प्रेम, भक्ति, तीन कदम हैं। पर समझ लेना जरूरी है कि जब तक आप किसी के शरीर से आकृष्ट हो रहे हैं,। और ध्यान रहे, आवश्यक नहीं है कि आप जीवित मनुष्यों के शरीर से ही आकृष्ट होते हों। यह भी हो सकता है कि कृष्ण की मूर्ति में आपको कृष्ण का शरीर ही आकृष्ट करता हो, तो वह भी काम है।

कृष्ण का सुंदर शरीर, उनकी आंखें, उनका मोर—मुकुट, उनके हाथ की बांसुरी, उनका छंद—बद्ध व्यक्तित्व, उनका अनुपात भरा शरीर, उनकी नीली देह, वह अगर आपको आकर्षित करती हो, तो वह भी काम है। वह भी फिर अभी प्रेम भी नहीं है; भक्ति भी नहीं है।

और अगर आपको अपने बेटे के शरीर में भी, शरीर भूल जाता हो और जीवन का स्पंदन अनुभव होता हो। खयाल ही न रहता हो कि वह देह है, बल्कि इतना ही खयाल आता हो कि एक अभूतपूर्व घटना है, एक चैतन्य की लहर है। ऐसी अगर प्रतीति होती हो, तो बेटे के साथ भी प्रेम हो गया। और अगर आपको अपने बेटे में ही परमात्मा का अनुभव होने लगे, तो वह भक्ति हो गई।

किस के साथ पर निर्भर नहीं है भक्ति और प्रेम और काम। कैसा संबंध! आप पर निर्भर है। आप किस भांति देखते हैं और किस भांति आप गति करते हैं!

तो सदा इस बात को खयाल रखें, क्या आपको आकृष्ट कर रहा है—देह, पदार्थ, आकार?

पर इसका यह मतलब नहीं है कि मैं कह रहा हूं कि कुछ बुरा है। भला है। इतना भी है, यह भी क्या कम है! कुछ तो ऐसे लोग हैं, जिनको देह भी आकृष्ट नहीं करती। तो भीतर के आकर्षण का तो कोई सवाल ही नहीं उठता। उन्हें कुछ आकृष्ट ही नहीं करता। वे मरे हुए लोग हैं; वे लाश की तरह चलते हैं। उन्हें कुछ खींचता ही नहीं। उन्हें कुछ पुकारता नहीं। उनके लिए कोई आह्वान नहीं मालूम पड़ता। वे इस जगत में अकेले हैं, अजनबी हैं। इस जगत से उनका कहीं कोई संबंध नहीं जुड़ता।

कोई हर्ज नहीं। कम से कम शरीर खींचता है; यह भी तो खबर है कि आप जिंदा हैं। कोई चीज खींचती है। कोई चीज आपको पुकारती है। आपको बाहर बुलाती है। यह भी धन्यभाग है। लेकिन इस पर ही रुक जाना खतरनाक है। आप बहुत सस्ते में अपने जीवन को बेच दिए। आप कौड़ियों पर रुक गए। अभी और आगे यात्रा हो सकती थी। आप दरवाजे पर ही ठहर गए। अभी तो यात्रा शुरू ही हुई थी और आपने समझ लिया कि मंजिल आ गई! आपने पड़ाव को मंजिल समझ लिया। ठहरें; लेकिन आगे बढ़ते रहें।

शरीर पर रुकना मत। और आगे। शरीर भी परमात्मा का है। इसलिए बुरा कुछ भी नहीं है। निंदा मेरे मन में जरा भी नहीं है। लेकिन शरीर शरीर ही है, चाहे परमात्मा का ही हो। वह बाहरी परकोटा है। और आगे। मन भी एक परकोटा है, शरीर से गहरा, शरीर से सूक्ष्म, लेकिन फिर भी परकोटा है। और आगे। और जब हम शरीर और मन दोनों को छोड़कर भीतर प्रवेश करते हैं, तो सब परकोटे खो जाते हैं और सिर्फ आकाश रह जाता है।

इसलिए किसी भी व्यक्ति के प्रेम से परमात्मा को पाया जा सकता है। एक पत्थर की मूर्ति के प्रेम में गिरकर भी परमात्मा को पाया जा सकता है। परमात्मा को कहीं से भी पहुंचा जा सकता है। सिर्फ ध्यान रहे कि रुकना नहीं है। उस समय तक नहीं रुकना है, जब तक कि शून्य न आ जाए और आगे कुछ भी यात्रा ही बाकी न बचे। रास्ता खो जाए, तब तक चलते ही जाना है।

लेकिन कामवासना के संबंध में मनुष्य का मन बहुत रुग्ण है। और हजारों—हजारों साल से आदमी को कामवासना के विपरीत और विरोध में समझाया गया है। शरीर की निंदा की गई है। और कहा गया है कि शरीर जो है वह शत्रु है। उसे नष्ट करना है, उससे दोस्ती तोड़नी है। उससे सब संबंध छोड़ देने हैं। शरीर ही बाधा है, ऐसा समझाया गया है।

इस समझ के दुष्परिणाम हुए हैं। क्योंकि यह नासमझी है, समझ नहीं है। और जो व्यक्ति अपने शरीर से लड़ने में लग जाएगा, वह इसी लड़ाई में नष्ट हो जाएगा। उसकी सारी खोज भटक जाएगी, इसी लडने में नष्ट हो जाएगा।

शरीर भी परमात्मा का है। ठीक आस्तिक इस जगत में ऐसी कोई चीज नहीं मानता, जो परमात्मा की नहीं है। आस्तिक मानता है, सभी कुछ उसका है। इसलिए सभी तरफ से उसकी तरफ जाया जा सकता है। और हर चीज उसका मंदिर है।

जिन्होंने ये बातें समझाई हैं, दुश्मनी की, घृणा की, कडेमनेशन की, शरीर को दबाने, नष्ट करने की, वे पैथालाजिकल रहे होंगे; वे थोड़े रुग्ण रहे होंगे। उनका चित्त थोड़ा मनोविकार से ग्रसित रहा होगा। वे स्वस्थ नहीं थे। क्योंकि स्वस्थ व्यक्ति तो अनुभव करेगा कि शरीर तक भी उसी की खबर है। शरीर भी है इस दुनिया में इसीलिए, क्योंकि परमात्मा है। नहीं तो शरीर भी नहीं हो सकेगा। और शरीर भी जीवित है, क्योंकि परमात्मा की किरण उस तक आती है और उसे छूती है।

इस भाति जब कोई देखने को चलता है, तो सारा जगत स्वीकार योग्य हो जाता है। कामवासना भी स्वीकार योग्य है। वह आपकी शक्ति है। और परमात्मा ने उसका उपयोग किया है, बहुलता से उपयोग किया है।

फूल खिलते हैं; आप जानते हैं क्यों? पक्षी सुबह गीत गाते हैं, जानते हैं क्यों? मोर नाचता है; जानते हैं क्यों? कोयल बहुत प्रीतिकर मालूम पड़ती है, क्यों?

वह सब कामवासना है। मोर नाच रहा है, वह प्रेमी के लिए निमंत्रण है। कोयल गा रही है, वह साथी की तलाश है। फूल खिल रहे हैं, वह तितलियों की खोज है, ताकि फूलों के वीर्यकणों को तितलिया अपने साथ ले जाएं और दूसरे फूलों पर मिला दें।

सेमर का वृक्ष देखा आपने! जब सेमर का फूल पकता है और गिरता है, तो उस फूल के साथ जो बीज होते हैं, उनमें रुई लगी होती है। वनस्पतिशास्त्री बहुत खोजते थे कि इन फूलों के बीज में रुई की क्या जरूरत है? सेमर में रुई की क्या जरूरत है? बहुत खोज से पता चला कि वे बीज अगर सेमर के नीचे ही गिर जाएं, तो सेमर इतना बड़ा वृक्ष है कि वे बीज उसके नीचे सड़ जाएंगे, पनप नहीं सकेंगे। उन बीजों को दूर तक ले जाने के लिए वृक्ष रुई पैदा करता है। ताकि वे बीज रुई में उलझे रहें और हवा के झोंके में रुई वृक्ष से दूर चली जाए। कहीं दूर जाकर बीज गिरे, ताकि नए वृक्ष पैदा हो सकें।

वे बीज क्या हैं? बीज वृक्ष के वीर्यकण हैं, वे कामवासना हैं। अगर सारे जगत को गौर से देखें, तो सारा जगत काम का खेल है। और इस सारे जगत में केवल मनुष्य है, जो काम से प्रेम तक उठ सकता है। वह केवल मनुष्य की क्षमता है।

कामवासना तो पूरे जगत में है। पौधे में, पशु में, पक्षी में, सब में है। अगर आपके जीवन में भी कामवासना ही सब कुछ है, तो आप समझना कि आप अभी मनुष्य नहीं हो पाए। आप पौधे, पशु—पक्षियों के जगत का हिस्सा हैं। वह तो सब के जीवन में है। मनुष्य प्रेम तक उठ सकता है।

मनुष्य की संभावना है प्रेम। जिस दिन आप प्रेमपूर्ण हो जाते हैं, वासना से उठते हैं और प्रेम से भर जाते हैं। दूसरे के शरीर का आकर्षण महत्वपूर्ण नहीं रह जाता। दूसरे के व्यक्तित्व का आकर्षण, दूसरे की चेतना का आकर्षण, दूसरे के गुण का आकर्षण, दूसरे के भीतर जो छिपा है! आपकी आंखें जब देखने लगती हैं शरीर के पार और जब व्यक्ति की झलक मिलने लगती है, तब आप मनुष्य बने।

और जब आप मनुष्य बन जाते हैं, तब आपके जीवन में दूसरी संभावना का द्वार खुलता है, वह है भक्ति। जिस दिन आप भक्त बन जाते हैं, उस दिन आप देव हो जाते हैं; उस दिन आप दिव्यता को उपलब्ध हो जाते हैं।

काम तो सारे जगत की संभावना है। अगर आप भी कामवासना में ही जीते हैं और समाप्त हो जाते हैं, तो आपने कोई उपलब्धि नहीं की; मनुष्य जीवन व्यर्थ खोया। अगर आपके जीवन में प्रेम के फूल खिल जाते हैं, तो आपने कुछ उपलब्धि की।

और प्रेम के बाद दूसरी छलांग बहुत आसान है। प्रेम आंख गहरी कर देता है और हम भीतर देखना शुरू कर देते हैं। और जब शरीर के पार हम देखने लगते हैं, तो मन के पार देखना बहुत कठिन नहीं है। क्योंकि शरीर बहुत ग्रीस, बहुत स्थूल है। जब उसके भीतर भी हम देख लेते हैं, तो मन तो बहुत पारदर्शी है, काच की तरह है। उसके भीतर भी दिखाई पड़ने लगता है। तब हर व्यक्ति भगवान का मंदिर हो जाता है। तब आप जहां भी देखें, आंख अगर गहरी जाए, तो भीतर वही दीया जल रहा है। दीए होंगे करोड़ों, लेकिन दीए की ज्योति एक ही परमात्मा की है।

ओशो रजनीश 



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