रविवार, 2 मई 2021

काम, क्रोध तथा लोभ

 त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।

कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥16-21॥


भावार्थ : काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार ( सर्व अनर्थों के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु होने से यहाँ काम, क्रोध और लोभ को 'नरक के द्वार' कहा है) आत्मा का नाश करने वाले अर्थात्‌ उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए ॥16-21॥


भावार्थ : हे अर्जुन! इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है (अपने उद्धार के लिए भगवदाज्ञानुसार बरतना ही 'अपने कल्याण का आचरण करना' है), इससे वह परमगति को जाता है अर्थात्‌ मुझको प्राप्त हो जाता है ॥16-22॥

एक—एक शब्द को समझने की कोशिश करें। तीन शब्दों को कृष्ण नरक का द्वार कह रहे हैं : काम, क्रोध और लोभ। जिसको मैंने जीवेषणा कहा, वह इन तीन हिस्सों में टूट जाती है।
जीवेषणा का मूल भाव काम है, यौन है, कामवासना है। वैज्ञानिक, जीवशास्त्री कहते हैं कि आदमी में दो वासनाएं प्रबलतम हैं, एक भूख और दूसरा यौन।
भूख इसलिए प्रबलतम है कि अगर भूख का होश आपको न हो, तो आप मर जाएंगे, जी न सकेंगे। एक बच्चा पैदा हो और उसे भूख का पता न चलता हो, तो वह जी नहीं सकेगा। भूख उसके शरीर को बचाने के लिए एकदम जरूरी है। भूख इस बात की खबर है कि शरीर आपसे कहता है, अब मैं बच नहीं सकूंगा, शीघ्र मुझे कुछ दो, मेरी शक्ति खोती है।
तो भूख बचाती है स्वयं के शरीर को। लेकिन अगर भूख ही अकेली हो, तो भी आप कभी के खो गए होते, आप पैदा ही न होते। क्योंकि भूख आपको बचा लेगी, लेकिन आपके बच्चों को नहीं बचा सकेगी। और बच्चों को पैदा करने का कोई भाव नहीं पैदा होगा। भूख में वह कोई शक्ति नहीं है। इसलिए एक दूसरी भूख है, वह है यौन।
पेट की भूख से आप बचते हैं, यौन की भूख से समाज बचता है। ये दो भूखे हैं। और जैसे ही व्यक्ति का पेट भर जाता है, दूसरा जो खयाल आता है, वह सेक्स का है। भूखे आदमी को खयाल चाहे न आए। क्योंकि भूखा आदमी पहले अपने को बचाए, तब समाज को बचाने का सवाल उठता है, तब संतति को बचाने को सवाल उठता है। खुद ही न बचे, तो संतति कैसे बचेगी?
इसलिए धार्मिक लोगों ने सोचा कि उपवास करने से कामवासना से मुक्ति हो जाएगी। वह तरकीब सीधी है, बायोलाजिकल है। क्योंकि जब आदमी भूखा हो, तो वह खुद को बचाने की सोचेगा। भूखे आदमी को कामवासना पैदा नहीं होती। इसलिए अगर आप लंबा उपवास करें, तो कामवासना मर जाती है।
मरती नहीं, सिर्फ छिप जाती है। जब फिर पेट भरेगा, तब फिर कामवासना वापस आ जाएगी। इसलिए वह तरकीब धोखे की है, उससे कुछ हल नहीं होता। जैसे ही समाज समृद्ध होता है, वैसे ही कामवासना तीव्र हो जाती है।
लोग सोचते हैं, अमेरिका में बहुत सेक्यूअलिटी है। ऐसा कुछ भी नहीं है। अमेरिका का पेट भरा है, आपका पेट खाली है। जहां भी पेट भर जाएगा, वहां भूख का तो सवाल खत्म हो गया। इसलिए पूरे जीवन की ऊर्जा सिर्फ सेक्स में दौड़ने लगती है। आपकी दो में दौड़ती है, भूख में और सेक्स में। फिर अगर पेट बिलकुल ही भूखा हो, तो सेक्स में दौड़ना बंद हो जाती है, फिर भूख में ही दौड़ती है, क्योंकि भूख पहली जरूरत है। आप बचें, तो फिर आपके बच्चे बच सकते हैं। जैसे ही पेट भरा कि जो दूसरा खयाल उठता है, वह कामवासना का है।
जीवेषणा दो पहलुओं से चलती है, व्यक्ति बचे और संतति बचे। इसलिए कामवासना बहुत गहरे में पड़ी है। और उससे छुटकारा इतना आसान नहीं, जितना साधु—संत समझते हैं। उससे छुटकारा बड़ी आंतरिक वैज्ञानिक प्रक्रिया के द्वारा होता है, बच्चों का खेल नहीं है। नियम और व्रत लेने से कुछ हल नहीं होता, कसमें खाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। जब तक कि जीवन का रोआं—रोआं रूपांतरित न हो जाए, जब तक बोध इतना प्रगाढ़ न हो कि आप शरीर से अपने को बिलकुल अलग देखने में समर्थ न हो जाएं, तब तक कामवासना पकड़ती ही रहती है।
यह जो कामवासना है, अगर आप इसके साथ चलें, इसके पीछे दौड़े, तो जो एक नई वृत्ति पैदा होती है, उसका नाम लोभ है। लोभ कामवासना के फैलाव का नाम है। एक स्त्री से हल नहीं होता, हजार स्त्रिया चाहिए! तो भी हल नहीं होगा।आप भोग न सकेंगे सारी स्त्रियों को, वह सवाल नहीं है; लेकिन मन की कामना इतनी विक्षिप्त है।
जब तक सारे जगत का धन न मिल जाए, तब तक तृप्ति नहीं है। धन की भी खोज आदमी इसीलिए करता है। क्योंकि धन से कामवासना खरीदी जा सकती है; धन से सुविधाएं खरीदी जा सकती हैं, सुविधाएं कामवासना में सहयोगी हो जाती हैं।
लोभ कामवासना का फैलाव है। इसलिए लोभी व्यक्ति कामवासना से कभी मुक्त नहीं होता। यह भी हो सकता है कि वह लोभ में इतना पड़ गया हो कि कामवासना तक का त्याग कर दे। एक आदमी धन के पीछे पड़ा हो, तो हो सकता है कि वर्षों तक स्त्रियों की उसे याद भी न आए। लेकिन गहरे में वह धन इसीलिए खोज रहा है कि जब धन उसके पास होगा, तब स्त्रियों को तो आवाज देकर बुलाया जा सकता है। उसमें कुछ अड़चन नहीं।
यह भी हो सकता है कि जीवनभर उसको ख्याल ही न आए वह धन की दौड़ में लगा रहे। लेकिन धन की दौड़ में गहरे में कामवासना है।
सब लोभ काम का विस्तार है। इस काम के विस्तार में, इस लोभ में जो भी बाधा देता है, उस पर क्रोध आता है। कामवासना है फैलता लोभ, और जब उसमें कोई रुकावट डालता है, तो क्रोध आता है।
काम, लोभ, क्रोध एक ही नदी की धाराएं हैं। जब भी आप जो चाहते हैं, उसमें कोई रुकावट डाल देता है, तभी आप में आग जल उठती है, आप क्रोधित हो जाते हैं। जो भी सहयोग देता है, उस पर आपको बड़ा स्नेह आता है, बड़ा प्रेम आता है। जो भी बाधा डालता है, उस पर क्रोध आता है। मित्र आप उनको कहते हैं, जो आपकी वासनाओं में सहयोगी हैं। शत्रु आप उनको कहते हैं, जो आपकी वासनाओं में बाधा हैं।
लोभ और क्रोध से तभी छुटकारा होगा, जब काम से छुटकारा हो। और जो व्यक्ति सोचता हो कि हम लोभ और क्रोध छोड़ दें काम को बिना छोड़े, वह जीवन के गणित से अपरिचित है। यह कभी भी होने वाला नहीं है।
इसलिए समस्त धर्मों की खोज का एक जो मौलिक बिंदु है, वह यह है कि कैसे अकाम पैदा हो। उस अकाम को हमने ब्रह्मचर्य कहा है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है, कैसे मेरे जीवन के भीतर वह जो दौड़ है एक विक्षिप्त और जीवन को पैदा करने की, उससे कैसे छुटकारा हो। कृष्ण कहते हैं, ये तीन नरक के द्वार हैं।
हमें तो ये तीन ही जीवन मालूम पड़ते हैं। तो जिसे हम जीवन कहते हैं, कृष्ण उसे नरक का द्वार कह रहे हैं।
आप इन तीन को हटा दें, आपको लगेगा फिर जीवन में कुछ बचता ही नहीं। काम हटा दें, तो जड़ कट गई। लोभ हटा दें, फिर क्या करने को बचा! महत्वाकांक्षा कट गई। क्रोध हटा दें, फिर कुछ खटपट करने का उपाय भी नहीं बचा। तो जीवन का सब उपक्रम शून्य हुआ, सब व्यवहार बंद हुए।
अगर लोभ नहीं है, तो मित्र नहीं बनाएंगे आप। अगर क्रोध नहीं है, तो शत्रु नहीं बनाएंगे। तो न अपने बचे, न पराए बचे, आप अकेले रह गए। आप अचानक पाएंगे, ऐसा जीवन तो बहुत घबड़ाने वाला हो जाएगा। वह तो नारकीय होगा। और कृष्ण कहते हैं कि ये तीन नरक के द्वार हैं! और हम इन तीनों को जीवन समझे हुए हैं।
हमें खयाल भी नहीं आता कि हम चौबीस घंटे काम से भरे हुए हैं। उठते—बैठते, सोते—चलते, सब तरफ हमारी नजर का जो फैलाव है, वह कामवासना का है।
अगर अभी एक हवाई जहाज गिर पड़े, आप उसके टूटे अस्थिपंजर के पास जाएं। उसमें जो यात्री मरे हुए पड़े होंगे, उन मरे हुए यात्रियों में भी आपको सबसे पहले जो चीज दिखाई पड़ेगी, वह यह कि कौन स्त्री है, कौन पुरुष।
आप सब चीजें भूल जाते हैं। दस साल पहले कोई आपको मिला था। नाम भूल गया, शक्ल भूल गई, कुछ भी याद नहीं रहा। लेकिन यह आप कभी नहीं भूलते कि वह स्त्री थी कि पुरुष—यह कभी नहीं भूलते। आपको याद है कि आपको कभी ऐसा शक पैदा हुआ हो कि बीस साल पहले एक आदमी, एक व्यक्ति मिला था, वह स्त्री थी या पुरुष? यह शक आपको हो ही नहीं सकता। इसका मतलब क्या है?
इसका मतलब यह है कि आपके ऊपर गहरे से गहरा जो संस्कार पड़ता है, वह स्त्री और पुरुष होने का पड़ता है। उसका चेहरा कैसा था; भूल गया। उसका नाम क्या था, भूल गया। उसकी जाति क्या थी; भूल गई। वह लंबा था कि ठिगना था, सब भूल गया। लेकिन उसका सेक्स, वह आपको याद है। इसका मतलब यह है कि सबसे गहरी आपकी स्मृति इस बात को पकड़ती है। सबसे ज्यादा चेतना इसके आस—पास घूमती है।
यह जो हमारा काम है, यह कोई क्षण दो क्षण की बात नहीं कि कभी—कभी आपको पकड़ता है। यह चौबीस घंटे आपको घेरे हुए है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। शायद चौबीस घंटे आप काम हैं। फिर इसमें जहां—जहां सहयोग मिलता है, वहां—वहा लोभ पैदा होता है। वह इस काम की धारा में ही लोभ का वर्तुल है।
जैसे नदी बहती है, और उसमें छोटे—छोटे भंवर पैदा हो जाते हैं। तो आपकी काम की जो नदी बहती है, जिस—जिस से सहारा मिलता है, वह आपके लोभ का भंवर हो जाता है। और जिस—जिस से बाधा मिलती है, वह आपके क्रोध का भंवर हो जाता है। फिर उन दोनों की परतें हमारे ऊपर बैठ जाती हैं।
उठते—बैठते, चलते—फिरते, आप खयाल लेते हों, न लेते हों, व्यवहार करते, आपका लोभ और क्रोध काम करता है। आप रास्ते पर चलते आदमी से नमस्कार भी तभी करते हैं, जब कुछ लोभ उससे जुड़ा हो। कोई लोभ—अतीत में, आज या भविष्य में—कहीं न कहीं उससे कुछ लाभ मिल सकता होगा, तो ही आप नमस्कार करते हैं। नहीं तो आप नमस्कार करने वाले भी नहीं। हाथ जोड्ने तक का श्रम आप उठाएंगे नहीं।
और आपकी नजर जहां भी जाती है, वहां तत्क्षण मित्र और शत्रु को पहचानती है। जिससे भी थोड़ी—सी भी विरोध की संभावना है, या थोड़ी—सी भी बाधा पड़ सकती, थोड़ी प्रतियोगिता हो सकती है, उसके प्रति आपका क्रोध जलता ही रहता है। भभक सकता है, किसी भी क्षण मौका मिल जाए तो।
यह जो हमारा क्रोध, लोभ और मोह है, इन्हें आप सिद्धातों की तरह तो समझ ले सकते हैं, लेकिन जीवन व्यवहार में इनके स्वरूप को पहचानना असली सवाल है। और हम उसमें इतने लिप्त होते हैं कि उसे अपने जीवन में पहचानना अक्सर कठिन होता है।
मैंने सुना है कि एक कंजूस आदमी ने अपने बेटे को चश्मा दिलवाया। दूसरे दिन सुबह ही बेटा बाहर बैठा है अपनी किताबें वगैरह लिए। उसके बाप ने भीतर के कमरे से पूछा कि बेटे, क्या कुछ पढ़ रहे हो? उस लड़के ने कहा कि नहीं। तो बाप ने पूछा, तो क्या कुछ लिख रहे हो? उसके लड़के ने कहा, नहीं। तो बाप ने कहा, तो फिर चश्मा उतारकर क्यों नहीं रख देते! लगता है, तुम्हें फिजूलखर्ची की आदत पड़ गई है।
वह जो चश्मा आंख पर रखा है, जब लिख भी नहीं रहे, पढ़ भी नहीं रहे, तो उसका फिजूलखर्च हो रहा है, चश्मे का।
यह हमें हंसने योग्य लग सकता है। लेकिन लोभी आदमी की यह दृष्टि है। वह सब जगह बचा रहा है। और कई दफे ऐसा हो जाता है कि हम लोभ के नाम पर जो बचाते हैं, उसको भी हम अच्छे सिद्धात बता देते हैं।
फ्रायड ने एक बहुत अनूठी बात कही है, उसने कहा है कि आमतौर से जो लोग ब्रह्मचर्य में उत्सुक होते हैं, वे लोभी होते हैं, ग्रीडी होते हैं। वीर्य खो न जाए, इसकी कंजूसी उनको ब्रह्मचारी बना देती है।
यह बड़ी सोचने जैसी बात है। और इधर जैसा मैंने अनेक लोगों को अनुभव किया है, अक्सर यह बात सच है। सौ प्रतिशत सच नहीं है, क्योंकि ब्रह्मचर्य की दिशा में जाने वाला एक प्रतिशत वह आदमी भी होता है, जो कामवासना से मुक्त होकर ब्रह्मचर्य की तरफ जाता है। सौ में निन्यानबे तो वे लोग होते हैं, जो सिर्फ लोभ के कारण ब्रह्मचर्य की तरफ जाते हैं कि कहीं शक्ति खर्च न हो जाए।
आपने शायद इस दिशा से कभी सोचा न हो। और अक्सर आपके साधु—संन्यासी जो आपको समझाते हैं, वे समझाते हैं कि बचाओ अपनी शक्ति को। वीर्य का एक बिंदु खोने का मतलब है, न मालूम कितना सेर खून खो गया। वीर्य का एक बिंदु खो गया, तो न मालूम कितना नुकसान हो गया। वे जो समझा रहे हैं आपको, आपको डरवा रहे हैं; वे आपके लोभ को जगा रहे हैं, वे यह कह रहे हैं कि शक्ति खो न जाए।
इसलिए अक्सर जो मुल्क कंजूस होते हैं, वे ब्रह्मचर्य की बहुत चर्चा करते हैं। और जो जातियां निपट कंजूस होती हैं, वे ब्रह्मचर्य को बड़े जोर से पकड़ लेती हैं।
ये जो ब्रह्मचर्य की इस तरह की बात करने वाले निन्यानबे प्रतिशत लोग हैं, इनमें से अधिक लोग कब्जियत के शिकार होंगे। क्योंकि जैसा वे वीर्य को बचाना चाहते हैं, ऐसा वे सब चीजों को बचाना चाहते हैं। वे मल तक को इकट्ठा करना सीख जाते हैं।
अभी आधुनिक विज्ञान बड़ी महत्वपूर्ण बातें कहता है। वह कहता है, जो व्यक्ति भी कब्जियत का शिकार है, वह यह बता रहा है कि वह मल को भी छोड़ने को राजी नहीं है। उसकी चित्त की दशा सब चीजों को पकड़ लेने की है।
मनोवैज्ञानिक कई अनूठे नतीजों पर पहुंचे हैं, जो धर्म को और धर्म की खोज में जाने वाले लोगों को ठीक से समझ लेना चाहिए। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सब चीजें प्रतीकात्मक हैं। और एक बड़ी अनूठी बात है, जो एकदम से समझ में नहीं आती, लेकिन सही हो सकती है। वे कहते हैं, मल का जो रंग है, पीला रंग, वही सोने का रंग है। और सोने को जो लोग पकड़ते हैं, वे लोग कब्जियत के शिकार हो जाते हैं। वे मल को भी नहीं छोड़ सकते। और धन हाथ का मल ही है, वह मैल ही है, उससे ज्यादा है भी नहीं। लेकिन हर चीज को पकड़ लेना है, रोक लेना, कुछ भी छोड़ते नहीं बनता उनसे। जीवन उनका महारोग हो जाता है।
काम विक्षिप्तता लाता है। लोभ उस विक्षिप्तता को बढ़ाने के लिए दूसरों का सहारा मांगता है, फैलाव मांगता है। क्रोध उस विक्षिप्तता में कोई भी बाधा डाले, उसको नष्ट करने को तैयार हो जाता है।
ये तीनों नरक के द्वार हैं। और हम जीवन में जितने दुख खड़े करते हैं, वह इनके द्वारा ही खड़े करते हैं। नरक कहीं कोई स्थान नहीं है, जहां द्वारों पर लिखा है कि काम, क्रोध, लोभ, कि यहां से भीतर मत जाइए। जहां—जहां ये तीन हैं, वहां—वहां नरक है, वहा—वहां जीवन दुख और संताप से भर जाता है। वहां—वहा जीवन की प्रफुल्लता कुम्हला जाती है, जीवन के फूल वहां नहीं लगते।
आपने कभी कंजूस आदमी को प्रसन्न देखा है? कंजूस प्रसन्न हो ही नहीं सकता। प्रसन्नता में भी उसे लगेगा, कुछ खर्च हो रहा है, कुछ नुकसान हुआ जा रहा है। वह प्रसन्नता तक को रोके रखता है। वह हृदयपूर्वक हंस नहीं सकता; वह कठिन है, मुश्किल है; वह उसके व्यक्तित्व का ढंग नहीं है। वह किसी चीज में शेयर नहीं कर सकता, भागीदार नहीं बना सकता।
इसलिए कंजूस कभी प्रेम नहीं कर सकता, किसी को प्रेम नहीं कर सकता। क्योंकि प्रेम में उसे डर लगता है कि जिससे प्रेम किया 1 उसको कुछ बांटना पड़ेगा, कुछ साझेदारी करनी पड़ेगी।
कंजूस किसी चीज में बंटाव नहीं कर सकता। कंजूस अकेला जीता है, आइसोलेटेड। अपने में बंद हो जाता है, और उसके चारों तरफ कारागृह खड़ा हो जाता है। और अपने चारों तरफ कारागृह खड़ा हो जाए; हम किसी चीज में साझेदारी न कर सकें, मुस्कुरा भी न सकें, बांट भी न सकें......।
जीवन के सब आनंद बंटने से जुड़े हुए हैं। जो आदमी जितना बांट सकता है, जो जितना अपने को फैला सकता है, जो जितना अपने को दूसरों को दे सकता है, उतना ही प्रफुल्लित होता है, उतना ही आनंदित होता है।
अगर परमात्मा परम आनंद है, तो उसका इतना ही अर्थ है कि परमात्मा ने अपने को पूरा का पूरा इस जगत को दे दिया है, इस पूरे अस्तित्व को अपने को दे दिया है। वह सब तरफ फैल गया है। उसे आप कहीं भी खोज नहीं सकते। आप अंगुली करके इशारा नहीं कर सकते कि यह रहा परमात्मा। क्योंकि वह एक जगह होता, तो कंजूस होता, कृपण होता, बंधा होता। वह सब जगह है।
इसलिए आप जहां भी कहें, वहां वह है। और जहां भी आप इशारा करें, वहीं आप पाएंगे कि मुश्किल है, वह सब जगह है। उसने अपने को सब तरह फैला दिया है। वह पूरा बंट गया है कि अब उसके पास कुछ भी नहीं बचा है, अपने जैसा कुछ भी नहीं बचा है, इसलिए परम आनंद है, इसलिए सच्चिदानंद है।
मैंने सुना है कि नानक एक गांव में ठहरे। गांव बड़े भले लोगों का था, बड़े साधुओं का था, बड़े संत—सज्जन पुरुष थे। नानक के शब्द—शब्द को उन्होंने सुना, चरणों का पानी धोकर पीया। नानक को परमात्मा की तरह पूजा। और जब नानक उस गांव से विदा होने लगे, तो वे सब मीलों तक रोते हुए उनके पीछे आए और उन्होंने कहा, हमें कुछ आशीर्वाद दें। तो नानक ने कहा, एक ही मेरा आशीर्वाद है कि तुम उजड़ जाओ।
सदमा लगा। नानक के शिष्य तो बहुत हैरान हुए, कि यह क्या बात कही! इतना भला गांव। लेकिन अब बात हो गई और एकदम पूछना भी ठीक न लगा। सोचेंगे, विचार करेंगे, फिर पूछ लेंगे। फिर दूसरे गांव में पड़ाव हुआ। वह दुष्टों का गांव था। सब उपद्रवी जमीन के वहा इकट्ठे थे। उन्होंने न केवल अपमान किया, तिरस्कार किया, पत्थर फेंके, गालियां दीं, मार—पीट की नौबत खड़ी हो गई; रात रुकने भी न दिया।
जब गांव से नानक चलने लगे, तो वे तो आशीर्वाद मांगने वाले थे ही नहीं। शोरगुल मचाते, गालियां बकते नानक के पीछे गांव के बाहर तक आए थे। गांव के बाहर आकर नानक ने अपनी तरफ से आशीर्वाद दिया कि सदा यहीं आबाद रहो।
तब शिष्यों को मुश्किल हो गया। उन्होंने कहा कि अब तो पूछना ही पड़ेगा। यह तो हद हो गई। कुछ भूल हो गई आपसे। पिछले गांव में भले लोग थे, उनसे कहा, बरबाद हो जाओ! उजड़ जाओ! और इन गुंडे—बदमाशों को कहा कि सदा आबाद रहो, खुश रहो, सदा बसे रहो!
नानक ने कहा कि भला आदमी उजड़ जाए, तो बंट जाता है। वह जहां भी जाएगा, भलेपन को ले जाएगा। वह फैल जाए सारी दुनिया पर। और ये बुरे आदमी, ये इसी गांव में रहें, कहीं न जाएं। क्योंकि ये जहां जाएंगे, बुराई ले जाएंगे।
लेकिन बंटना बुरे आदमी का स्वभाव ही नहीं होता, अच्छा है यह। वह सिकुड़ता है, यह बड़ी कृपा है। भला आदमी बटता है। बांटना उसका स्वभाव है। दान उसके जीवन की व्यवस्था है। यह सवाल नहीं कि वह कुछ देता है कि नहीं देता है; यह उसके रहने—होने का ढंग है कि वह साझेदारी करता है, वह शेयर करता है। ये जो तीन हैं, काम, क्रोध, लोभ, ये सिकोड़ देते हैं। और सिकुड़ा हुआ आदमी नरक बन जाता है।
ये अधोगति में ले जाने वाले हैं, इन तीनों को त्याग देना चाहिए। क्योंकि हे अर्जुन, इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त हुआ पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है, इससे वह परम गति को जाता है अर्थात मुझको प्राप्त होता है।
इन तीन से जो मुक्त हुआ पुरुष है, वही केवल कल्याण का आचरण करता है। कल्याण का अर्थ है, जिससे हित हो, मंगल हो; जिससे आनंद बढ़े, फैले।
लेकिन जो आदमी कामवासना से भरा है, लोभ और क्रोध से भरा है, उसका आचरण कल्याण का नहीं हो सकता। उसका आचरण अहंकार—केंद्रित होगा। वह अपने लिए सबको मिटाने की कोशिश करेगा। वह चारों तरफ विध्वंस फैलाएगा। उसकी आकांक्षा यही है किं सब मिट जाएं, मैं अकेला रहूं। क्योंकि जब तक दूसरा है, तब तक मैं चाहे बांटू या न बांटू वह इस जगत की संपत्ति में से बंटाव तो कर ही रहा है। जब तक दूसरा है, कम से कम श्वास तो ले ही रहा है। तो इतनी आक्सीजन जिस पर मैं कब्जा कर सकता था, वह कब्जा कर रहा है। तब तक सूरज की रोशनी तो पी ही रहा है, सूरज पूरा का पूरा मेरा हो सकता था, उसमें वह बंटाव कर रहा है। तब तक आकाश में पूर्णिमा का चांद निकलता है, तो वह भी प्रसन्न होता है। उतनी मेरी प्रसन्नता खो रही है।
वह जो आदमी काम, क्रोध, लोभ से भरा हुआ है, उसका मौलिक आधार जीवन का यह है कि मैं अकेला रहूं और सब मिट जाएं। वह नहीं मिटा पाता, यह दूसरी बात है। कोशिश पूरी कर रहा है। हजारों दफे उसने प्रयोग किए हैं कि वह सबको पोंछकर समाप्त कर दे, अकेला रहे। कल्याण तो उससे हो ही नहीं सकता।
कल्याण तो उसी व्यक्ति से हो सकता है, सब रहें, चाहे मैं मिट जाऊं। मैं चाहे खो जाऊं, चाहे मेरी कोई जगह न रह जाए, लेकिन शेष सब रहे। फूल और जोर से खिले, चांद और जोर से निकले, लोग और आनंदित हों, जीवन की बांसुरी बजती रहे, मेरे होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। अगर मैं बाधा बनता हूं तो हट जाऊं। अगर सहयोग बन सकता हूं तो ही रहूं।
लेकिन ये तीन द्वार जब बंद हो जाएं, तभी कल्याण का जीवन शुरू होता है।
यह जो शब्द कल्याण है, मंगल है, यह बड़ा समझने जैसा है। इसका अर्थ दूसरे का सुख है। और दूसरे के सुख को अगर आप सोचना भी शुरू कर दें.....।
हम तो कंसीडर भी नहीं करते। दूसरा है, यह भी विचार नहीं करते। दूसरे के जीवन में भी सुख की कोई संभावना हो सकती है, दूसरे को भी सुख मिलना चाहिए, यह तो हमारे मन में कभी कौंधता ही नहीं।
महावीर ने कहा है, जैसे तुम जीना चाहते हो, वैसे ही सभी जीना चाहते हैं। जैसे तुम सुख पाना चाहते हो, वैसे सभी सुख पाना चाहते हैं। तो जो तुम अपने लिए चाहते हो, वह सबके लिए चाहो। जीसस ने कहा है, जो तू न चाहता हो कि लोग तेरे प्रति करें, वह तू कभी भूलकर भी दूसरे के प्रति मत करना। यह कल्याण का सूत्र हुआ। और जो तू चाहता हो कि लोग तेरे प्रति करें, वही तू उनके प्रति करना। क्योंकि जो तेरे भीतर जीवन की छिपी चाह है, वही दूसरों के भीतर भी जीवन की छिपी चाह है। और तेरे भीतर जो जीवन है और दूसरे के भीतर जो जीवन है, वह एक ही का विस्तार है।
कल्याण का अर्थ है कि मेरे भीतर और आपके भीतर जो है, वह एक ही चेतना का फैलाव है। और अगर मैं आपका सुख चाहता हूं तो वस्तुत: यही मैं अपने सुख का आधार रख रहा हूं। और अगर मैं आपका दुख चाहता हूं तो मैं अपने ही हाथ—पैर तोड़ रहा हूं, क्योंकि आप मेरे ही फैले हुए रूप हैं। अगर आपको मैं दुखी करता हूं तो मैं अपने ही दुख का इंतजाम कर रहा हूं। देर—अबेर यह दुख मुझे पकड़ लेगा। आपको सुख दे रहा हूं तो देर—अबेर यह सुख मेरे पास आ जाएगा।
एक बार जिस आदमी को यह समझ में आ गया कि इस जगत में अलग—अलग कटे —कटे लोग नहीं हैं; हम अलग—अलग आयलैंड नहीं हैं, द्वीप नहीं हैं, हम एक महाद्वीप हैं। और अगर हमारे बीच में फासला दिख रहा है, तो वह फासला भी बीच में आ गए पानी की दीवार का है। नीचे हम जुड़े हैं, नीचे जमीन एक है। और उस पानी की दीवार का कोई बहुत मूल्य नहीं है। पानी की भी कोई दीवार होती है?
यह जो मेरे और आपके बीच में दीवार है, यह पानी की भी नहीं, हवा की ही दीवार है। इस दीवार के दोनों तरफ जिस हवा से आप श्वास ले रहे हैं, उसी हवा से मैं श्वास ले रहा हूं हम दोनों जुड़े हैं। हम सब जुड़े हैं। इस संयुक्तता का बोध आ जाए, तो जीवन में कल्याण का भाव आता है।
और जो काम, क्रोध, लोभ से भरा है, उसे यह संयुक्तता का भाव नहीं आ सकता। उसके लिए सब दुश्मन हैं, सब प्रतियोगी हैं। जो चीजें वह छीनना चाह रहा है, वही दूसरे छीनना चाह रहे हैं। इसलिए दूसरों का सुख वह कैसे चाह सकता है! दूसरों के लिए आशीर्वाद उससे नहीं बह सकता। अभिशाप ही दूसरों के लिए उसके पास है।
और जो पुरुष शास्त्र की विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से बर्तता है, वह न तो सिद्धि को प्राप्त होता है और न परम गति को और न सुख को ही प्राप्त होता है।
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌॥16-23॥

भावार्थ : जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परमगति को और न सुख को ही ॥16-23॥

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥16-24॥

भावार्थ : इससे तेरे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है। ऐसा जानकर तू शास्त्र विधि से नियत कर्म ही करने योग्य है ॥16-24॥

इस बात को समझना बड़ा जरूरी है और गहरा है।
जो व्यक्ति शास्त्र की विधि को त्यागकर.....।
शास्त्र की विधि क्या है न: शास्त्र क्या है? इसे समझें।
शास्त्र का अर्थ है, सदियों—सदियों में, सनातन से जिन्होंने जाना है, उनका सार निचोड़। जिन्होंने जीवन के आनंद को अनुभव किया है, जीवन के वरदान की वर्षा जिन पर हुई है, उन्होंने जो कहा है, उसका जोड़।
आज कठिन हो गई है यह बात। ऐसी कठिन उस दिन बात न थी, जब कृष्ण ने यह कहा था। उस दिन हर कोई शास्त्र नहीं लिखता था। कोई सोच ही नहीं सकता था कि बिना जाने मैं लिखूं। वह सोचने के बाहर था। क्योंकि बिना जाने लिखने में कोई अर्थ भी नहीं था। शास्त्रों पर किसी के नाम भी नहीं थे। वह कोई व्यक्तियों की संपदा भी नहीं थी। अनंत— अनंत काल में, अनंत—अनंत लोगों ने जो जाना है, उस जानने को लोग निखारते गए। शास्त्र संपदा थी सबके अनुभव की।
वेद हैं, वे किसी एक व्यक्ति के वचन नहीं हैं। अनंत—अनंत ऋषियों ने जो जाना है, वह सब संगृहीत है। उपनिषद हैं, वे किसी एक व्यक्ति के लिखे हुए विचार नहीं हैं। वह अनंत— अनंत लोगों ने जाना है, उनका सारभूत है। कुछ पक्का पता लगाना भी मुश्किल है कि किसने जाना है। व्यक्ति खो गए हैं, सिर्फ सत्य रह गए हैं। कृष्ण ने जब यह बात कही, तब शास्त्र का अर्थ था, जाने हुए लोगों के वचन। इन वचनों को त्यागकर जो अपनी इच्छा से बर्तता है, वह सिद्धि को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि एक व्यक्ति का अनुभव ही कितना है! एक व्यक्ति की छोटी—सी बुद्धि कितनी है! वह ऐसे ही है, जैसे सूरज निकला हो, और हम अपना टिमटिमाता दीया लेकर रास्ता खोज रहे हैं।
एक व्यक्ति का अनुभव बहुत छोटा है। एक व्यक्ति का होश बहुत छोटा है। अपने ही अनुभव से जो चलने की कोशिश करेगा, वह अनंत काल लगा देगा भटकने में। लेकिन जाने हुए पुरुषों का, जागे हुए पुरुषों का जो वचन है, उसका सहारा लेकर जो चलेगा, वह व्यर्थ के भटकाव से बच जाएगा।
रास्ता छोटा हो सकता है, अगर थोड़ा—सा नक्शा भी हमारे पास हो। शास्त्रों का अर्थ है, नक्शे। शास्त्रों को सिर पर रखकर बैठ जाने से कोई मंजिल पर नहीं पहुंचता। लेकिन वे नक्शे हैं, उन नक्शो का अगर ठीक से उपयोग करना समझ में आ जाए, तो आप बहुत—सी भटकन से बच सकते हैं। जहां जो भूल—चूक जिन लोगों ने पहले की, उसको आपको करने की जरूरत नहीं है।
शास्त्र कोई बंधे—बंधाए उत्तर नहीं हैं; शास्त्र तो केवल मार्ग को खोजने के इशारे हैं। और उन इशारों को जो ठीक से समझ लेता है और उनके अनुसार चलता है, वह सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। और जो उनको त्याग देता है, वह न तो सिद्धि को प्राप्त होता है, न परम गति को, और न सुख को ही प्राप्त होता है। वह भटकता है।
यह आज के युग में बात और कठिन हो गई, क्योंकि आज शास्त्र बहुत हैं।  हजारो शास्त्र प्रति सप्ताह लिखे जाते हैं। पुस्तकें बढ़ती चली जाती हैं। और कुछ पक्का पता लगाना मुश्किल है, कौन लिख रहा है, कौन नहीं लिख रहा है। पागल भी लिख रहे हैं। उनको राहत मिलती है। उनका पागलपन निकल जाता है, किताब में रेचन हो जाता है। फिर उन पागलों की लिखी किताबों को दूसरे पागल पढ़ रहे हैं। उनका तो रेचन हो जाता है, इनकी खोपड़ी भारी हो जाती है। अब तय करना मुश्किल है। क्योंकि बहुत—से सूत्र खो गए।
पहला सूत्र तो यह खो गया कि बिना जागे कोई व्यक्ति न लिखे; बिना जागे कोई व्यक्ति न बोले, बिना जाग्रत हुए कोई किसी दूसरे को सलाह न दे। यह पुराने समय में सोचना ही असंभव था कि कोई बिना जागे हुए किसी को सलाह दे देगा।
लेकिन आज कठिन है। आज तो सोए आप कितने ही हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, आप सलाह दे सकते हैं। सोया हुआ आदमी और भी उत्सुकता से सलाह देता है। वह चाहे अपने सपने में बड़बड़ा रहा हो, लेकिन उसको अनुयायी मिल जाते हैं। लोग उसके पीछे चलने लगते हैं। जितने जोर से कोई चिल्ला सकता हो, उतना ज्यादा पीछे अनुसरण करने वाले मिल जाते हैं।
आज कठिन है। लेकिन आज भी व्यक्ति अपनी ही खोजबीन से चले, तो बहुत समय व्यय होगा, बहुत जन्म खो जाएंगे। आज भी व्यक्ति को शास्त्र की खोज करनी चाहिए। लेकिन आज की कठिनाई को ध्यान में रखकर मैं कहूंगा कि आज शास्त्र से ज्यादा सदगुरु..।
कृष्ण ने जब कहा, तब शास्त्र सदगुरु का काम करता था, क्योंकि सिर्फ सदगुरुओं के वचन ही लिपिबद्ध थे। आज मुश्किल है। छापेखाने ने पागलखाने के द्वार खोल दिए हैं। कोई भी लिख सकता है, कोई भी किताबों का प्रचार कर सकता है, कुछ अड़चन नहीं है अब। आज शास्त्र उतना सहयोगी नहीं हो सकता। आज शास्त्र को भी पहचानना हो, तो भी सदगुरु के ही माध्यम से पहचाना जा सकता है।
एक बहुत पुरानी कहावत है, सतयुग में शास्त्र, कलियुग में गुरु। उसमें बड़ा अर्थ है। क्योंकि कलियुग में इतने शास्त्र हो जाएंगे कि यही तय करना मुश्किल हो जाएगा, कौन—सा शास्त्र है और कौन—सा शास्त्र नहीं है! और कौन आपको कहे? अब तो कोई निजी आत्मीय संबंध बन जाए आपका किसी जाग्रत पुरुष से, तो ही रास्ता बन सकता है। क्योंकि उसके माध्यम से शास्त्र भी मिल सकेगा। और जीवित पुरुष मिल जाए, तो शास्त्र की जरूरत भी नहीं रह जाती।
लेकिन शास्त्र का मतलब ही इतना है, जागे हुए पुरुषों के वचन, चाहे वे जिंदा हों, चाहे जिंदा न हों। अगर आपको जीवन की बहुत—सी अड़चन, भटकन, व्यर्थ खोजबीन से बचना हो, भूल—चूक में बहुत समय खराब न करना हो, तो जरूरी है कि जिसने जाना हो, उसकी बात समझें; जिसने पहचाना हो, उसकी बात समझें।
और आप कैसे पहचानेंगे किसी व्यक्ति को कि उसने जान लिया, पहचान लिया? एक ही कसौटी है कि जिस व्यक्ति को आप देखें कि उसकी कोई खोज नहीं अब, उसका कोई प्रश्न नहीं अब। अब उसको पाने का कुछ, आपको दिखाई में न पड़ता हो। कोई व्यक्ति लगता हो कि ऐसे जी रहा है, जैसे उसने सब पा लिया। जो सब तरफ से तृप्त हो, जिसकी तृप्ति का वर्तुल बंद हो गया हो, जो। कहीं से खुलता न हो अब। तो ऐसे व्यक्ति की सन्निधि खोजना जरूरी है। आपके लिए वही शास्त्र होगा। उसके माध्यम से आपको वेद, उपनिषद, कुरान और बाइबिल के द्वार भी खुल जाएंगे।
इससे तेरे लिए उस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है, ऐसा जानकर तू शास्त्र—विधि से नियत किए हुए कर्म को ही करने के लिए योग्य है।
अर्जुन क्षत्रिय है, योद्धा है। कृष्ण शास्त्र की बात कह रहे हैं, क्योंकि शास्त्र उस दिन तय किया था, समाज चार हिस्सों में विभाजित था। बड़ी कुशलता से विभाजित किया था। कुशलता अनूठी है। हिंदुओं की खोज बड़ी गहरी है।
आज पाच हजार साल हो गए। पांच हजार साल में दुनिया में बहुत तरह के लोगों ने मनुष्यों को बांटने की कोशिश की है, कि कितने प्रकार के मनुष्य हैं? अभी अत्याधुनिक कार्ल गुस्ताव वा की कोशिश है, पश्चिम के बड़े मनोवैज्ञानिक की। वह भी मनुष्यों को चार हिस्सों में ही बांट पाता है। इन पांच हजार सालों में दुनिया के कोने—कोने में अलग—अलग जातियों ने, अलग—अलग विचारकों ने खोज की है कि आदमी कितने प्रकार के हैं। वह हमेशा चार के ही आकड़े पर आ जाते हैं।
हिंदुओं ने बड़ी पुरानी खोज की थी कि व्यक्ति चार तरह के हैं। और उन चार तरह के व्यक्तियों को बांट दिया था। और न केवल ऊपर से बांट दिया था, बल्कि ऐसे समाज की संरचना की थी कि आप मर भी जाएं आज, तो कल आपकी आत्मा अपने ही टाइप की जाति को खोज ले। वह बड़ी गहरे व्यूह की रचना थी।
ब्राह्मण मरकर ब्राह्मण घर में जन्म ले सके और अनंत जन्मों में ब्राह्मण घरों में तैर सके, तो उसका ब्राह्मणत्व सिद्ध होता चला जाएगा। और किसी भी जन्म में, शास्त्र ने ब्राह्मण के लिए जो कहा है, वह उसका मार्ग होगा।
अर्जुन क्षत्रिय है। आज के क्षत्रिय को तय करना मुश्किल है। — आज कौन क्षत्रिय है, तय करना मुश्किल है। क्योंकि शास्त्र की वह व्यवस्था टूट गई। और समाज का वह जो ढंग था, चार विभाजन स्पष्ट कर दिए थे, जिनमें कोई लेन—देन नहीं था एक तरह का, जिनमें आत्माएं एक—दूसरे में प्रवेश नहीं कर पाती थीं, वह आज संभव नहीं है। आज सब अस्तव्यस्त हो गया है। और समाज—सुधार के नाम पर नासमझ लोगों ने बड़ी उपद्रव की बातें खड़ी कर दी हैं। उन्हें कुछ पता भी नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं।
लेकिन उस दिन जिस दिन अर्जुन से कृष्ण ने यह बात कही, सब स्थिति साफ थी।
अर्जुन क्या कह रहा है? अर्जुन ब्राह्मण की माग कर रहा है। वह इस ढंग का व्यवहार कर रहा है, जो ब्राह्मण को करना चाहिए। वह जो प्रश्न उठा रहा है, वे ब्राह्मण के हैं। यह हिंसा होगी, लोग मर जाएंगे, इस राज्य को पाकर क्या करूंगा; किसके लिए पाऊं; इससे तो बेहतर है, मैं सब छोड़ दूं और संन्यस्त हो जाऊं। वह प्रश्न उठा रहा है, जो ब्राह्मण—चरित्र के व्यक्ति के लिए उचित है। और अगर अर्जुन ब्राह्मण होता, तो कृष्ण ने यह गीता उससे नहीं कही होती।
कृष्ण यह गीता कहने को मजबूर हुए क्योंकि अर्जुन का जो टाइप था, उसके जो व्यक्तित्व का ढांचा था, वह क्षत्रिय का था। और वह कोई एक जन्म की बात न थी। अर्जुन अनंत जन्मों से क्षत्रिय था। बहुत—बहुत बार क्षत्रिय रह चुका था। क्षत्रिय होना उसका गहरा संस्कार था। वह उसके रोएं—रोएं में समाया था। उसकी आत्मा क्षत्रिय की थी।
इसलिए यह अगर ब्राह्मण भी बन जाए, तो इसका ब्राह्मण होना ऊपर—ऊपर होगा, धोखा होगा, पाखंड होगा। यह जनेऊ वगैरह पहन ले और चंदन—तिलक लगा ले और बैठ जाए तो भी यह जंचेगा नहीं। इसके भीतर जो ढंग है, वह योद्धा का है। यह ब्राह्मण होने के योग्य नहीं है। यह ब्राह्मण हो भी नहीं सकता। क्योंकि ब्राह्मण होना कोई एक क्षण की बात नहीं है। इसके अनंत जन्मों के संस्कार साफ करने होंगे, तब यह ब्राह्मण हो सकता है। यह कोई एक क्षण का निर्णय नहीं है कि हमने तय किया और हम हो गए।
जैसे आज आप तय कर लें कि स्त्री होना है, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ेगा आपके तय करने से। आप स्त्री के कपड़े पहन सकते हैं, चाल—ढाल थोड़ी सीख सकते हैं। लेकिन स्त्रियां भी आप पर हसेंगी। रहेंगे आप पुरुष ही। वह स्त्री होना ऊपर का पाखंड हो जाएगा और सिर्फ हंसी योग्य हो जाएंगे।
कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि तू शास्त्र की तरफ देख, क्षत्रिय के लिए शास्त्र ने क्या कहा है! तू उससे यहां—वहा मत हट, क्योंकि वही तेरी सिद्धि है। क्षत्रिय होकर ही और क्षत्रिय के धर्म का ठीक—ठीक अनुसरण करके ही तेरा मोक्ष तुझे मिलेगा।
तो क्षत्रिय की क्या सिद्धि होगी? और क्या उसका मार्ग होगा?
कृष्ण कह रहे हैं, क्षत्रिय सोचता ही नहीं कि कोई मरता है; क्षत्रिय सोचता ही नहीं कि भविष्य में क्या होगा। क्षत्रिय सोचता ही नहीं। क्षत्रिय लड़ना जानता है। लड़ना उसका ध्यान है। वह युद्ध में ध्यानस्थ हो जाता है। वह न यह जानता है कि मैं मर रहा हूं कि दूसरा मर रहा है; वह युद्ध में निर्भय हो जाता है। युद्ध के क्षण में उसकी चित्त की दशा न तो मारने के, न तो मरने के विचार से डोलती। वह निश्चित खड़ा हो जाता है। कौन मरता है, यह गौण है। युद्ध उसके लिए एक खेल है, वह अभिनय है, वह उसके लिए कोई बहुत गंभीरता का प्रश्न नहीं है। वह दोपहर लड़ेगा, सांझ तक लड़ेगा, सांझ बात भी नहीं करेगा कि युद्ध में क्या हुआ। रात विश्राम करेगा। रात उसकी नींद में खलल भी नहीं पड़ेगी कि दिनभर इतना युद्ध हुआ, इतने लोग कटे। वह रात मजे से सोएगा। सुबह उठकर फिर युद्ध की तरफ चल पड़ेगा। युद्ध उसके लिए एक खेल और अभिनय है।
कृष्ण कह रहे हैं कि तू इस पूरे युद्ध को एक नाटक से ज्यादा मत जान। और तेरी जो शिक्षा है, तेरी जो दीक्षा है, तेरा जो संस्कार है, शास्त्र जो कहता है, तू उसके हिसाब से चुपचाप चल। तू अपना कर्तव्य पूरा कर। तू चिंता में मत पड़। यह चिंता तुझे शोभा नहीं देती। अगर इस चिंता में—यह करूं या वह करूं; हं। या न, अच्छा या बुरा—तू उलझ गया, तो तू अपने धर्म से च्‍यूत हो जाएगा। और तब तुझे अनंत जन्म लग जाएंगे। और यहां इस युद्ध के क्षण में इसी क्षण तू मुक्त हो सकता है। बस इतना ही तुझे करना है कि तू अपने कर्ता का भाव छोड़ दे।
क्षत्रिय वही है, जो कर्ता नहीं है।
जापान में क्षत्रियों का एक समूह है, समुराई। वह अब भी क्षत्रिय है। और अनेक पीढ़ियों से समुराई तैयार किए गए हैं। क्योंकि हर कोई समुराई नहीं हो सकता, बाप समुराई रहा हो, तो ही बेटा समुराई हो सकता है।
हम, जैसा कि फलों की फसल तैयार करते हैं, तो अच्छे फलों का बीज चुनते हैं। फिर और उनमें से अच्छे फल, फिर उनमें से अच्छे फल। फिर फल बड़ा होता जाता है, सुस्वादु होता चला जाता है।
तो अनेक पीढ़ियों में समुराई चुने गए हैं। वह क्षत्रियों की जाति है। समुराई का एक ही लक्ष्य है कि जब मैं युद्ध में लडूं? तो युद्ध तो हो, मैं न रहूं। मेरी तलवार तो चले, लेकिन चलाने वाला न हो। तलवार जैसे परमात्मा के हाथ में आ जाए, वही चलाए; मैं सिर्फ निमित्त हो जाऊं।
इसलिए कहते हैं कि अगर दो समुराई युद्ध में उतर जाएं, तो बड़ा मुश्किल हो जाता है कि कौन जीते, कौन हारे। क्योंकि दोनों ही अपने को मिटाकर लड़ते हैं। दोनों की तलवारें चलती हैं; लेकिन दोनों की तलवारें परमात्मा के हाथ में होती हैं। कौन हारे, कौन जीते।
समुराई—सूत्र है कि वही आदमी हार जाता है, जो थक जाता है जल्दी और वापस अपने अहंकार को लौट जाता है। जिसको भाव आ जाता है मैं का, वह हार जाता है। जो आदमी धैर्यपूर्वक परमात्मा पर छोड्कर चलता जाता है, उसके हारने का कोई भी उपाय नहीं है। कृष्ण कह रहे हैं, तेरे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है, ऐसा जानकर तू शास्त्र—विधि से नियत किए हुए कर्म को ही करने के लिए योग्य है।
यह कर्तव्य और अकर्तव्य की व्याख्या कृष्ण ने की। क्या करने योग्य है, क्या करने योग्य नहीं है! क्या त्याग देना है, और क्या जीवन में बचा लेना है! कौन—से नरक के द्वार हैं, वे बंद हो जाएं, तो कैसे मोक्ष का द्वार खुल जाता है!
ये सारी बातें आपने सुनीं। ये बातें अर्जुन को कही गई हैं। इन पर आप सोचना। अगर आपकी चित्त—दशा अर्जुन जैसी हो, तो ये बातें आपके लिए बिलकुल सीधा मार्ग बन जाएंगी। अगर आपकी चित्त—दशा अर्जुन जैसी न हो, और आप कोई संबंध ही न जोड़ पाते हों अपने और अर्जुन में, तो आप इन बातों को अपने पर ओढ़ने की कोशिश मत करना। क्योंकि वह भूल हो जाएगी वही, जो अर्जुन कर रहा था।
इन बातों को समझना, सोचना, इनके साथ—साथ अपने स्वभाव को समझना और सोचना। दोनों को समानांतर रखना। अगर उनमें कोई मेल उठता हो, अगर दोनों में एक—सी धुन बजती हो, अगर दोनों में संयोग बनता हो, तो ये सूत्र आपके काम आ सकते हैं।
लेकिन गीता में करीब—करीब कृष्ण ने वे सारे सूत्र कह दिए हैं, जितने प्रकार के मनुष्य हैं। वे सारे सूत्र कह दिए हैं। इसलिए गीता इतनी लंबी चली। अर्जुन के बहाने कृष्ण ने पूरी मनुष्य जाति को उदबोधित किया है।
तो चाहे इस अध्याय में, चाहे किसी और अध्याय में, आपके लिए भी कहे गए वचन हैं। इतनी थोड़ी—सी मेहनत आपको करनी पड़ेगी कि अपने को थोड़ा समझें और अपने योग्य, अपने अनुकूल वचनों को थोड़ा पहचानें। और उचित ही है कि इतनी मेहनत आप करें। क्योंकि बिलकुल चबाया हुआ भोजन मिल जाए, तो आत्मघाती है। थोड़ा आप चबाएं और पचाएं। और यहां उत्तर बंधे हुए नहीं हैं, उत्तर खोजने पड़ेंगे।
मैंने सुना है, एक अदालत में मुकदमा चला एक आदमी पर, उसने हत्या की थी। और एक गवाह को मौजूद किया गया, गांव के एक किसान को। और उस गवाह से वकील ने पूछा कि जब रामू ने पंडित जी पर कुल्हाड़ी से हमला किया, तो तुम कितनी दूर खड़े थे? उसने कहा कि छ: फीट साढ़े छ: इंच; उस किसान ने कहा। वकील भी चौंका, अदालत भी होश में आ गई, मजिस्ट्रेट भी चौंका। और वकील ने कहा, तुमने तो इस तरह बताया है कि जैसे तुमने पहले से ही सब नाप—जोखकर रखा हो। छ: फीट साढ़े छ: इंच!
उस किसान ने कहा, मुझे पता था कि कोई न कोई मूर्ख आदमी यह सवाल मुझसे यहां जरूर पूछेगा; तो यहां आने के पहले पहला काम मैंने यह किया। बिलकुल नापकर आया हूं।
इस तरह बंधे हुए सवाल और उत्तर आपको गीता में नहीं मिल सकते। सब जवाब वहां मौजूद हैं, सब सवालों के जवाब मौजूद हैं। लेकिन पहले एक तो आपको अपना सवाल पहचानना पडेगा, फिर अपने सवाल को लेकर गीता में खोजना पड़ेगा। जवाब आपको मिल जाएगा। और वह जवाब जब तक न मिले, तब तक गीता को ऊपर से ओढने की कोशिश मत करना, क्योंकि वह खतरनाक हो सकती है।
गीता एक आदमी के लिए कही गई है, लेकिन एक आदमी के बहाने सब आदमियों से कही गई है। इसलिए उसमें बहुउत्तर हैं, अनंत उत्तर हैं, आपका उत्तर भी वहा है। और आप अपने को पहचानते हों, तो उस उत्तर को खोज ले सकते हैं। फिर वही उत्तर आपके जीवन की साधना बन सकता है।
ओशो रजनीश 



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