सच्चे प्रेम में ईष्या की कोई झलक ही नहीं होती। सच्चे प्रेम में तो श्रद्धा अनंत होती है। मगर सच्चा प्रेम सच्चे प्रीतम से ही हो सकता है। यहां कैसे भरोसा करो किसी पर! जिस पति पर तुमने भरोसा किया, जिस पत्नी पर तुमने भरोसा किया, उसकी सांस बंद हो जाए कल, जीवन खो जाए--क्या करोगे? और मन ऐसा चंचल है--आज तुमसे लगाव है, कल किसी और से हो जाए! मन इतना चंचल है! कल कोई और धनी मिल जाए; कोई और सुंदर देह का व्यक्ति मिल जाए; कल कोई और रूपवान मिल जाए--तो बात खत्म हो गई।
परमात्मा से और रूपवान तो पाया नहीं जा सकता; और परमात्मा से और धनी भी नहीं पाया जा सकता। परमात्मा से और ऊपर तो कोई है नहीं। इसलिए परमात्मा के साथ जो प्रेम बन जाता है उसमें कोई प्रतिस्पर्धा, कोई ईष्या नहीं जन्मती।
और फिर परमात्मा के साथ, यह भी भय नहीं है कि वह तुम्हें छोड़ दे। तुम्हें पकड़े ही हुए है। तुम चाहे उसे पकड़ो या न पकड़ो--उसका हाथ तुम्हारे हाथ में है ही। तुम जब सोचते हो तुमने परमात्मा का ध्यान भी नहीं किया, विचार भी नहीं किया--तब भी वही तुम्हें सम्हाले हुए है। अन्यथा कौन तुम्हारे भीतर श्वास लेगा? कौन तुम्हारे खून को दौड़ाएगा रगों में? कौन तुम्हारे हृदय में धड़केगा? तुम चाहे उसे इनकार करो; परमात्मा ने तुम्हें इनकार कभी नहीं किया है। इसलिए जिस दिन तुम भी स्वीकार कर लोगे, वह तो स्वीकार किए ही है--जिस दिन ये दोनों स्वीकृतियां मिल जाएंगी, उसी दिन महामिलन हो जाता है।
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