शुक्रवार, 16 सितंबर 2022

 श्रीरामचन्द्रजी का बन्धु-प्रेम


रामजी का बन्धु-प्रेम भी अलौकिक हैं। ऐसा बन्धु-प्रेम भी तुमको जगत में कहीं देखने को नहीं मिलेगा। महाराज दशरथ ने जब रामजी का राज्याभिषेक करना निश्चित किया तो रामजी ने लक्ष्मण से कहा

लक्ष्मण ! यह राज्य तुम्हारा है। इसके कर्ता-भोक्ता तुम ही हो मैं तो निमित्त मात्र हूँ । लक्ष्मण ! तुम तो मेरे बाह्य प्राण हो । मेरी दूसरी अन्तरात्मा हो । यह जीवन और यह राज्य तुम्हारे ही लिए है ।

रामजी वन में पधारे तथा रामजी के पीछे-पीछे लक्ष्मण भी चल पड़े। इसमें क्या आश्चर्य है ? थोड़ा विचार करो। कैकेयी ने बनवास तो रामजी को दिया था लक्ष्मण जी को दिया नहीं। फिर भी रामजी वन में पधारे तो लक्ष्मण जी माता-पिता और पत्नी का त्याग करके बड़े भाई के पीछे वन गये। रामजी का प्रेम हो ऐसा है कि राम-वियोग में लक्ष्मण अयोध्या में रह सकते ही नही। लक्ष्मण पत्नी को छोड सकते हैं, माता-पिता का त्याग कर सकते है, राजमहल के सुख का त्याग कर सकते है परन्तु ये बड़े भाई को छोड नहीं सकते । राम-वियोग लक्ष्मण से सहन हो सकता नहीं । जहाँ श्रीराम है वही लक्ष्मणजी हैं ।


रामजी ने खेल-कूद में भी छोटे भाइयों का दिल कभी नही दुखाया । खेलने मे भी उन्होने कभी अपनी विजय नही की जानबूझकर पराजय ही ली। रामजी ऐसी रीति से खेलते थे कि रामजी की हार हो जाय और लक्ष्मण भरत की जीत हो खेल में भी कभी  लक्ष्मण भरत को उन्होंने नाराज नहीं किया। रामजी विचारते है कि 'भरत हमारा भाई है, मेरे भाई की हार, मेरी हार है मेरे भाई की जीत मेरी जीत है। कौशल्या से रामचन्द्रजी  कहते हैं माँ मेरा भाई भरत छोटा है परन्तु बहुत होशियार है माँ! हम खेलते  रहे तो मेरी हार हो गयी और मेरा भरत जीत गया । भरतजी की आँख सजल हो जाती है और वे कौशल्या से कहते हैं 'माँ मेरे बड़े भाईका मेरे ऊपर बहुत प्यार है. इससे मां यह जान-बूझकर हार जाते हैं और मुझे जिता देते है।'

रामजी ने जगत को बन्धु-प्रेम का आदर्श बताया है। कैकेयी ने जब कहा कि मैं भरत को राज्य देती हूँ, तुम वन मे जाओ तो छोटे भाई भरत को गद्दी मिलने की बात से रामजी को बहुत आनन्द हुआ। रामजी ने कैकेयी से कहा 'माँ ! मुझे राजा नही बनना । मेरा भाई भरत गद्दीपर बैठे, मेरा भाई राजा बने, मेरा भाई बहुत सुखी हो। इसमे मैं बहुत राजी हूँ, मेरे भाई का सुख ही मेरा सुख है, भाई का दुख ही मेरा दुख हैं । माँ ! तुम्हारी आज्ञा हो तो चौदह वर्ष तो क्या मैं आजीवन वन में रहने को तैयार है। जैसा प्रेम श्रीरामजी का है, वैसा ही प्रेम श्रीभरतजी का है। लोग तो कहते है कि रामजी के प्रेम से भी भरतजी का प्रेम श्रेष्ठ है। भरतजी ने मिला हुआ राज्य भी छोड़ दिया। भरतजी कहते हैं 'इस के मालिक मेरे बड़े भाई है। मैं तो उनका सेवक हूँ।' गद्दी मिली परन्तु भरतजी ने ली नहीं । गद्दी के ऊपर उन्होंने रामजीकी चरण पादुका पधरा दी और भरतजी तप करते रहे। महात्मा तो वहाँ तक कहते है कि रामजी की तपस्य  से भरतजी की तपस्या महान है। रामजी वन मे तप करे, इसमे क्या आश्चर्य है । भरतजी तो राजमहल मे तप करते है । वनमें तप करना सरल है, परन्तु राज्यमहल में अथवा बँगले में तप करना बहुत कठिन है ।

श्री डोंगरेजी महाराज

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