गुरुवार, 15 सितंबर 2022

मानव जीवन

 परमात्मा ने मानव को ही ऐसी शक्ति दी है कि मानव अपनी शक्ति और बुद्धि का सदुपयोग कर सकता है। वह इस शक्ति और बुद्धि का उपयोग भगवान् के लिए करता है, तब मृत्यु से पहले ही उसे परमात्मा के दर्शन होते हैं, पर प्रायः मानव अपनी बुद्धि का उपयोग धन प्राप्ति के लिए करता है और शक्ति का उपयोग भोग के लिए करता है। इससे वह अन्तकाल - में बहुत पछताता है। शक्ति और बुद्धि परमात्मा के लिए हैं। दुर्लभ मनुष्य शरीर पाकर परमात्मा के दर्शन के लिए जो प्रयत्न नहीं करता है, वह स्वयं अपनी ही हिंसा कर रहा है। ऋषि उसे आत्मघाती कहते हैं।

जिसकी परमात्मा के दर्शन की इच्छा है, जो प्रभु के दर्शन के लिए प्रयत्न करता है, उसे भले ही परमात्मा के दर्शन न हों, पर उसका मरण सुधरता है। अन्तकाल के समय में उसे शान्ति प्राप्त होती है। उसका मरण मंगलमय होता है। किसी भी प्रकार के लौकिक मन में रहती है, अन्तकाल के समय में उसे बहुत त्रास होता है। सुख की इच्छा जिसके मानवेतर किसी प्राणी को प्रभु के दर्शन नहीं होते हैं। स्वर्ग के देवों को भी भगवान् के दर्शन नहीं होते हैं। स्वर्ग में देव अति सुखी हैं। भले ही वे सुख भोग लें, पर उस सुख का अन्त तो है ही। संसार का एक नियम है जहाँ सुख है, वहाँ दुःख भी है जो मर्यादा को छोड़कर सुख भोगता है, उसकी इच्छा चाहे न हो, उसे दुःख भोगना ही पड़ता है स्वर्ग के देव हमसे अधिक सुख भोगते हैं, उन्हें अति सुख मिलता है, फिर भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती है शान्ति तो परमात्मा के दर्शन से ही मिलती है।

इससे देव ऐसी इच्छा करते हैं कि उन्हें भारत में जन्म मिले। भारत भक्ति-भूमि है। स्वर्ग में नर्मदाजी नहीं हैं, गंगाजी नहीं है, साधु-संन्यासी नहीं हैं। वहाँ सभी भोगी जीव है। स्वर्ग भोग भूमि है जिसने बहुत पुण्य एकत्र किये हों वह सुख भोगने के लिए स्वर्ग में जाता है परन्तु स्वर्ग से भी भारत देश श्रेष्ठ है। देव, भक्ति नहीं कर सकते हैं। भक्ति मानव शरीर से ही होती है। मानव सावधान रहने पर पाप छोड़ सकता है। मानव प्रतिक्षण सावधान रह कर, पाप छोड़कर भक्ति करे तो मृत्यु से पहले उसे भगवान् के दर्शन होते हैं। सभी मानवेतर प्राणियों को भोग ही मिलता है। मानव-शरीर की यही विशेषता है कि मानव, विवेक से थोड़ा सुख भोग करे और भक्ति करे तो उसे भोग और भगवान दोनों मिलते हैं। श्रीकृष्ण दर्शन मानव शरीर द्वारा ही हो सकते हैं। मानव में ऐसी शक्ति है।

स्वर्ग के देव पुण्य का फल, सुख भोगते हैं। पशु, पाप का फल, दुःख भोगते हैं। पशु आत्मा को शरीर समझता है। शरीर से आत्मा अलग है, मानव इसे जानता है। "शरीर ही मैं हूँ, शरीर ही आत्मा है"- ऐसा पशु समझते हैं। इससे वे शरीर-सुख में मग्न रहते हैं। पशु का स्वभाव सुधरता नहीं है। बिल्ली जन्म से लेकर मृत्यु तक चूहे की हिंसा करती है। बिल्ली ने कभी चूहे की हिंसा करना छोड़ दिया हो, ऐसा सुना नहीं है। पशु स्वभाव को छोड़ नहीं सकते। उनका स्वभाव एक-सा रहता है।

मानव चाहे तो अपने स्वभाव को सुधार सकता है। जप करने से, कथा सुनने से आपका स्वभाव सुधरेगा। सत्संग से स्वभाव सुधरता है। भक्ति करने से जीव में परमात्मा के सद्गुण आते हैं और तब मानव का स्वभाव सुधरता है। जिसका स्वभाव सुधरता है उसे मृत्यु से पहले ही मुक्ति मिलती है।

मानव चाहे तो पाप छोड़ सकता है और पुण्य कर सकता है। पशु-पक्षी नया पाप नहीं कर सकते हैं। उनसे कदाचित् पाप हो तो प्रभु क्षमा करते हैं। देव, पुण्य नहीं कर सकते हैं। मानव चाहने पर पाप छोड़ सकता है। वह निरन्तर भक्ति कर सकता है। निरन्तर भक्ति करने पर भगवान के दर्शन होते हैं। परमात्मा के दर्शन से जीव कृतार्थ होता है।

श्री डोंगरेजी महाराज



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