शुक्रवार, 16 सितंबर 2022

श्रीराम की मातृ-पितृ-भक्ति

 श्रीराम की मातृ-पितृ-भक्ति

श्री रामकी मातृ-पितृभक्ति अलौकिक है रामजी माता-पिता के अनन्य भक्त है। रामजी का ऐसा नियम था कि नित्य माता-पिता की वन्दना करना और सदा माता-पिता की आज्ञा मे रहना। कितने ही लोग ऐसे होते हैं कि मन्दिर में दर्शन करने जाते हैं, ठाकुरजी की वन्दना करते है परन्तु घर के अन्दर वृद्ध माता-पिता को प्रणाम करते ही नही । एक भाई से पूछा कि तुम हमारे पाँव छूते हो परन्तु घर में बूढी माँ के पाँव छूते हो कि नहीं? उसने जवाब दिया कि महाराज पहले पाँव छूता था परन्तु बी. ए. पास किया तब से छोड़ दिया।

वह शिक्षा किस काम की जिसको प्राप्त करने के उपरान्त माता - पिता का वन्दन करने में, माता-पिता की सेवा करने में संकोच हो ? इससे तो यह मूर्ख रहे तो क्या बुराई ? विद्वान तो ऐसा होना चाहिए कि प्रभु में प्रेम जागे, धर्म मे विश्वास बढ़े, माता-पिता की, समाज की देश की सेवा करने की भावना जगे । सबमे भगवद्भाव दृढ हो । अरे, जो माता-पिता की सेवा करते नहीं, वे समाज की और देश की क्या सेवा कर सकते है ? वे भगवान की क्या सेवा कर सकते हैं ? जो विद्या मां-बाप को बन्दना करने मे शर्म जगाये यह विद्या नही ।बाप की सम्पत्ति लेने में शर्म या संकोच होता नहीं किंतु वन्दन करने में संकोच होता है, शर्म आती है। कितने ही तो बाप से कहते हैं 'बङ्गला हमारे नाम कर देना, नहीं तो पीछे बहुत परेशानी होती है।' बाप का सब कुछ लेते हैं किंतु बाप की सेवा करते नहीं ।

कितने ही लोग माता-पिताका वन्दन तो करते हैं परन्तु उनकी आज्ञा का पालन नहीं करते । इस वन्दन का कोई अर्थ नही । वन्दन का अर्थ तो यह है कि 'मैं तुम्हारे अधीन हूँ अपना मस्तक और हाथ  तुमको समर्पण करता हूं, तुम्हारी इच्छा के अनुसार ही मैं कार्य करूंगा, तुम्हारी आज्ञा मे रहूंगा, मैं तुम्हारा सेवक हूँ। माथा है बुद्धि का प्रतीक और हाथ है क्रियाशक्ति के प्रतीक मस्तक में बुद्धि रहती है, हाथ से क्रिया होती है । वन्दन अर्थात इन सब का समर्पण |

माता - पिता की आज्ञा का पालन करो। तुमको सुखी होना हो तब माता-पिता की सेवा करो । शास्त्र मे तो ऐसा लिखा है कि जिसके माता-पिता जीवित न हो या साथ रहते न हों, तो चौबीस घण्टे मे एक बार माँ को याद करे, पिता को याद कर वन्दन करे । अपने माता-पिता की सेवा तुम करते हो तब वृद्धावस्था में तुम्हारे बालक तुम्हारी सेवा करेगे । माता-पिता, गुरु और अतिथि ये संसार मे प्रत्यक्ष चार देव है । उनकी सेवा करो ।

मातृदेवो भव ।

 पितृदेवो भव । 

आचार्यदेवो भव | 

अतिथिदेवो भव ।

माता का नम्बर पहला है, पिता का नम्बर दूसरा है और गुरु का तीसरा है। माता पिता ये परमात्मा के प्रत्यक्ष स्वरूप है। माता-पिता मे जिसका भगवद्भाव नहीं, उसे मन्दिर मे, मूर्त्ति में, किसी दिन भगवान दीखते नही । शास्त्र मे तो ऐसा लिखा है कि तुम कदाचित परमात्मा की भक्ति न करो तो चल सकता है, परन्तु माता-पिता की भक्ति-सेवा पहले करो । परमात्मा तो प्रत्यक्ष दीख पड़ते नही इसलिए प्रभु की भक्ति करना बहुत कठिन है। परन्तु माता- पिता की भक्ति करने योग्य है ।

तुम अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा न करो तो परमात्मा को बहुत खोटा लगता है, प्रभु नाराज होते है। जगत मे कितने ही लोग ऐसे है कि अभिमान के आवेश मे ऐसा भी बोलने लगते है कि मै धर्म को मानता नही, ईश्वर को मानता नही। ईश्वर कहाँ है ? ऐसे नालायक का पोषण भी ईश्वर करते है । नास्तिक को भी परमात्मा प्रकाश, पानी और पवन देते है। नास्तिक भी प्रभु की सृष्टि में ही रहता है। भगवान की पूजा न करो तो भगवान को खोटा लगता नहीं परन्तु जो वृद्ध माता-पिता की सेवा नही करता, वह भगवान को जरा भी सहन नही होता ।

कितने ही लोग मन्दिर में पद त्राण घिसने जाते है, परन्तु घर में माता-पिता की  सेवा करते ही नहीं । इनका मुख भगवान देखते नहीं । भगवान कहते हैं यह मूर्ख है । मुझे मुँह दिखाने आया है ? घर पर वृद्ध माता-पिता का अपमान करता है, माता-पिता के सामने जबाब देता है और मुझे फूल की माला अर्पण करने आया है ? इसके हाथ की फुल की माला मैं देखता भी नहीं । भगवान तो उसी की सेवा को स्वीकार करते है जो माता-पिता को परमात्मा समझ कर उनकी सेवा-पूजा करता है तुम परमात्मा की पूजा न करो तो चले, परन्तु माता-पिता की पूजा न करो तो नही चले ।

माता-पिता की सेवा महान् पुण्य है। अनेक यज्ञों के करने वाले को जो पुण्य नही मिलता वह वृद्ध माता-पिता की सेवा करने वाली सन्तान को अनायास ही प्राप्त हो जाता है । माता-पिता की अनन्य भाव से सेवा करने वाले के ऊपर परमात्मा बहुत कृपा करते हैं, इनके घर प्रत्यक्ष पधारते है। पुण्डरीक की कृपा तुम जानते हो। पुण्डरीक ने प्रभु की सेवा नही की थी । ग्रन्थो मे लिखा है कि पुण्डरीक ने परमात्मा का स्मरण किया था प्रभु की सेवा नही की थी । पुण्डरीक स्मरण श्रीकृष्ण का करता था और सेवा माता-पिता की करता था । पुण्डरीक भगवान के दर्शन करने नहीं गया, पुण्डरीक के दर्शन करने भगवान स्वयं उनके घर पधारे थे। पुण्डरीक की मातृ-पितृ भक्ति से प्रसन्न होकर प्रत्यक्ष द्वारिकानाथ पुण्डरीक के घर आये थे । पुण्डरीक उम समय माता-पिता की सेवा कर रहे थे ।

 प्रभु ने उनसे कहा कि

 'मैं आया हूँ।'

 पुण्डरीक ने कहा -

 ' महाराज मैं आपकी वन्दना करता हूँ । इस समय मैं माता पिता की सेवा मे व्यस्त हूँ । माता-पिता की सेवा के फलस्वरूप आप मिले हो, इसलिए माता की सेवा प्रथम है । आप तनिक बाहर खड़े रहो ।'

माता-पिता की सेवा करने वाले में इतनी शक्ति आती है कि वह ईश्वर को भी खड़े रहने के लिए कह सकता है । 

प्रभु ने थोड़ी परीक्षा की। पुण्डरीक से बोले

 'अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड के अधिनायक लक्ष्मी के पति तेरे घर आये है।' 

पुण्डरीक ने कहा

 'आप पधारे। यह बहुत अच्छी बात है । मैं आपका वन्दन करता है, परन्तु इस समय आपकी सेवा करने की मुझे फुरसत नहीं।'


प्रभुने कहा, 

'तू मेरी सेवा करता नहीं तो मैं यहाँ चला जाऊँ।'

 पुण्डरीक ने कहा, 

'आपकी मर्जी भले ही आप जाओ ।'

पुण्डरीक को विश्वास है कि मैंने माता-पिता की सेवा छोड़ी नहीं। वह माता-पिता की सेवा करता रहा।  भगवान भले ही चले जाये, परन्तु ठाकुरजी को वापिस यही आना ही पड़ेगा । पुण्डरीक ने ठाकुरजी को उत्तर दिया,

 'भले ही आप जाओ, परन्तु आपको वापिस यही आना पड़ेगा। मैं माता-पिता की ऐसी सेवा करता हूँ कि तुमको दौडते हुए वापिस यही आना पड़ेगा ।'


श्रीकृष्ण जगत का आकर्षण करते है परन्तु माता-पिता की सेवा करने वाला तो परमात्मा का भी आकर्षण करता है और कहता है 'आप जाओ तो, वापिस फिर आना पडेगा। प्रभु भक्ति के अधीन है। पुण्डरीक ने प्रभु को खड़े रहने के लिए एक ईंट दे दी थी। भगवान ईट के ऊपर खडे रहे और पुण्डरीक की प्रतीक्षा करते रहे । पुण्डरीक ने माता पिता की सेवा का काम छोड़ा नहीं प्रतीक्षा करते हुए खड़े रहने से भगवान को थकान हुई तो कमर पर हाथ रखना पड़ा। आज भी पण्ढरपुर में पाण्डुरङ्ग भगवान कमर पर हाथ रखे हुए ईंट पर खड़े हैं। माता-पिता की सेवा की यह महिमा है ।

शास्त्रों में लिखा है कि मनुष्य देह बहुत दुर्लभ है। 'दुर्लभो मानुषोदेहो' कारण कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थ सिद्ध करने वाला अपना यह मनुष्य शरीर ही है और यह शरीर माता-पिता ने दिया है। माता-पिता का यह ऋण माथे पर है। माता पिता ने बालको के लिए बहुत कष्ट सहन किए है परन्तु आजकल बहुत से लोग स्त्री का पक्ष लेकर माता-पिता का अपमान करते है । शास्त्र कहते है कि माता-पिता का अपमान करनेवाला कभी सुखी रहता नहीं।

रामजी का ऐसा नियम था कि माता-पिता को किसी दिन भी सम्मुख उत्तर दिया नहीं। वृद्धावस्था में माता-पिता से कदाचित् कोई भूल हो जाय तो इनके सम्मुख उत्तर नहीं देना । उनका बारम्बार वन्दन करो, सम्मान करो और पीछे विवेक से समझाओ । वृद्ध को जो सम्मुख उत्तर देता है उसको शाप मिलता है। वृद्ध का हृदय बहुत कोमल होता है । सम्मुख उत्तर मिलता है तो उनको ऐसा लगता है कि इसने हमारा अपमान किया है। तुम सुखी होना चाहो तो अपने माता-पिता को सम्मुख उत्तर न देना । कितने ही छोकरे तो माता-पिता से ऐसा कहते हैं कि

 'तुमको कोई खबर नहीं, तुम कुछ न जानते हुए भी बोलते हो। मैं कहता हूँ, वैसा करो।' 

छोकरे ऐसा बोलते हैं तो माँ-बाप को कैसा लगता है ? तुमको अच्छा लगे चाहे न लगे, अपने माता-पिता की आज्ञा में रहोगे तभी तुम्हारा कल्याण होगा।

तुमको भला न लगनेपर भी माता-पिता की आज्ञा का पालन करो। रामायण का यही आदर्श है। तुमको भला न लगे, ऐसी आज्ञा भी तुम्हारे माता-पिता करे तो भी तुम प्रभु विश्वास रखना, रामायण में विश्वास रखना और भली न लगने वाली आज्ञा का भी पालन करना तो तुम ईश्वर को अच्छे लगोगे |

रामायण में लिखा है कि दशरथ महाराज ने कभी रामजी को मुख से नहीं कहा कि तुम वन में जाओ। दशरथ महाराज की जिह्वा कभी बोल सकती ही नहीं कि रामजी वन में जाये । दशरथजी ने स्पष्ट आज्ञा दी नही । यह तो कैकेयी ने कहा कि तुम्हारे पिता की इच्छा है, आज्ञा है कि तुम वन में जाओ। तब रामजी बोले कि मेरे पिता की ऐसी इच्छा है तो आज्ञा का - पालन करना मेरा धर्म है


अहं हि वचनाः पतेयमपि पावके । 

मक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेयमपि चार्णवे ॥


"पिताकी आज्ञा में अग्नि में अथवा समुद्र कूद पड़ने को तैयार हूँ, जहर भी पी जाने को तैयार हूँ ।'


रामजी माता-पिताका वन्दन करके वन में चले जाते हैं।


थोड़ा विचार करो कि कैकेयी ने राज्य भरत को भले ही दिया परन्तु रामजी को बनवास क्यों दिया ? रामजी ने कोई अपराध किया नहीं। रामायण में लिखा है कि एक बार नही अनेक बार कैकेयी ने अपने मुख से कहा है कि

 'श्रीराम निरपराध हैं। रामजी ने कोई भूल नही की तो भी कैकेयी ने रामजी को वनवास दिया परन्तु रामजी ने कैकेयीसे एक बार भी नहीं पूछा कि मुझे वनवास क्यों देती हो माता-पिता की आज्ञा है, प्रभु को खबर मिली तो तुरन्त उन्होने आज्ञा का पालन किया। राजा दशरथ ने प्रत्यक्ष आज्ञा दी नहीं । केवल कैकेयी के कहने मात्र से ही रामजी वन में चले गये कैकेयी की आज्ञा अयोग्य है, अनुचित है, परन्तु रामजी ने ऐसा विचार नही किया । रामजी तो मानते है कि मैं अपने माता-पिता के अधीन हूं।


नास्ति शक्तिः पितुर्वाक्यं समतिक्रमितुं मम ।


सर्वसमर्थ रामजी कहते है कि पिताजी की आज्ञा का उल्लंघन करनेकी मुझमें शक्ति नही। श्रीरामचन्द्रजी की-सी मातृ-पितृ-भक्ति करने वाला जगत में कोई दिखाई देता नही ऐसा आदर्श जगत मे किसी जगह तुमको मिलेगा नहीं। रामचन्द्रजी की मातृ-पितृ-भक्ति अनन्य है।

श्री डोंगरेजी महाराज






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