मंगलवार, 12 दिसंबर 2023

 लिखित "ब्रीफ़" में क्या जानकारी दी जाए?

ब्रीफ़ उतनी ही सावधानी से तैयार किया जाना चाहिए जितनी सावधानी से वकील कोर्ट में चल रहे अपने केस का ब्रीफ तैयार करता है। जब तक कि आवेदक को इस तरह के ब्रीफ तैयार करने का अनुभव न हो विशेषज्ञ की राय ली जानी चाहिए और इस हेतु उसकी सेवाएँ ली जानी चाहिए। सफल व्यवसायी ऐसे लोगों को नौकरी पर रखते हैं जो अपने माल की विशेषताओं और खासियत के विज्ञापन करने की कला और मनोविज्ञान को समझते हैं। जिसे अपनी व्यक्तिगत सेवाएँ बेचनी हो उसे भी यही करना चाहिए। ब्रीफ में निम्न जानकारी होनी चाहिए :

1. शिक्षा : संक्षेप में परंतु स्पष्ट रूप से लिखें कि आपकी शिक्षा कहाँ तक है, आपने कॉलेज में किन विषयों में विशेषज्ञता हासिल की है और उस विशेषज्ञता के पीछे के कारण भी बताएँ।

2. अनुभव : अगर आपको उस तरह की नौकरी का कोई अनुभव है जिसके लिए आप आवेदन कर रहे हैं तो पूरी तरह से उसका उल्लेख करें और अपने पूर्व नियोक्ताओं के नाम और पते भी लिखें। यह निश्चित रूप से लिखें कि आपको उस पद पर किस तरह के काम का विशेष अनुभव है जिस वजह से आप उस पद के लिए अधिक उपयुक्त हैं जिसके लिए आप आवेदन कर रहे हैं।

3. संदर्भ : लगभग हर बिज़नेस फर्म उन संभावित कर्मचारियों के पिछले रिकॉर्ड के बारे में सब कुछ जानना चाहती है जो ज़िम्मेदारी के पद के लिए आवेदन करते हैं। अपने ब्रीफ के साथ इन लोगों के पत्रों की छायाप्रतियाँ लगा दें :

अ. पूर्व नियोक्ता।

ब. वे शिक्षक जिनसे आपने पढ़ा है।

स. प्रसिद्ध लोग जिनकी बात पर भरोसा किया जा सकता है। .

 4 अपना फोटोग्राफ़ : अपने ब्रीफ के साथ अपना हाल ही का फोटोग्राफ़ लगा दें।

 5. किसी निश्चित पद के लिए आवेदन दें: आवेदन करते समय यह उल्लेख करना न भूलें कि आप किस पद के लिए आवेदन दे रहे हैं। "किसी भी पद" के लिए आवेदन न करें। इससे यह समझा जाएगा कि आपमें विशेषज्ञीय योग्यता का अभाव है।

6. जिस पद के लिए आप आवेदन दे रहे हैं उसके लिए अपनी योग्यताओं का वर्णन करें : पूरा ब्यौरा दें कि आपको यह विश्वास क्यों है कि आप उस पद के लिए पूरी तरह योग्य हैं। यह आपके आवेदन का सबसे महत्वपूर्ण विवरण है। किसी भी अन्य जानकारी की तुलना में यह जानकारी निर्धारित करेगी कि आपको चुना जाएगा या नहीं।

7. परिवीक्षा पर काम करने का प्रस्ताव रखें : यह एक क्रांतिकारी सुझाव लग सकता है, परंतु अनुभव ने यह सिद्ध किया है कि इससे कम से कम एक मौक़ा अवश्य मिलता है। अगर आपको अपनी योग्यताओं पर विश्वास है तो आपको सिर्फ एक मौके की ही तो ज़रूरत है। साथ ही इस तरह के प्रस्ताव से यह पता चलता है कि आपको उस पद पर काम करने की अपनी योग्यता पर विश्वास है जिसके लिए आप आवेदन दे रहे हैं। इससे नियोक्ता सबसे अधिक आश्वस्त होता है। इस तथ्य को स्पष्ट करें कि आपका प्रस्ताव इन बातों पर आधारित है :

अ. आपको उस पद के लिए अपनी योग्यता पर विश्वास है।

ब. आपको अपने संभावित नियोक्ता के फ़ैसले पर भी विश्वास है कि वह आपको परिवीक्षा का अवसर देने के बाद नियुक्ति देगा। 

स. आपके मन में उस पद को प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प है।

8. अपने संभावित नियोक्ता के बिज़नेस का ज्ञान : किसी भी नौकरी के लिए आवेदन देते समय उस बिज़नेस के बारे में पर्याप्त रिसर्च कर लें और उस बिज़नेस की पर्याप्त जानकारी हासिल कर लें। अपने ब्रीफ में यह संकेत करें कि आपने उस क्षेत्र में क्या ज्ञान हासिल किया है। इससे बहुत फर्क पड़ेगा क्योंकि इससे यह पता चलता है कि आपमें कल्पनाशीलता है और उस पद को हासिल करने में आपकी सच्ची रुचि है।

याद रखें कि वह वकील केस नहीं जीतता जिसका वकालत का ज्ञान सबसे अधिक होता है, बल्कि वह वकील केस जीतता है जो अपने केस की सबसे अच्छी तैयारी करता है। अगर आपने "केस" को अच्छी तरह से तैयार और प्रस्तुत किया है तो आप शुरुआत में ही आधी जीत हासिल कर चुके हैं।

इस बात से न डरें कि आपका ब्रीफ ज़्यादा लंबा हो जाएगा। रोज़गार खोजने में आपकी जितनी रुचि है, सुयोग्य कर्मचारियों की सेवाएँ खरीदने में नियोक्ता की भी उतनी ही रुचि होती है। दरअसल, सबसे सफल नियोक्ताओं की सफलता का राज़ सुयोग्य सेनापति चुनने की उनकी योग्यता होती है। वे पूरी जानकारी चाहते हैं।

एक और बात का ध्यान रखें अगर आप अपने ब्रीफ़ की तैयारी सफ़ाई से करेंगे तो उससे यह पता चलेगा कि आप मेहनती इंसान हैं। मैंने क्लाइंट्स के लिए ऐसे ब्रीफ़ तैयार करने में मदद की है जो इतने प्रभावी और असाधारण थे कि आवेदक को बिना व्यक्तिगत इंटरव्यू के ही नौकरी मिल गई।

जब आपका ब्रीफ़ पूरी तरह से तैयार हो जाए तो इसके ऊपर अच्छी तरह से टाइप करवा लें।

रॉबर्ट के. स्मिथ की योग्यताओं का विवरण

द ब्लैंक कंपनी, इंक. के प्रेसिडेंट के प्राइवेट सेक्रेटरी के पद के लिए आवेदन

हर बार जब आप ब्रीफ़ भेजें तो कंपनी का नाम बदल दें।

यह व्यक्तिगत तरीका ध्यान आकर्षित करने का अचूक तरीका है। अपने ब्रीफ़ को उस सबसे अच्छे काग़ज़ पर टाइप कराएँ जो आपको मिल सके और इसे किसी पुस्तक के कवर जैसे भारी काग़ज़ से बाइंड कराएँ। अगर आप एक से अधिक कंपनी में आवेदन दे रहे हैं तो हर बार बाइंडिंग और फर्म का नाम बदल लें। आपका फोटो आपके ब्रीफ वाले किसी पेज पर लगा होना चाहिए। इन निर्देशों का पूरी तरह पालन करें और जब आपकी कल्पनाशीलता आपको कोई सुझाव दे तो इसे बेहतर बनाने का प्रयास करते रहें।

सफल सेल्समैन अपने पहनावे पर ध्यान देते हैं। वे जानते हैं कि पहली छाप अमिट होती है। आपका ब्रीफ़ आपका सेल्समैन है। इसे अच्छा सा सूट पहनाएँ ताकि यह दूसरों से अलग दिख सके, ताकि आपका संभावित नियोक्ता कहे कि उसने आज तक इस तरह का ब्रीफ़ नहीं देखा जो किसी पद के लिए आवेदन के साथ आया है। अगर आप जिस पद के लिए प्रयास कर रहे हैं वह महत्वपूर्ण है तो उसके लिए सावधानी से तैयारी करना भी महत्वपूर्ण है। इससे भी बड़ी बात यह है कि अगर आप अपने नियोक्ता को खुद को इस तरीके से बेचते हैं कि वह आपसे प्रभावित हो जाता है तो आपको शायद शुरुआत में ही उससे अधिक तनख्वाह मिलने लगे जो आपको पारंपरिक तरीके से आवेदन देने पर मिलती।

अगर आप एडवर्टाइज़िंग एजेंसी या एम्प्लॉयमेंट एजेंसी के माध्यम से रोज़गार ढूँढ़ रहे हैं तो अपने एजेंट से अपने ब्रीफ की प्रतियाँ इस्तेमाल करने को कहें ताकि आपकी सेवाओं की बेहतर मार्केटिंग हो सके। इससे एजेंट और संभावित नियोक्ता दोनों ही आपको प्राथमिकता देंगे।

शुक्रवार, 24 नवंबर 2023

 आचार्य द्रोण ने आज बहुत दिनों के पश्चात् अपने अतीत को पलटा था; अंतर्मुखी हो कर अपने भीतर झाँक कर देखा था। ... वे तो जैसे उस सारे काल को ही भूल गए थे। पर उनके भूलने से ही तो किसी काल-खंड का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता। उसमें उत्पन्न हुई परिस्थितियाँ नष्ट नहीं हो जातीं। वे परिस्थितियाँ ही उन्हें स्मरण कराती रहेंगी कि वे कौन हैं; और किन परिस्थितियों में वे किन लोगों के मध्य रह रहे हैं...

हस्तिनापुर में वे आजीविका के लिए आए थे; किंतु हस्तिनापुर ही क्यों ? क्योंकि जीविका उपार्जित करने के साथ-साथ द्रुपद से प्रतिशोध भी लेना था उनको । तब भीष्म ने उन्हे कुरु राजकुमारों का गुरु नियुक्त किया था। उन राजकुमारों की प्रतिभा, उनकी भक्ति और शक्ति देख कर वे प्रसन्न हो गए थे। उन्होंने स्वयं युद्ध नहीं किया था, द्रुपद से: किंतु जब अर्जुन और उसके भाई, द्रुपद को बॉध कर ले आए थे, तो द्रोण को पहली बार अपनी शक्ति का अनुभव हुआ था। उस बोध से ही जैसे उनको मद चढ़ आया था। उन्होंने द्रुपद जैसे शक्तिशाली राजा का आधा राज्य छीन लेने का साहस किया था।

तब से अब तक हस्तिनापुर की राजनीति ने कई करवटें ली थीं। और आचार्य ने हर बार सावधान हो कर उस सत्ता समीकरण को साधा था। युधिष्ठिर का युवराज्याभिषेक हुआ था, तो भी उन्हें बहुत संकट का अनुभव नहीं हुआ था। यद्यपि युधिष्ठिर का चिंतन उनके बहुत अनुकूल नहीं था; किंतु युधिष्ठिर उनका शिष्य था। और फिर अर्जुन था वहाँ। अर्जुन के बिना युधिष्ठिर हस्तिनापुर पर शासन नहीं कर सकता था; और अर्जुन किन्हीं भी परिस्थितियों में द्रोण का विरोध नहीं कर सकता था। अर्जुन के रहते उन्हें युधिष्ठिर से किसी प्रकार की कोई आशंका नहीं हो सकती थी।... किंतु जब उनकी समझ में आ गया कि धृतराष्ट्र, युधिष्ठिर को हस्तिनापुर में टिकने नहीं देगा, तो उनके लिए दुर्योधन के निकट हो कर उसे अपने अनुकूल रखना ही, अधिक लाभकारी था। वे भली प्रकार समझते थे कि डूबती नाव में बैठे रहनेवाले लोग नदी के पार नहीं उतरा करते। दुर्योधन भी अपने सहायकों को ढूँढ़ रहा था। अश्वत्थामा से उसकी मित्रता थी ही। उसे आचार्य द्रोण अपना संबल लगने लगे थे...

वारणावत प्रसंग के पश्चात् जब पांडव हस्तिनापुर लौटे थे, तो वे द्रोण के परम शत्रु द्रुपद के जामाता बन चुके थे। द्रोण ने अपने भाग्य को सराहा था कि उन्होंने समय रहते, दुर्योधन का समर्थन आरंभ कर दिया था, अन्यथा वे कहीं के भी न रहते। पांडव, द्रुपद और द्रोण दोनों का एक साथ न तो समर्थन कर सकते थे, न दोनों से एक साथ सहायता पा सकते थे। और अपने ससुर का पक्ष छोड कर पांडव अपने आचार्य का समर्थन कैसे कर सकते थे। दूसरी ओर दुर्योधन, पांडवों के किसी समर्थक को हस्तिनापुर में टिकने नहीं देता।  किन्तु  वे न तो अपने मन में दुर्योधन को अर्जुन का स्थान दे पाए, न दुर्योधन ही उन्हें अर्जुन की सी भक्ति दे पाया। अर्जुन उनसे प्यार करता था, और दुर्योधन उनको अपने लिए उपयोगी मानता था। अश्वत्थामा भी, दुर्योधन का वैसा मित्र नहीं हो पाया, जैसा कि उसे हो जाना चाहिए था। दुर्योधन अपने लाभ की दृष्टि से सारी घटनाओं को देख रहा था।... अश्वत्थामा और अर्जुन में न कोई प्रतिस्पर्धा थी, न ईर्ष्या। तो दुर्योधन अर्जुन के वध के लिए, अश्वत्थामा पर कैसे निर्भर रह सकता था। उसे उस कार्य के लिए कर्ण ही अधिक उपयोगी लगता था। कर्ण की क्षमता किसी भी रूप में अश्वत्थामा से अधिक नहीं थी, किंतु कर्ण के मन में अर्जुन के प्रति जैसी घृणा थी, वैसी अश्वत्थामा के मन में कैसे हो सकती थी। और दुर्योधन के लिए पांडवों के प्रति कर्ण की घृणा, अधिक मूल्यवान थी, कर्ण का धनुष नहीं ।

हस्तिनापुर के सत्ता समीकरण में अन्य लोगों के उतार-चढ़ाव से द्रोण को उतना अंतर नहीं पड़ता था, जितना कर्ण के अभ्युदय से। कर्ण वह व्यक्ति था, जिसे द्रोण ने धनुर्वेद का ज्ञान देना अस्वीकार किया था। उन्होंने कर्ण का तिरस्कार किया था। अब यदि कर्ण दुर्योधन पर अपना प्रभाव जमा लेता है, तो उसका अर्थ है कि सत्ता पर द्रोण के एक विरोधी का प्रभाव। और यह स्थिति हस्तिनापुर में द्रोण के महत्त्व के लिए कभी भी संकटपूर्ण हो सकती थी । अश्वत्थामा ने कक्ष में प्रवेश कर पिता को प्रणाम किया। "क्या समाचार है ?" 

"यह सत्य है पिताजी ! हस्तिनापुर की अधिकांश वाहिनियाँ युद्धाभ्यास कर रही हैं।" "तुमने सेनापति से पूछा कि  यह सब किसकी आज्ञा से हो रहा है ?"

द्रोण ने प्रश्न किया। "युवराज की आज्ञा से।"

"कारण ?"

"अंगराज महावीर कर्ण दिग्विजय के लिए प्रस्थान करनेवाले हैं।" अश्वत्थामा ने बताया ।

द्रोण ने लक्ष्य किया कि अश्वत्थामा ने कर्ण के नाम से पूर्व ये सारे विशेषण सम्मान के कारण नहीं जोड़े थे। वह उसका उपहास कर रहा था।

"हाँ । पांडवों ने दिग्विजय की थी तो दुर्योधन उसके बिना कैसे रह सकता था। अब यह राजसूय यज्ञ भी करना चाहेगा।" द्रोण जैसे सशब्द चिंतन कर रहे थे।

अश्वत्थामा अपने पिता की गंभीर मुद्रा देखता रहा। कुछ बोला नहीं । वह समझ रहा था कि इन शब्दों में दुर्योधन का समर्थन नहीं था।


बुधवार, 22 नवंबर 2023

 भारतीय संस्कृति के आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में मूर्तिमान करने वाले चौबीस अथवा दस अवतारों  में भगवान राम और कृष्ण का विशिष्ट स्थान है। उन्हें भारतीय धर्म के आकाश में चमकने वाले सूर्य और चंद्र कहा जा सकता है। उन्होंने व्यक्ति और समाज के उत्कृष्ट स्वरूप को अक्षुण्ण रखने एवं विकसित करने के लिए क्या करना चाहिए, इसे अपने पुण्य-चरित्रों द्वारा जन साधारण के सामने प्रस्तुत किया है। ठोस शिक्षा की पद्धति भी यही है कि जो कहना हो, जो सिखाना हो, जो करना हो, उसे वाणी से कम और अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने वाले आत्म-चरित्र द्वारा अधिक व्यक्त किया जाय। यों सभी अवतारों के अवतरण का प्रयोजन यही रहा है, पर भगवान राम और भगवान कृष्ण ने उसे अपने दिव्य चरित्रों द्वारा और भी अधिक स्पष्ट एवं प्रखर रूप में बहुमुखी धाराओं सहित प्रस्तुत किया है ।

राम और कृष्ण की लीलाओं का कथन तथा श्रवण पुण्य माना जाता है। रामायण के रूप में रामचरित्र और भागवत के रूप में कृष्ण चरित्र प्रख्यात है। यों इन ग्रंथों के अतिरिक्त भी अन्य पुराणों में उनकी कथाएँ आती हैं। उनके घटनाक्रमों में भिन्नता एवं विविधता भी है। इनमें से किसी कथानक का कौन सा प्रसंग आज की परिस्थिति में अधिक प्रेरक है यह शोध और विवेचन का विषय है। यहाँ तो इतना जानना ही पर्याप्त है कि उपरोक्त दोनों ग्रंथ दोनों भगवानों के चरित्र की दृष्टि से अधिक प्रख्यात और लोकप्रिय हैं। उन्हीं में वर्णित कथाक्रम की लोगों को अधिक जानकारी है ।

कथा चरित्रों के माध्यम से लोक शिक्षण अधिक सरल पड़ता है। इस रीति से वह सर्वसाधारण के लिए अधिक बुद्धिगम्य हो जाता है और हृदयंगम भी। तत्वदर्शी मनीषियों ने इस तथ्य को समझा था और जनमानस के परिष्कार के लिए आवश्यक लोक शिक्षण की व्यवस्था बनाने के उद्देश्य से कथा शैली को अपनाया था। वही सुबोध रही और लोकप्रिय बनी । अस्तु, एक प्रकार से इसी प्रक्रिया के माध्यम से धर्म चर्चा करने की रीति अपनाई गई और सफल भी हुई । वेद चार हैं और चारों को मिलाकर २० हजार मंत्र हैं। पर एक-एक पुराण का आधार विस्तार कहीं अधिक है, जितना कि चारों वेदों का सम्मिलित रूप है । अकेले महाभारत में एक लाख से अधिक श्लोक हैं। स्कंद पुराण भी ८१ हजार श्लोकों का है । उपयोगिता के अनुरूप पुराणों का विस्तार होता ही गया। १८ पुराण बने और इसके बाद १८ उप पुराण । यह विस्तार उस शैली की लोकप्रियता और सफलता पर प्रकाश डालता है ।

भगवान राम और भगवान कृष्ण के चरित्रों में लोक-शिक्षण की प्रचुर सामग्री विद्यमान है । रामायण और भगवान के कथानकों के माध्यम से जनमानस का परिष्कार और सामाजिक सुव्यवस्था का प्रतिपादन बहुत ही अच्छी तरह किया जा सकता है, किया जाता भी रहा है ।

इस प्रयास प्रचलन में एक त्रुटि यह थी कि कथा-ग्रंथों का श्रवण एवं पाठ मात्र पुण्य फल प्राप्त करने के लिए पर्याप्त बताया जाने लगा था और नाम जप की महिमा आकाश- पाताल जैसी बताई गई थी। साथ ही भक्ति को अमुक कर्मकांडों के बोध (नवधा भक्ति) तक सीमित रखा जा रहा था। इससे कथा-प्रसंगों की उपयोगिता ही नष्ट न हुई वरन उल्टी गंगा बहने लगी । जब श्रवण, पठन, जप और सरलतम कर्मकांडों में कुछ मिनट लगाने से पाप कट सकते हैं, पुण्य फल, ईश्वर का अनुग्रह और मुक्ति जैसी उपलब्धियाँ सहज ही मिल सकती हैं, तो फिर उन कष्ट साध्य आदर्शों को जीवन में उतारने का झंझट मोल क्यों लिया जाय ? सरल कृत्यों का अत्यधिक माहात्म्य बताने की परोक्ष प्रक्रिया यह हुई कि लोगों ने अनाचार से बचने और सदचार को अपनाने के लिए जिस उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तृत्व की अनिवार्य आवश्यकता है उसकी उपेक्षा आरंभ कर दी। फलतः लोग पाप-कर्मों का दंड मिलने की ओर से निर्भय हो गए। जब पाप अमुक कथा सुनने से नष्ट हो जाते हों और उनका दंड न मिलता हो तो उनके सहारे जो भौतिक लाभ मिल सकते हैं उन्हें क्यों छोड़ा जाय ? इसी प्रकार यदि अति सरल कर्मकांड आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त करा सकते हैं तो आदर्श जीवन जीने और लोक मंगल के लिए त्याग, बलिदान के झंझट में पड़ने की क्या जरूरत ? यह उल्टे तर्क लोगों के मन में बैठते चले गए। कथा वाचकों ने इसी सरलता को प्रस्तुत करते हुए शायद सोचा होगा कि इस सरल प्रक्रिया से आकर्षित होकर लोग जल्दी धर्मप्रेमी बनेंगे । पर वैसा होना संभव ही नहीं था और हुआ भी नहीं। छुटपुट क्रिया-कृत्यों की टंट-घंट तो इस प्रलोभन में बहुत फैली पर धर्म की आत्मा का हनन हो गया । धर्माडंबर ओढ़े हुए लोग अपने को पाप दंडों से मुक्त और ईश्वरीय अनुग्रह के अधिकारी मानकर चलने लगे । उन्होंने उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तृत्व को झंझट कहना आरंभ कर दिया। सरलता के आकर्षण ने उस ओर से मुँह मोड़ लेने के लिए जन साधारण को प्रेरणा दी । इस प्रकार कथा शैली के विकास का मूलभूत आधार ही नष्ट हो गया ।

सीधी धारा को उल्टी बहाया गया यह अनर्थ ही हुआ। अनर्थ को सुधारना, सही करना आवश्यक था । इसके बिना कथाक्रम का लक्ष्य भ्रष्ट ही बना रहता। रामचरित्र और कृष्णचरित्र का वही उद्देश्य और स्वरूप जन साधारण के सामने रखा जाना चाहिए जिसके लिए उनका अवतरण हुआ। धर्म की स्थापना और अधर्म का उन्मूलन यही दो प्रयोजन अवतार के रहे हैं। यह प्रयोजन उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तृत्व अपनाए बिना और किसी प्रकार पूरा नहीं हो सकता। अवतारों की कथा-गाथाओं में यही तथ्य पग-पग पर उभर रहा है । हमारी कथा शैली की दिशा यही होनी चाहिए। आज धर्म की उपयोगिता सिद्ध करने के लिए, उसके मूल स्वरूप से जनसाधारण को परिचित कराते हुए धर्मनिष्ठा को प्राणवान बनाने का यही तरीका है। अब कर्मकांडों का अलंकारिक माहात्म्य न बताकर चरित्र निष्ठा को अवतारों के अवतरण का मूल प्रयोजन बताया जाय और उसी के अनुगमन की दिशा में लोक मानस को प्रोत्साहित किया जाय ।

एक अन्य विकृति कथा-शैली में और भी घुस पड़ी थी जिसमें चरित्र नायकों के जीवन क्रम में ऐसी घटनाएँ जोड़ दी गई थीं जो नैतिक एवं सामाजिक मर्यादाओं के उल्लंघन और अवांछनीय आचरण के उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। लोग गुणाग्रही कम और दोषों के अनुकरण में कुशल होते हैं। जहाँ भी देवताओं, अवतारों, ऋषियों, महामानवों के चरित्रों में दोष की बात सुनते हैं, वहाँ न केवल अश्रद्धा करते हैं, वरन अपनी पथ-भ्रष्टता को सरल स्वाभाविक सिद्ध करने के लिए उन चरित्रों का संदर्भ देते हैं, जो महामानवों के लीला प्रसंग में जोड़ दिए गए हैं। दुःख की बात यह है कि कथावाचक उन्हीं को लोक रंजन की दृष्टि से चटपटा बनाकर कहते रहते हैं। वे भूल जाते हैं कि वे धर्ममंच से किन अवांछनीय प्रेरणाओं का प्रवाह बहा रहे हैं।

कथा शौली के माध्यम से लोक-शिक्षण भारत की वर्तमान मनोभूमि एवं आवश्यकताओं को देखते हुए एक नितांत उपयोगी और वांछनीय प्रक्रिया है। 

- श्रीराम शर्मा आचार्य

मंगलवार, 21 नवंबर 2023

शादी करना जहां एक खूबसूरत और अनोखा एहसास होता है, वहीं इस फैसले के साथ आपके मन में एक सवाल भी आता है। वो सवाल यह है कि एक सही जीवन साथी कैसा होना चाहिए? हमारे लाइफ पार्टनर में वो कौन-सी बातें होनी चाहिए, जिससे हमारी जिंदगी सुख और शांति से गुजरे? हर कोई चाहता है कि उसका जीवन साथी जिंदगी में हर कदम पर साथ खड़ा रहे और हर चुनौती को अवसर में बदलना जानता हो। 

 पति-पत्नी का अस्तित्व दो शरीर और एक आत्मा का स्वरुप होता है। उनमे से किसी एक के भी स्वतंत्र रूप से सुखी रहने की आशा कम ही की जाती है। सच्चा जीवनसाथी  वही है जो अपने पति या पत्नी के लिये अपनी अभिलाषाओं, अपने सुखों का त्याग कर सके, उसके दुःख को अपना दुःख मानते हुए हरदम उसका साथ निभाये। उसकी उन्नति और प्रगति के लिये प्रयासरत रहे, उससे प्यार करे, सम्मान दे, और सबसे बढकर उसे अपने जीवन लक्ष्य को पाने में हरसंभव सहयोग दे।

मान-सम्मान सभी के लिए उन अभूषणो की तरह है जो बहुत ही कीमती है, यदि आपका जीवन साथी आपका अत्यधिक सम्मान करता है व आपके साथ-साथ परिवार के अन्यों व्यक्तियों का भी उसी तरह सम्मान करता है तो वह /वो आपसे असीम प्रेम करता है, यदि आपका जीवन साथी आपको प्यार तो जताते है परंतु सम्मान नहीं करते व बात-बात पर आपको गाली देते है व आपके चरित्र पे लांछन लगाते है तो वह व्यक्ति आपको ज़िंदगी में कभी खुश नहीं रख पाएगा सच्चे प्रेम की नींव सम्मान से है।

सच्चा जीवन साथी आपके बुरे वक्त मे एक सेकंड के लिए भी आपका साथ नहीं छोड़ेगा, यदि आप बीमार है या कोई भी ऐसी दुर्घटना घटित होती है आपके साथ तब आपका सच्चा प्रेम आपको इग्नोर नहीं करेगा आपके हर कदम पर आपसे कहेगा घबराओ मत मैं हू ना सब ठीक हो जाएगा।

यदि आपके जीवन साथी में उपरोक्त गुण पाए है तो आप इस दुनिया के उन भाग्यशाली  इंसानों में से है। आप स्वयं को गोरान्वित महसूस कर सकते हैं। सौभाग्य से मैं भाग्यशाली हूं कि मुझे ऐसा जीवन साथी मिला।

अनजान राही की तरह मिलें। सफ़र जैसे जैसे आगे बढ़ा तो लगने लगा हम एक दूसरे के लिए ही बने हैं। आज बाराह सदस्यों  का परिवार एक दूसरे के सुख-दुख में एक साथ खड़ा रहता है।यह सब मेरे हमसफ़र की परवरिश से सम्भव हो सका है।

“जीवनसाथी वो है जो हमें हमसे भी अधिक प्यार करता है।”



शुक्रवार, 17 नवंबर 2023

एक लंबे समय तक उसे अपने इस एकाकीपन का कोई बोध नहीं था । कहाँ था यह एकाकीपन ? उसके अपने भीतर ही रहा होगा; किंतु कुंडली मारे दम साधे पडा होगा। यहाँ तक कि जिस शकुनि के भीतर यह छिपा बैठा था, उस शकुनि को ही उसके अस्तित्व का बोध नहीं था। आज ऐसा क्या हो गया था कि वह अपनी कुंडली त्याग, फन काढ कर खड़ा हो गया था, आकर उसे ही डराने लगा था...

वर्षो पहले, जब उसकी युवावस्था अपनी आँखें खोल ही रही थी, इसी  हस्तिनापुर के एक दूत के संदेश ने, गंधार के राजप्रासाद तथा राजवंश को हिला कर रख दिया था। कुरुकुल का भीष्म अपने नेत्रहीन भ्रात पुत्र धृतराष्ट्र के लिए गांधार की राजकुमारी का दान माँग रहा था। गांधार इतने शक्तिशाली नहीं थे कि हस्तिनापुर के दूत के शरीर के टुकड़े कर उसे बोरी में डाल, अश्व की पीठ से बाँध हस्तिनापुर लौटा देते; किंतु वे कुरुओं के इस आदेश को चुपचाप स्वीकार भी तो नहीं कर सकते थे।... तब गांधारों ने ऐसे अवसरों के लिए, अपना परंपरागत मार्ग अपनाया था - धीरता का और धूर्तता का शकुनि ने अपने जीवन के सारे स्वप्नों को छिन्न-भिन्न कर दिया था और कुरुओं द्वारा किए गए गांधारों के इस अपमान के प्रतिशोध को अपने जीवन का एक मात्र लक्ष्य मान, वह अपनी बहन के साथ हस्तिनापुर चला आया था।... उसे यहीं रहना था। इन्हीं लोगों के मध्य । उनका अपना बन कर । उसे उनकी महत्त्वाकांक्षाओं को जगाना था, उकसाना था। महत्त्वपूर्ण आकांक्षाओं को नहीं, अपने व्यक्तिगत महत्त्व की आकांक्षाओं को जगाना था। तो कितना सुविधापूर्ण था नेत्रहीन धृतराष्ट्र को समझाना राज्य वस्तुतः उसी का था किंतु उसे उससे वंचित कर दिया गया था।उसे किसी भी प्रकार उसे प्राप्त करके ही दम लेना चाहिए ।... शकुनि को सीधे धृतराष्ट्र को भी कुछ कहने की आवश्यकता नहीं थी। वह तो गांधारी को ही स्मरण कराता रहता था। गांधारी का एक स्पर्श धृतराष्ट्र को मंत्रमुग्ध करने के लिए पर्याप्त था । ... और फिर यह भी लगा धृतराष्ट्र को कुछ सिखाने पढ़ाने की आवश्यकता ही नहीं थी। उसके भीतर इतना लोभ, मोह और स्वार्थ भरा हुआ था कि पूरे कुरुकुल को नष्ट करने के लिए, वह अकेला ही पर्याप्त था । ... वह तो कहो कि भीष्म और विदुर उसके मन में जलने वाली ज्वाला पर शीतल जल के छींटे डालते रहते थे, अन्यथा वह अग्नि कब की, भरत वंश को जला कर क्षार कर चुकी होती।... शकुनि और गांधारी को इतना ही करना था कि वे धृतराष्ट्र को भीष्म और विदुर के धर्म से प्रभावित न होने देते ।...

आज शकुनि स्मरण करने का प्रयत्न करता है, तो वह याद नहीं कर पाता कि उसका और गांधारी का मार्ग कब से पृथक् हो गया और उसे उसका आभास भी नहीं हुआ। यह आभास तो आज ही हुआ, जब गांधारी ने उसे अपने कक्ष में बुलाकर कहा, "दुर्योधन मेरा पुत्र है भैया ! और मैं उससे प्रेम करती हूँ।"...तो दुर्योधन अब उस भरतकुल का वंशज नहीं रहा, जिसे नष्ट करने के लिए, शकुनि अपना प्रत्येक सुख छोड़ कर यहाँ आया था। वह गांधारी का पुत्र हो गया था । अब धृतराष्ट्र वह अत्याचारी राजा नहीं था, जिसने नेत्रहीन होते हुए भी, मात्र अपनी सैनिक शक्ति के बल पर सुनयना गांधार राजकुमारी का अपहरण कर लिया था; और गांधारी ने उसका मुख देखना भी स्वीकार नहीं किया था। उसने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली थी। आज धृतराष्ट्र गांधारी का मनभावन पति था । ... तो शकुनि ही मूर्ख था, जिसने अपना राज्य राजधानी, कुल परिवार त्याग कर अपना सारा जीवन अपने कुल और अपनी बहन के अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए खपा डाला था। आज गांधारी उसी वंश की रक्षा के लिए, अपने भाई को चेतावनी दे रही थी, जिसे नष्ट करने के लिए वे दोनों यहाँ आए थे ।...

शकुनि यह क्यों नहीं समझ सका कि भाई बहन का एक परिवार तभी तक होता है, जब तक अपनी संतान नहीं हो जाती। वह तो आज तक यही मानता रहा कि उसका और गांधारी का एक ही परिवार है। उसने क्यों नहीं जाना कि इन सबंधों की प्रकृति बडी विचित्र है। मनुष्य की ममता अपने दाएँ-बाएँ खडे बहन-भाइयों से तब तक ही होती है, जब तक उसको अपने सम्मुख खड़ी अपनी संतान दिखाई नहीं पड़ती। एक बार संतान हो जाए, तो बहन भाई साधन और माध्यम हो सकते हैं, ममता के पात्र नहीं रहते।

यदि गांधारी ने धृतराष्ट्र को अपना पति, कुरुकुल को अपना श्वसुर कुल तथा धृतराष्ट के पुत्रों को अपने पुत्र स्वीकार कर लिया था, तो उसी दिन शकुनि से क्यो नहीं कह दिया, "भैया! तुम अब अपने  राज्य में लौट जाओ। जब मैंने इन परिस्थितियों को स्वीकार कर लिया है तुम भी उन्हें स्वीकार कर लो।" 

आज जैसे शकुनि की आँखें खुल गई क्यों कहती गांधारी यह सब उससे । अब वह कुरुकुल के विनाश की नहीं, धार्तराष्ट्रों के विकास की इच्छुक थी। वह अपने पति को भी राजा बनाना चाहती थी और अपने पुत्र को भी । शकुनि ही मूर्ख था कि वह समझ नहीं सका कि वह कैसे अपने शत्रुओं के लिए उपयोगी हो गया था आज गांधारी उसकी भर्त्सना कर रही है कि वह दुर्योधन को अधर्म के मार्ग पर ले जा रहा है। अधर्म का मार्ग विनाश का मार्ग है; तो उस दिन क्यो नहीं बोली, जब पांडवों को वारणावत भेजा गया था; उस दिन क्यों नहीं बोली, जब पांडवों को खांडव वन दिया गया था; उस दिन क्यों नहीं बोली, जब युधिष्ठिर को द्यूत के लिए हस्तिनापुर आने का आदेश दिया गया था ?

क्यों बोलती तब ? तब तो उसके पति और पुत्रों का अभ्युत्थान हो रहा था... अब, जब पांडवों का सर्वस्व हरण कर लिया गया था; दुर्योधन सारे वैभव का स्वामी हो चुका था और उसकी स्थिति एक शक्तिशाली सम्राट् की सी हो गई थी ... अब यदि शकुनि को बीच से, दूध की मक्खी के समान निकालकर फेंक दिया जाए, तो दुर्योधन का क्या बिगड़ेगा ?... अब गांधारी को अपने पुत्रों की सुरक्षा का ध्यान आ रहा था। अब उनके लिए शकुनि का सान्निध्य हानिकारक हो गया था। 

क्या गांधारी सचमुच इतनी चतुर राजनीतिज्ञ थी कि उसने शकुनि और अपने पुत्रों को तब तक तनिक भी नहीं टोका था, जब तक शकुनि उन्हें उन्नति के मार्ग पर ले चल रहा था; और अब वह समझ गई थी कि आरोह का समय समाप्त हो चुका था और अवरोह का क्षण आ गया था, इसलिए शकुनि को बीच में से हटा दिया जाना चाहिए ? क्या वह जान गई थी कि उसके पुत्रों को अब शकुनि के माध्यम से कोई उपलब्धि नहीं होनेवाली ! अब शकुनि उन्हें उस मार्ग पर ले चलेगा, जिस पर चलने की तैयारी में, उसने अपना सारा जीवन हस्तिनापुर में व्यतीत किया था ? 

तो शकुनि अब धार्तराष्ट्रों के लिए अनावश्यक हो गया था ?... सच भी तो है, दुर्योधन, पांडवों से कुछ और छीनना चाहे, तो पांडवों के पास अब और है ही क्या ?... तो गांधारी ने ठीक ही पहचाना था कि पांडव अब और वंचित नहीं हो सकते थे। ऐसे में अब हस्तिनापुर मे शकुनि की क्या आवश्यकता थी ।.... शकुनि ने अपने मस्तक को एक झटका दिया वह स्वयं को इस प्रकार प्रवंचित नहीं होने देगा। हस्तिनापुर में वह असहाय अवश्य है, किंतु इतना असहाय भी नहीं है कि अपना सारा यौवन नष्ट कर, मस्तक लटकाए चुपचाप गंधार लौट जाए। ... गांधारी समझती है कि अब शकुनि की आवश्यकता नहीं है; किंतु दुर्योधन तो अभी ऐसा नहीं सोचता । .... . इससे पहले कि दुर्योधन भी कुछ ऐसा ही सोचने लगे, शकुनि को कुछ करना होगा। क्या कर सकता है, शकुनि ? दुर्योधन के सम्मुख अब वह कौन-सा ऐसा प्रलोभन रख सकता है, जिससे शकुनि दुर्योधन के लिए परम आवश्यक बना रहे ?... और यदि शकुनि दुर्योधन के लिए आवश्यक बना रहेगा, तो उस पर गांधारी का आदेश नहीं चल सकता। शायद गान्धारी यह नहीं जानती है कि हस्तिनापुर में आज्ञा ही नहीं, इच्छा भी दुर्योधन की ही चलती है राजा चाहे कोई भी हो, और महारानी चाहे गांधारी ही क्यों न हो।

 शकुनि के मन में एक योजना आकार ग्रहण करने लगी ... विषधर का सा एक विचार उसके मन में निःशब्द रेंगा, और फिर क्रमशः उसके अंग-प्रत्यंग स्पष्ट होने लगे। उस जीव की आँखें खुल कर चारों ओर देखने लगीं। फन तन कर सीधा हो गया और उसकी जिह्वा लपलपाने लगी ।... लोभ का अस्तित्व बाहर किसी भौतिक पदार्थ में होता है, अथवा मनुष्य के अपने मन में ?... मनुष्य का अहंकार अपनी उपलब्धियों से अधिक तृप्त होता है, अथवा अपने शत्रुओं की वंचना से ?... दुर्योधन के लिए अपना वैभव अधिक सुखद है अथवा युधिष्ठिर की अकिंचनता ? शत्रु को अभावों के कष्ट में तड़पते देखने में जो सुख है, वह अपनी बड़ी से बड़ी उपलब्धि में भी नहीं है। ... ठीक है कि शकुनि अब दुर्योधन को और कुछ भी उपलब्ध नहीं करवा सकता; किंतु वह उसे पांडवों की पीड़ा का सुख तो प्राप्त करवा ही सकता है......।

शकुनि की दृष्टि में एक दृश्य जन्म ले रहा था ... एक बालक एक सर्प को ढेला मारता है। सर्प अपने घाव की पीड़ा से तड़पता है। बालक उसकी पीड़ा देख-देखकर प्रसन्न होता है। थोड़ी देर में सर्प अपनी पीडा से निढाल हो कर अपना सिर टेक देता है। बालक की क्रीडा समाप्त हो जाती है। उसका सुख जैसे तिरोहित हो जाता है। उसे अच्छा नहीं लगता। वह एक छड़ी ले कर सर्प को उकसाता है, उसे कोंचता है, उसके घावों को अपनी छड़ी से कुरेदता है, छीलता है... और सर्प अपनी असह्य पीडा में भी अपना सिर उठा लेता है। बालक को फिर से क्रीड़ा का सा सुख मिलने लगता है। वह सर्प को छड़ी से नहीं अपनी अंगुली से छेडना चाहता है। वह अपना हाथ उसके निकट ले जाता है। सर्प क्रोध में उसे दंश मारता है। अब तडपने की बारी बालक की है बालक सर्प विष से तड़प-तड़पकर मर जाता है; और सर्प, सिर में लगे अपने घाव से !...

शकुनि मन ही मन मुस्कराया. गांधारी कुरुओं की रक्षा करना चाहती है। उन कुरुओं की, जिन्होंने गांधारों का अपमान किया था। अपमान के प्रतिशोध का अवसर पाने के लिए शकुनि ने जीवन भर सेवा की है।जब वह अवसर इतना निकट है, उसके सामने खड़ा है गांधारी चाहती है। कि वह चुपचाप गंधार लौट जाए। ... वह भूल गई वह गांधारी है, गांधार राजकन्या । शायद अपने आपको कौरवी समझती है ।...

शकुनि की आँखों में एक कठोर भाव जन्म लेता है यदि उसकी अपनी बहन गांधारी से कौरवी हो गई है, तो उसे भी की क्रोधाग्नि में जलना होगा शकुनि के लिए तो बस एक ही काम शेष रह गया है .....  दुर्योधन के हाथ मे एक छडी पकडा देने भर का वह स्वयं ही पांडवों को कोंचने के लिए द्वैतवन जा पहुंचेगाऔर पांडवों को कोंचने का परिणाम ...

शकुनि की इच्छा हुई कि वह जोर का एक अट्टहास करे। इतने जोर का कि वह गांधारी के कानों में ही नहीं, उसके मन में भी देर तक गूंजता रहे.........।

नरेंद्र कोहली 



रविवार, 12 नवंबर 2023

 द्रौपदी, एक वृक्ष के नीचे, अकेली बैठी, बड़ी देर से अपने विचारों में लीन थी पिछले दिनों, उन लोगों ने परस्पर बहुत चर्चा की थी। चर्चा ही क्यों, उसे वाद-विवाद कहना चाहिए । “कितनी कटुता थी द्रौपदी के मन में युधिष्ठिर के लिए, और उसके पश्चात् भीम, अर्जुन तथा नकुल सहदेव के लिए । “कभी-कभी तो उसे लगने लगता था कि जिन धार्तराष्ट्रों ने उसका अपमान किया था, उनके प्रति भी उसके मन में उतनी कटुता नहीं थी, जितनी अपने पतियों के प्रति थी पर यह तो मन का छल मात्र था। ऊपरी काई हटाकर देखने पर उसकी समझ में आ गया था कि धार्तराष्ट्रों के प्रति उसके मन में घृणा थी, शत्रुता थी वह उनका नाश चाहती थी, सर्वनाश ! सबकी मृत्यु ! मृत्यु से कम कुछ नहीं । उनके साथ, उसके मन के माधुर्य का कोई एक सूत्र, कभी एक क्षण के लिए भी नहीं जुड़ा था। उनसे उसे कोई अपेक्षा नहीं थी । कटुता तो उनके प्रति थी, जिनसे उसे प्रेम था, जिनसे उसे अपेक्षाएँ थीं, जिन्हें वह अपने रक्षक मानती थी उन लोगों की ओर से उसके प्रेम की प्रतिध्वनि नहीं हुई। उन्होंने उसके प्रेम में बहकर अपने धर्म को तिलांजलि नहीं दी। उन्होंने अपने धर्म की रक्षा की और उसे असुरक्षित छोड़ दिया...।

द्रौपदी सोचती जाती थी और उसके अपने ही मन की परतें उघड़ती जाती थीं उसके मन में, यह बहुत बाद में स्पष्ट हुआ था पांडवों के व्यवहार से जो आहत हुई, वह द्रौपदी के भीतर की नारी थी। वह रूपगर्विता नारी, जो मानती थी कि पुरुष की दृष्टि उस पर पड़ी नहीं कि वह मदांध हुआ नहीं ! उसने चाहा तो यही चाहा कि जिस पुरुष  की ओर वह एक अपांग से देख ले, वह घुटनों के बल उसके सम्मुख आ गिरे। फिर उसका आचार-व्यवहार, धर्म- नीति, कुछ न हो, बस उसका रूप ही हो। पांडवों ने सदा उसे अपनी प्रिय पत्नी माना था। उसकी हल्की सी कसक से भी वे तड़प उठते थे; किंतु परीक्षा की इस घड़ी में उन्होंने सिद्ध कर दिया था कि वह उन्हें कितनी भी प्रिय क्यों न हो, उनके लिए धर्म से बढ़कर नहीं थी । 

द्रौपदी अपने-आपको भी धीरे-धीरे पहचान रही थी वह केवल एक रूपगर्विता नारी ही नहीं थी । नारी तो वह थी ही, और उसका रूप भी ऐसा था, जिस पर कोई भी गर्व कर सकता था किंतु यह तो उसके व्यक्तित्त्व का एक अंश मात्र था । उसके संपूर्ण व्यक्तित्त्व में तो और भी बहुत कुछ था वह धर्म को जानती थी, धर्मशास्त्र की पंडिता थी, चरित्र और संकल्प से परिचय था उसका ।अब यह उसकी बारी थी कि वह पांडवों के चरित्र पर मुग्ध हो । युधिष्ठिर को ठीक ही कहा जाता था 'धर्मराज !' और कौन ऐसा मनुष्य होगा, जो पितृ आज्ञा को, अपना धर्म मानकर, अपना साम्राज्य इस प्रकार त्याग दे त्रेता में भगवान राम ने ऐसा किया था और द्वापर में धर्मराज युधिष्ठिर ने । ठीक है कि यह वैसा त्याग नहीं था,  जैसा भगवान राम ने किया था किंतु इसका मूल स्वरूप तो वही था । धृतराष्ट्र पांडवों का राज्य छीन लेना चाहता था, जैसे कैकेयी राम का राज्य छीनना चाहती थी । धृतराष्ट्र जानता था कि युधिष्ठिर उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करेंगे और वह यह भी जानता था कि द्यूत में शकुनि उनके हाथों में पासे आने ही नही देगा यह सब युधिष्ठिर भी जानते थे । वे द्यूत का विरोध करते रहे, किंतु धृतराष्ट्र की इच्छा का विरोध नहीं किया उन्होंने । खेलने बैठ ही गए थे, तो किसी भी दाव के पश्चात् वे उठ भी सकते थे । किंतु धृतराष्ट्र की आज्ञा की अपेक्षा में, वे बैठे, हारते रहे । पासों में हार चुकने के पश्चात् वे राज्य देना अस्वीकार कर सकते थे, इतना सैन्य बल था उनके पास । किंतु अपने वचन के विरुद्ध नहीं जा सकते थे । उनकी पत्नी को सभा में लाकर उनके सम्मुख निर्वस्त्र करने का प्रयत्न किया गया; किंतु धर्मराज तनिक भी नहीं डोले । वे जानते थे कि द्रौपदी दासी नहीं है, किंतु वे स्वयं तो दास हो चुके थे। वे स्वामी के विरुद्ध शस्त्र कैसे उठाते । पत्नी की रक्षा उन्होंने कुलवृद्धों, धर्म और ईश्वर पर छोड़ दी ।

कैसी परीक्षा ली थी धार्तराष्ट्रों ने पांडवों की ! पर क्या दुर्योधन पांडवों का राज्य ही छीनना चाहता था ?--यदि केवल इतनी ही बात होती, तो पांडवों से राज्य लेना क्या कठिन था ? युधिष्ठिर तो किसी भी बात पर राज्य त्याग देते ! और द्यूत के पश्चात् तो उनका राज्य ले ही लिया था। फिर उन्हें इस प्रकार अपमानित करने की क्या आवश्यकता थी ? वह मात्र पर-पीड़न का सुख लेना चाहता था ? पर नहीं । इस सुख कितना जोखिम था । वह पांडवों के बल को भी जानता था और क्रोध को भी । यदि पांडवों में से कोई एक भी अपनी मर्यादा तोड़ बैठता, तो कुछ  ही क्षणों में धार्तराष्ट्रों की इतनी अपरिहार्य क्षति हो जाती उसके पश्चात् पांडवों का जो भी होता। पांडव यदि मार भी डाले जाते, तो वे धृतराष्ट्र की इतनी हानि कर चुके होते, जो उसके जीवन का रोग बन गई होती। और बात पांडवों की मृत्यु के साथ ही तो समाप्त नहीं हो जाती। पांडवों के मित्र प्रतिशोध लेकर छोड़ते ।मित्र भी कैसे कृष्ण और धृष्टद्युम्न ! नहीं ! दुर्योधन पांडवों को मात्र अपमानित ही नहीं कर रहा था। वह उनकी परीक्षा भी नहीं ले रहा था। किसी की परीक्षा लेने के लिए, कोई अपने लिए इतना संकट आमंत्रित नहीं करता कदाचित् दुर्योधन एक ओर पांडवों का धर्म खंडित करना चाह रहा था और दूसरी ओर उनकी एकता ! वह युधिष्ठिर को इंद्रप्रस्थ का राजा नहीं रहने देना चाहता, तो वह उन्हें धर्मराज भी नहीं रहने देना चाहता । वह चाहता है कि पांडव, धर्म के लिए न लड़ें, अपने राज्य के लिए लड़ें, अपने स्वार्थ के लिए लड़ें। वह चाहता है कि युधिष्ठिर भी उसी के समान मात्र एक भोगी, लोलुप और अत्याचारी क्षत्रिय बनें, ताकि धर्म का बल पांडवों की ओर न रहे । कोई राजा इसलिए पांडवों की ओर से न लड़े, क्योंकि वे धर्म के लिए लड़ रहे हैं; वह उनके पक्ष से इसलिए युद्ध करे, क्योंकि युद्ध जीतने से भोग-सामग्री उपलब्ध होती है । अहंकार स्फीत होता है। दूसरों का दमन करने का अधिकार मिलता है । और उस दिन धर्मराज तनिक भी दुर्वल पड़ते, तो ऐसा हो गया होता ।

नरेंद्र कोहली 

शनिवार, 11 नवंबर 2023

 अमृत बीज हालो, हलीम,चन्द्रशूर के फायदे गुण और उपयोग 

आयुर्वेद में कई ऐसे मसालों के बारे में बताया गया है, जो सुपरफूड की तरह काम करते हैं। आपने आज तक तरबूज के बीज, अलसी के बीज और मेथी के बीज के बारे में सुना होगा।  इनसे आपने कुछ मसालों का प्रयोग भी किया होगा। गार्डन क्रेस सीड्स को हिंदी में हलीम बीज के नाम से भी जाना जाता है, और महाराष्ट्र में यह हलीम सीड्स के नाम से भी लोकप्रिय है। यह छोटे लाल रंग के बीज आयरन, फोलेट, स्टार्च, विटामिन सी, ई, ई और प्रोटीन जैसे पोषक तत्वों का एक शक्तिशाली घर हैं।

हलीम के बीज में आयरन का उच्च स्तर लाल रक्त पाउडर के उत्पादन को बढ़ावा मिलता है और शरीर में हिमोग्लोबिन के स्तर को बनाने में भी मदद मिलती है। लंबे समय में वे कुछ हद तक बीमारी के इलाज में भी मदद कर सकते हैं। इस बीज की तासीर गर्म होती है। यही कारण है कि हलीम के बीजों का सेवन पानी में भिगोने के बाद ही किया जाता है।

1 खून की कमी को ठीक करता है:–

हलीम के यंत्र में लौह की प्रचुर मात्रा पाई जाती है। आयरन का अच्छा प्रोटीन प्रोटीन की वजह से यह बीज शरीर में होने वाली कमी को पूरा करने में मदद करता है।

2. वेट लॉस में है पोषक तत्व

हलीम के बीज में स्टार्च और प्रोटीन होता है। यह दोनों ही पोषक तत्व वेट लॉस में अपनी अहम भूमिका साझा करते हैं। ईसाइयों के अनुसार, हलीम के बीजों का सेवन करने से पेट लंबे समय तक भरा रहता है, इसके कारण भूख को नियंत्रित करने में मदद मिलती है।

3. यह स्तन में दूध के उत्पादन को पुनःप्राप्त करता है :–

हलीम के बीज में प्रोटीन और आयरन की प्रचुरता होती है और इसमें गुणकारी गैलोगॉग गुण होते हैं। इसलिए यह बोतल से दूध  पिलाने वाली महिलाओं के लिए बेहद की लाभकारी होती हैं। गैलेक्टोगोग ऐसे खाद्य पदार्थ हैं जो स्तन ग्रंथि से स्तन के दूध के उत्पादन को प्रेरित करते हैं, उसे बनाए रखते हैं और बढ़ाने के लिए उपयोग किए जाते हैं।

4. मासिक धर्म को नियमित करने में मदद करता है :–

महिलाओं को गर्भधारण योजना के लिए मासिक धर्म चक्र को नियमित करना  बहुत जरूरी है। हलीम बीज फाइटोकेमिकल्स में समृद्ध है, जो एस्ट्रोजन हार्मोन की उत्पादन करता हैं, मासिक धर्म नियमित रूप से करते हैं।

इम्यूनिटी बूस्ट करें

फ्लेवो करोनोइड्स (एंटीऑक्सिडेंट्स), फोलिक एसिड और विटामिन-ए, सी और ई सेपेरिटन हलीम के बीज, शरीर की प्रतिरक्षा में सुधार के लिए एक बेहतरीन भोजन है जो आपको विभिन्न संक्रमणों और दवाओं से राहत दिलाने में मदद कर सकता है। इसके रोगाणुरोधी  बुखार, आंख और गले में खराश जैसे विभिन्न संक्रमणों को रोकने में मदद करते हैं।

ऐसे और भी कई फायदे हैं जो इस छोटे बीज को अपने आहार में शामिल करने से निश्चित रूप मिलते हैं ये । इस प्रकार  से आपके शरीर के पोषण को बढ़ाने वाला है।

इसका सेवन करने के लिए एक गिलास पानी में 1चमच हलीम के बीज को रात भर के लिए छोड़ दें। सुबह खाली पेट का सेवन करें।

इसके अलावा हलीम के मसाले को रोटी और सब्जी में मिलाकर भी शामिल किया जा सकता है।

काला जीरा,मेथी, अजवायन, हालों के बीज इन चारों को मिलाकर दवाई बनाई जाती है जो बहुत उपयोगी है।


मंगलवार, 7 नवंबर 2023

"कृष्णे !”

द्रौपदी का, अब तक का सहेजकर रखा गया संयम टूट गया। इतने दिनों से वह जिसकी प्रतीक्षा कर रही थी, उसका वह सखा आ गया था पहले उसकी आँखें भर आईं, और फिर टप-टप आँसू गिरने लगे । स्वयं को सँभालने के, उसके सारे प्रयत्न निष्फल हो गए, तो वह सशब्द रो उठी ।

"पांचाली !” कृष्ण का स्वर शीतल वयार का सा प्रभाव लिये हुए था । “मैं अब और नहीं सह सकती केशव ! असहनीय है, यह सब कुछ मेरे लिए ।" द्रौपदी हिचकियों के मध्य बोली, “जिसका कोई न हो, उस अनाथा का भी, इतना अपमान नहीं होता। वह अपमान ।"

"मैं समझता हूँ कृष्णे !” कृष्ण बोले, "और यह भी कहा कि निश्चय ही, कौरव इस पाप का भीषण दंड पाएँगे। धर्म उनको कभी क्षमा नहीं करेगा ।"

लगा, द्रौपदी के शरीर पर जैसे कशाघात हुआ सारा शरीर झकोला खा गया। भीतरी ताप से उसके अश्रु सूख गए । हिचकियां बंद हो गई। आँखों से चिंगारियाँ फूटने लगीं, “नाम मत लो धर्म का उसके लिए ये धर्मराज ही बहुत हैं ।"

कृष्ण, उस स्थिति में भी मुस्करा पड़े "धर्मराज !...." 'धार्तराष्ट्रों के विरुद्ध मेरे  मन में क्या  है, वह कहने की बात नहीं ।"

 द्रौपदी आवेश भरे स्वर में बोली, “मैं धिक्कारती  हूँ अपने इन पाँच पतियों को, इनके क्षत्रियत्व को, इनके युद्ध-कौशल इनके दिव्यास्त्रों को ..." द्रौपदी अग्नि-शिखा- सी जल रही थी, “केशों से पकड़, दुःशासन, मुझे भरी सभा में घसीट लाया; और ये लोग बैठे देखते रहे । वे मुझे निर्वस्त्र करने का प्रयत्न करते रहे, काम-भोग का निमंत्रण देते रहे; और ये सिर झुकाए धर्म-चिंतन करते रहे। क्या करूँ मैं धर्मराज के धर्म का, मध्यम के बल का, धनंजय के गांडीव का, सहदेव की खड्ग का तथा नकुल की अश्व संचालन क्षमताओं का ? ये सब मिलकर भी अपनी पत्नी के सम्मान की रक्षा नहीं कर सके ! एक साधारण-सा अपंग पुरुष भी, अपनी पत्नी के सम्मान की रक्षा के लिए दहाड़ता और चिंघाड़ता है और दिव्यास्त्रों से सज्जित ये विश्वविख्यात् क्षत्रिय योद्धा मुँह लटकाए बैठे, अपने पैरों के अंगूठों से भूमि कुरेदते रहे । धर्म- ।"

"मैं तुम्हारा कष्ट समझता हॅू कृष्णा !" कृष्ण धीरे से बोले, "यदि मैं वहाँ उपस्थित होता, तो निश्चित् रूप से दुर्योधन यह सब नहीं कर पाता । "

" पर तुम वहाँ उपस्थित नहीं थे केशव !” द्रौपदी का स्वर पुनः आरोह की ओर बढ़ा, "और धर्मराज आज भी क्षमा को प्रतिशोध से अधिक वरेण्य बता रहे हैं । अब तुम ही कहो, मैं यह सारा अत्याचार कैसे भूल जाऊँ ?”

"तुम भूल भी जाओ, तो मैं नहीं भूलूँगा । धर्म इसे नहीं भूलेगा, प्रकृति इसे नहीं भूलेगी। प्रकृति कुछ नहीं भूलती । धार्तराष्ट्रों को उनके कृत्य का फल अवश्य मिलेगा। कौरव दंडित होंगे ।"

"कौन दंड देगा उन्हें ?" द्रौपदी का अविश्वास जैसे मूर्तिमंत हो उठा, "धर्मराज ?"

"हाँ ! धर्मराज उन्हें दंडित करेंगे। पाँचों पांडव मिलकर उन्हें दंडित करेंगे ।" कृष्ण की आँखों में एक असाधारण ज्योति थी, "वे नहीं करेंगे, तो मैं कौरवों को दंडित करूँगा । यदि धर्मराज को आपत्ति न हो, तो मैं यहीं से, हस्तिनापुर चलने को प्रस्तुत हूँ । उन सारे पापियों का संहार मैं स्वयं अपने हाथों से, वैसे ही कर दूँगा, जैसे शिशुपाल का किया था ।"

द्रौपदी उन आँखों को देख नहीं रही थी, वह तो उनके तेज का पान कर रही थी । उसके चेहरे पर उभर आई उग्र रेखाएँ कुछ शांत हुईं। नयनों में कुछ विश्वास जागा, "मैं तुम्हारे वचन पर अविश्वास नहीं करूँगी केशव मै तो मानती हूँ कि कौरवों की उस सभा में, मेरी रक्षा, तुमने ही की है। द्रौपदी का स्वर शांत था, “तुम वहाँ उपस्थित चाहे नहीं थे, किंतु तुम वर्तमान थे । दुःशासन के मन में तुम्हारा ही भय था, जिसने मेरी रक्षा ली; नहीं तो उन पिशाचों ने अपनी ओर से कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी।"

"बहन !" धृष्टद्युम्न ने पहली बार मुंह खोला, "जब वासुदेव ने कह दिया तो निश्चित् जानों कि कौरवों को इसका दंड अवश्य दिया जाएगा। इन नीचों को अपने रक्त से, अपने पिशाच कृत्यों का मूल्य चुकाना होगा। इनमें से एक भी क्षमा नहीं किया जायेगा ।"

द्रौपदी चुप रही, किंतु उसकी आँखों से पुनः अश्रु बह निकले, जैसे उसके भीतर का दुख रह-रहकर, हृदय से उठकर आँखों में आ जाता था ।

"मैं क्या करूँ ! मैं उस दृश्य को भूल नहीं पाती । और जब-जब मुझे उसकी याद आती है, मैं जैसे फिर से उस सभा में खड़ी कर दी जाती हूँ। मेरे कानों में उन दुष्टों के अट्टहास और अपशब्द गूँजने लगते हैं। उनकी दृष्टियाँ मेरे शरीर को भेदने लगती हैं। कैसे बताऊँ कि मेरे मन में अपने पतियों के लिए, कैसे-कैसे धिक्कार उठने लगते हैं । मेरे मन में इतनी भयंकर प्रतिहिंसा जागती है कि, इच्छा होती है, सारी सृष्टि को जलाकर क्षार कर दूँ ।"

"नहीं द्रौपदी ! यह मानव-धर्म नहीं है ।" कृष्ण की वाणी सांत्वना देकर, रक्त के तप्त कणों को शांत ही नहीं करती थी, सारे शरीर में जैसे बल का संचार कर जाती थी ।

द्रौपदी की उग्रता, उस वाणी से क्षीण होकर भी, पुनः भड़क उठी, "फिर वही धर्म ! धर्म की चर्चा मुझसे मत करो। मुझे धर्म से घृणा हो गई है । 

नरेंद्र कोहली 



सोमवार, 6 नवंबर 2023

 अब धृष्टद्युम्न स्वयं को रोक नहीं पाया। बोला, “कृष्णे ! तुम्हें अपने इन महावीर पतियों पर तनिक भी क्रोध नहीं आता ? ये अपना इतना अपमान सहकर क्लीवों के समान चुपचाप वहाँ से चले आए और अब तपस्वी-मुनियों के समान यहाँ शांतिपूर्वक बैठे, साधना कर रहे हैं।"

द्रौपदी के चेहरे पर सहमति नहीं उभरी। बोलीं , "मैं अपने भाई को यह अधिकार नहीं दे सकती, कि वह मेरे सम्मुख मेरे पतियों की निन्दा करे। वे साधारण जन नहीं हैं । वे अपने धर्म पर अटल हैं; और मैं भी अपने धर्म पर दृढ़ हूँ। मैं अपने भाई अथवा पिता के द्वारा अपने पतियों को अपमानित होते नहीं देखना चाहती ।"

 धृष्टद्युम्न सँभल गया कृष्णा केवल उसकी बहन ही नहीं, पांडवों की पत्नी भी थी। पति से अधिक घनिष्ठ और विश्वसनीय और कोई व्यक्ति नहीं होता, भाई भी नहीं ! 

"मैं उनका अपमान करना नहीं चाहता। वे अपने धर्म पर अटल हैं, यह तो उचित ही है; किंतु धर्मराज को द्यूत में अपनी पत्नी को दाव पर लगाने की क्या आवश्यकता थी ?" इच्छा होते हुए भी, धृष्टद्युम्न स्वयं को रोक नहीं पाया, "नारी पर इतना अत्याचार !और तुम उसे धर्म कह रही हो।"

द्रौपदी की आँखें, अपने भाई की ओर उठीं। उनमें कटाक्ष था, "क्या अब परिवार को भी नारी और पुरुष में विभक्त कर देखा जायेगा ? जब महाराज शांतनु की पट्टमहिषी गंगा ने अपने सात-सात पुत्र देव-सरिता में प्रवाहित कर जीवन- मुक्त कर दिया था, तब तो किसी ने नहीं पूछा था कि वे नारी होकर पुरुषों पर इतना अत्याचार क्यों कर रही माँ और पुत्र का संबंध भी क्या 'नारी' और 'पुरुष' के रूप में वर्गीकृत हो सकता है ?"

"नहीं !" धृष्टद्युम्न को द्रौपदी की उक्ति में ही अपना समर्थन मिल गया, “किंतु पति और पत्नी का संबंध तो स्त्री और पुरुष का ही है ।"

“नहीं ! वह दो समुदायों के प्रतिनिधियों का मिलन नहीं है । वह दो व्यक्तियों का एक हो जाने का प्रयत्न है ।" द्रौपदी बोली, "और जहाँ तक धर्मराज के द्यूत का संबंध है, उन्होंने पहले अपने भाइयों को दाव पर लगाया, जो पुरुष हैं।" द्रौपदी का स्वर कुछ उग्र हो उठा,

 “वे कभी न चाहते कि उनके भाई और उनकी पत्नी दाव पर लगें; किंतु वे द्यूत-शास्त्र, द्यूत-परंपरा और धृतराष्ट्र के आदेश का क्या करते ! संपत्ति शेष रहते, कोई पक्ष द्यूत से उठ नहीं सकता था। अब बताओ, तुम्हारे अर्थशास्त्र के अनुसार, परिवार के सदस्य, परिवार के मुखिया की संपत्ति हैं या नहीं ? तुम पिताजी की संपत्ति हो या नहीं ? तुम्हारी पत्नी और संतान, तुम्हारी संपत्ति हैं या नहीं ? गंगा के पुत्र उनकी संपत्ति थे या नहीं ?"

“तुम सत्य कह रही हो ।" धृष्टद्युम्न का स्वर मंद हो गया । " मैंने अपने पिता के संकल्प के कारण हवन कुंड से पुनर्जन्म ग्रहण किया था; और वीर्य-शुल्का बन गई थी," द्रौपदी की आँखों में तेज लहरा रहा था, "अब जब मैं अपने पति के धर्म के कारण दावँ पर लगी, तो स्थिति बदल गई ? तब 'पुत्री' थी, तो अब 'पत्नी' क्यों नहीं हूँ ? अब मैं पत्नी न रहकर 'स्त्री' हो गई ? क्या तुम नहीं समझते भैया ! कि मैंने कांपिल्य के धनुर्यज्ञ में कर्ण का जो तिरस्कार किया था, कर्ण उसका प्रतिशोध ले रहा है। जो पीड़ा मैंने उसे दी, वह उससे शतगुणित पीड़ा पांडवों को दे रहा है ? पांडव, महाराज द्रुपद के जामाता हैं, इसलिए वे भीष्म और द्रोण के द्वारा तिरस्कृत हो रहे है ? मैं उनके कारण कष्ट नहीं पा रही; वे मेरे कारण अपमानित और प्रताड़ित हो रहे हैं ।"

धृष्टद्युम्न कुछ क्षण मौन खड़ा, द्रौपदी के इस रूप को देखता रहा। पंडिता तो वह पहले भी थी। तर्क भी किया करती थी । किंतु इतनी सहिष्णु तो वह कभी नहीं थी...." मैंने कभी इस रूप में नहीं सोचा कृष्णे !" अंततः धृष्टद्युम्न बोला, "तुम जानती हो, मैं योद्धा हूँ, तुम्हारे समान दार्शनिक कभी नहीं रहा। जब चर्चा होती है, विश्लेषण होता है, तो मैं भी कुछ-कुछ समझने लगता हूँ कि धर्मराज युधिष्ठिर असाधारण हैं, हमसे, सब सामान्य लोगों से भिन्न हैं, उदात्त हैं, किंतु मेरी प्रकृति इससे विद्रोह करती है । मैं अपने विपक्षी के विरुद्ध, तत्काल शस्त्र उठा लेना चाहता हूँ, धर्मराज के समान, उसे क्षमा नहीं कर देना चाहता । तुम जानती हो कृष्णा ! मैं अपनी प्रकृति को बदल नही सकता। मैं हवन- में से उत्पन्न हुआ हूँ, अग्नि के रथ पर । मैं जिस धर्म को जानता और हूँ, वह क्षत्रिय धर्म है-- ।"

"तुम कहना चाहते हो भैया ! कि पांडव क्षत्रिय धर्म का पालन नहीं कर रहे ? भीम और अर्जुन क्षत्रिय नहीं धृष्टद्युम्न ने कोई उत्तर नहीं दिया वह यह कैसे कह सकता था कि भीम और अर्जुन क्षत्रिय नहीं हैं" न यह कह सकता था कि वे अपने धर्म का आचरण नहीं कर रहे" 

" वस्तुतः मात्र हिंसा करने वाला क्षत्रिय नहीं है ।" द्रौपदी का स्वर एक गहरी गूँज लिये हुए था, "कई बार तो धर्म, शस्त्र न उठाने में होता है ।"

धृष्टद्युम्न समझ गया । बहन से तर्क-वितर्क करना व्यर्थ था। अग्नि कुंड में से, उसके साथ जन्मी, उसकी यह सहोदरा, अब कदाचित् अग्नि-धर्मा नहीं रह गई थी । वह धर्मराज के प्रभाव में शीतलमना हो गई थी. "तो फिर अब तुम लोगों की क्या योजना है ?" 

धृष्टद्युम्न का स्वर, कुछ उत्तेजना लिये हुआ था, “क्या तुम लोग मोक्ष प्राप्ति तक यहीं साधना करना चाहते हो ?..." और सहसा, उसे जैसे कुछ नया सूझ गया, "वैसे तुम्हें यह भी बता दूँ कृष्णे ! यदि धर्मराज शांतिपूर्वक यहाँ, वन में, तपस्वी का जीवन व्यतीत करना चाहें, तो वह दुष्ट दुर्योधन, उन्हें वह भी नहीं करने देगा। तुम लोग यहाँ तनिक भी सुरक्षित नहीं हो ।"

नरेंद्र कोहली 

 

शनिवार, 28 अक्तूबर 2023

 अर्जुन सजग हुआ । उसने कृष्ण की ओर देखा, वे उसके प्रिय सखा के रूप में सामने खड़े मुस्करा रहे थे। इस समय वे सर्वथा आत्मीय लग रहे थे। उनमें कुछ भी असाधारण नहीं था, कुछ भी भिन्न नहीं था। उनका दिव्य-भाव जाने कहाँ तिरोहित हो गया था। साधारण मनुष्य के समान अधरों पर नटखट मुस्कान लिए उसे देख रहे थे, जैसे कह रहे हों, 'देखा, तुम्हें कैसे छकाया ।" कृष्ण यह कैसे कर लेते हैं. कभी तो वे इतने निकट, इतने आत्मीय, इतने अपने होते हैं, और कभी वे इतने दिव्य, इतने विराट, इतने दूर होते हैं, जैसे आकाश पर खड़े हों, जिन्हें छूना अर्जुन के लिए संभव न हो "मैं सोचता हूँ कृष्ण ! जिस अनासक्ति की चर्चा तुम कर रहे हो, क्या इस संसार में रहकर वह संभव है ?..."

"क्यों ? संभव क्यों नहीं ?" कृष्ण ने कहा, "मिट्टी का साधारण-सा खिलौना टूट जाने पर, एक छोटा बालक जिस प्रकार गला फाड़कर चिल्लाता है, किसी वयस्क को रोते देखा है तुमने ?" उसी प्रकार रोते देखा है।

"नहीं !"

"क्यों नहीं रोता वयस्क ? इसलिए कि उसका चिंतन-मनन, ज्ञान तथा अनुभव से यह समझ चुका है और प्रौढ़ मन, अपने मिट्टी का खिलौना इतना मूल्यवान नहीं कि उसके लिए इस प्रकार रोया जाए ।" कृष्ण ने अर्जुन की ओर देखा, "क्या उसी प्रकार कुछ और अधिक प्रौढ़ नहीं हुआ जा सकता, जिससे सांसारिक सुखों की वास्तविकता भी मिट्टी के उस खिलौने के समान हमारे सामने प्रकट हो जाए ?"

"संभव क्यों नहीं !" अर्जुन जैसे "उन सुखों की निरर्थकता का साक्षात्कार हम कर लेंगे, तो उनके प्रति आसक्ति अपने आप ही समाप्त हो जायेगी । अर्जुन अपने-आपसे बोला । कृष्ण से कहा।

"तुम ठीक कह रहे हो । मेरा ध्यान कभी इस ओर गया ही नहीं ।" अर्जुन पुनः अपने भीतर कहीं बहुत डूब गया था।

गुरुवार, 26 अक्तूबर 2023

 आज की हिन्दी 1960 के दशक की हिन्दी से बहुत भिन्न है। तब हिन्दी में कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग शब्दों में अनुस्वार अर्थात बिन्दी का प्रयोग भिन्न-भिन्न ढंग से भिन्न भिन्न शब्दों पर किया जाता था। चन्द्र बिन्दी का उपयोग भी बहुत सारे शब्दों पर किया जाता था, किन्तु हिन्दी को भारत के सभी अहिन्दीभाषी राज्यों तथा विदेशों में भी लोकप्रिय बनाने के लिए दिल्ली प्रेस के संस्थापक विश्वनाथ जी के पदचिन्हों का अनुकरण बहुत से भाषाई विद्वानों ने किया और हिन्दी को सरल और सरलता से पठनीय बनाने के लिए हिन्दी लेखन में कुछ विशेष परिवर्तन किये गये, जो कि आज बहुतायत में नज़र आते हैं।

हिन्दी में विराम चिह्नों के रूप में पहले तीन चिह्न प्रयोग किये जाते थे। कौमा (, अल्प विराम) सैमी कौमा (; अर्द्ध विराम) और पूर्ण विराम। हिन्दी को सरल बनाने के लिए अर्द्ध विराम का प्रयोग अब लगभग समाप्त कर दिया गया है। एक वाक्य है. उसे अपने घर जाना था, लेकिन अचानक उसके एक दोस्त का फोन आया, जिसकी तबियत बहुत खराब थी, इसलिए अपने घर जाने का इरादा त्याग कर, वह फौरन दोस्त के घर गया। इस सम्पूर्ण पैराग्राफ में जहाँ-जहाँ हमने कौमा (अल्प विराम) लगाया है, वहाँ पुरानी हिन्दी में सैमी कौमा (अर्द्ध विराम) लगाया जाता था। कौमा (अल्प विराम) वहाँ लगाया जाता था, जहाँ वाक्य बहुत हल्की सी रुकावटों के साथ बोला जा रहा हो। उदाहरण- राम, कृष्ण, सीता, गीता और राधा अच्छे मित्र हैं।

कौमा लगाने और न लगाने में कुछ और बातें ध्यान रखने योग्य हैं।उन बातों को हम बताते हैं।

1. जब दो वाक्यों के बीच 'तो' अथवा 'कि' शब्द आते हैं तो 'तो' और 'कि' से पहले या बाद में कौमा नहीं लगाया जाता। कुछ व्याकरण की पुस्तकों में भी इस तरह निरन्तर गलतियाँ हैं।

2. जब एक दूसरे से सम्बद्ध दो वाक्यों में से दूसरे वाक्य का पहला शब्द * लेकिन, किन्तु,, परन्तु, पर, क्योंकि, जो, जैसा, जिसे, जिसने, जिन्हें, जिन्होंने, जिनके, इसलिए, बल्कि, बशर्ते, वरना, अन्यथा, जबकि आदि हो तो उपरोक्त किसी भी शब्द से पहले वाले वाक्य के अन्तिम शब्द के बाद कौमा () लगाया जाना चाहिए।

3. एक बात यह भी ध्यान में रखनी चाहिए कि जब हम भविष्य काल का संकेत देता कोई वाक्य लिखते हैं तो उस वाक्य का अन्तिम अक्षर यदि * 'गा, गे, गी* हो तो उस पर अनुस्वार या बिन्दी का प्रयोग नहीं किया जाता।

*'गा' से पहले के अक्षर पर कभी अनुस्वार का प्रयोग नहीं किया जाता, लेकिन ** से पहले वाले अक्षर पर हमेशा अनुस्वार का उपयोग किया जाता है, जबकि *'गी'* से पहले के अक्षर पर अनुस्वार का उपयोग तभी किया जाता है, जब वाक्य बहुवचन का बोध करा रहा हो अथवा जिसके लिए वाक्य लिखा जा रहा हो, उसे सम्मान दिया जा रहा हो। उदाहरण-

(क) * वे सब कुतुबमीनार देखने जायेंगी । *(बहुवचन)

(ख) * दादीजी आज व्रत का खाना खायेंगी । *(सम्मान सूचक)

यदि हम किसी एक ही स्त्री के लिए * 'गी'* का प्रयोग करेंगे तो उससे पहले के अक्षर पर अनुस्वार नहीं आयेगा।

उदाहरण - *सीता स्कूल जायेगी। * 

* गीता खाना खायेगी। *।

समझ जाइये कि जब आप खायेगा, गायेगा, जायेगा, चलेगा, बोलेगा, कहेगा, सुनेगा, देखेगा, लिखेगा '* आदि शब्द लिखेंगे तो 'गा'* से पहले वाले अक्षर पर अनुस्वार अर्थात बिन्दी का प्रयोग नहीं होगा। किन्तु जब आप *'खायेंगे, गायेंगे, जायेंगे, चलेंगे, बोलेंगे, कहेंगे, सुनेंगे, देखेंगे, लिखेंगे'* आदि शब्द लिखेंगे तो *'गे'* से पहले वाले अक्षर पर सदैव अनुस्वार अर्थात बिन्दी लगाई जायेगी। मगर जब आप भविष्य काल के वाक्य में * 'गी'* का प्रयोग करेंगे तो * 'गी'* से पहले वाले अक्षर पर अनुस्वार का प्रयोग तभी होगा, जब वाक्य का प्रारम्भिक शब्द बहुवचनीय हो अथवा किसी महिला के सम्मान में प्रयुक्त हो, जबकि एकवचनीय स्थिति में * 'गी'* से पहले के अक्षर पर अनुस्वार अर्थात बिन्दी नहीं लगाई जायेगी।

गौर कीजिये -

हमने आरम्भ में एक वाक्य लिखा है- परन्तु कौमा लगाने और न लगाने में कुछ और बातें ध्यान में रखने योग्य हैं..... यहाँ हमने *'परन्तु'* से एक स्वतंत्र वाक्य आरम्भ किया है, इसलिए यहाँ परन्तु से पहले कौमा होने का कोई मतलब नहीं है, लेकिन जब * किन्तु, परन्तु, लेकिन ' * किन्हीं दो वाक्यों को जोड़ने का काम करते हैं और ये शब्द जुड़ने वाले दूसरे वाक्य का पहला शब्द होते हैं तो इन शब्दों से पहले, पहले वाक्य के अन्तिम शब्द के बाद बिना किसी स्पेस के कौमे का उपयोग किया जाना चाहिए।

यह सब जो मैंने इस पोस्ट में लिखा है,  निसन्देह आप विद्यार्थियों के साथ  कुछ नये लेखकों को शुद्ध-अशुद्ध का सही ज्ञान हो सकेंगा।

बुधवार, 25 अक्तूबर 2023

 आत्मविश्वास का फार्मूला:-

पहला : मैं जानता हूँ कि मुझमें जीवन के निश्चित लक्ष्य को हासिल करने की योग्यता है और इसलिए मैं खुद से यह अपेक्षा रखता हूँ कि मैं इसे हासिल करने के लिए निरंतर और लगन से कार्य करूँ और मैं यहाँ पर अभी यह वादा करता हूँ कि मैं इसी तरह से कार्य करूँगा।

दूसरा : मुझे एहसास है कि मेरे मस्तिष्क के प्रबल विचार अंततः अपने आपको बाहरी, भौतिक कार्यों में बदल लेंगे और धीरे-धीरे अपने आपको भौतिक वास्तविकता में रूपांतरित कर लेंगे। इसलिए मैं अपने विचारों को हर दिन तीस मिनट तक इस बात पर एकाग्र करूँगा कि मैं किस तरह का इंसान बनने के बारे में सोच रहा हूँ ताकि मेरे मस्तिष्क में इसकी एक स्पष्ट तस्वीर रहे।

तीसरा : मैं जानता हूँ कि आत्मसुझाव के सिद्धांत के प्रयोग के द्वारा मैं जिस भी इच्छा को अपने मस्तिष्क में निरंतर बनाए रखूँगा वह अंततः किसी प्रैक्टिकल तरीके के द्वारा अपने आपको भौतिक समतुल्य में बदल लेगी और मुझे वह वस्तु हासिल हो जाएगी जिसका मैंने लक्ष्य बनाया है। इसलिए मैं हर दिन दस मिनट इस काम में दूंगा कि मैं आत्मविश्वास का विकास करूँ ।

चौथा : मैंने स्पष्ट रूप से जीवन में अपने प्रमुख निश्चित लक्ष्य का वर्णन लिख लिया है और मैं कोशिश करना कभी नहीं छोडूंगा जब तक कि मुझमें इसे हासिल करने का पर्याप्त आत्मविश्वास विकसित न हो जाए।

पांचवां: मुझे पूरी तरह एहसास हैं कि कोई भी संपत्ति या पद तब तक लंबे समय तक बना नहीं रह सकता जब तक कि यह सत्य और न्याय पर आधारित न हो। इसलिए मैं किसी भी ऐसी गतिविधि में संलग्न नहीं होऊँगा जिससे इससे प्रभावित होने वाले सभी लोगों को लाभ न हो। मैं ऐसी शक्तियों को अपनी तरफ आकर्षित करके सफलता पाऊँगा जिनका मैं प्रयोग करना चाहता हूँ और मैं दूसरे लोगों के सहयोग के द्वारा सफलता पाऊँगा। मैं दूसरे लोगों को प्रेरित करूँगा कि वे मेरी सेवा करें क्योंकि मैं हमेशा दूसरों की सेवा करने का इच्छुक रहूँगा। मैं सारी मानवता के प्रति प्रेम विकसित करूँगा और घृणा, ईर्ष्या, स्वार्थ और दोष देखने की आदत को अपने मस्तिष्क से दूर करूँगा क्योंकि मैं जानता हूँ कि दूसरों के प्रति नकारात्मक नज़रिया रखने से मुझे कभी सफलता नहीं मिल सकती। मैं ऐसे काम करूँगा जिससे दूसरों को मुझ पर विश्वास हो क्योंकि मैं उनमें और अपने आपमें विश्वास रखूँगा। मैं इस फ़ॉर्मूले पर अपने हस्ताक्षर करूँगा और इसे याद कर लूँगा और इसे हर दिन ज़ोर-ज़ोर से दोहराऊँगा । ऐसा करते समय मुझे पूरा विश्वास होगा कि यह मेरे विचारों और कार्यों को धीरे-धीरे प्रभावित करेगा ताकि मैं एक स्वावलंबी और सफल व्यक्ति बन सकूँ।

सोमवार, 16 अक्तूबर 2023

 पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत कैसे हुई इसका एक रासायनिक सुराग भाग 

पृथ्वी पर सदैव जीवन नहीं था। लेकिन लगभग 4 अरब साल पहले, पर्यावरण में कुछ बदलाव आया और जैविक गुणों वाली प्रणालियाँ उभरने लगीं। कई वैज्ञानिकों का मानना ​​है कि अमीनो एसिड नामक अणुओं का जीवंत नृत्य इस बदलाव के लिए आंशिक रूप से जिम्मेदार है: अणु जुड़े, टूटे और अंततः जीवन बनाने के लिए एक साथ आए जैसा कि हम जानते हैं।

हम शायद कभी नहीं जान पाएंगे कि यह प्रक्रिया कैसे काम करती है, लेकिन आज रसायनज्ञों ने नई खोजें की हैं जो जीवन के निर्माण के आशाजनक सिद्धांतों पर आधारित हैं।

स्क्रिप्स रिसर्च में रसायन विज्ञान के सहायक प्रोफेसर, पीएचडी, ल्यूक लेमन कहते हैं, "रसायन विज्ञान ने जीवन को जटिल कैसे बनाया, यह सबसे दिलचस्प सवालों में से एक है जिस पर मानव जाति ने विचार किया है।" "प्रोटीन की उत्पत्ति के बारे में बहुत सारे सिद्धांत हैं लेकिन इन विचारों के लिए इतना प्रायोगिक प्रयोगशाला समर्थन नहीं है।"

लेमन ने हाल ही में प्रारंभिक पृथ्वी पर जीवन की विधि पर एक अध्ययन का सह-नेतृत्व किया; यह शोध प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित हुआ है । उन्होंने जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी और सेंटर फॉर केमिकल इवोल्यूशन के शोधकर्ताओं के साथ मिलकर काम किया, जो राष्ट्रीय विज्ञान फाउंडेशन और नासा द्वारा समर्थित है।

जॉर्जिया टेक में पोस्टडॉक्टरल फेलो और पेपर के पहले लेखक मोरन फ्रेनकेल-पिंटर, पीएचडी, कहते हैं, "शोध हमें यह समझने में मदद करता है कि प्री-बायोटिक पृथ्वी पर सकारात्मक रूप से चार्ज किए गए पेप्टाइड्स कैसे बन सकते हैं।" पेप्टाइड्स तब बनते हैं जब दो या दो से अधिक अमीनो एसिड बिल्डिंग ब्लॉक आपस में जुड़ते हैं, जिससे प्रोटीन बनता है जो हर जीव को बनाता है।

लेमन, फ्रेनकेल-पिंटर और इस क्षेत्र के कई अन्य वैज्ञानिकों को यह अजीब लगता है कि हमारे ग्रह पर प्रत्येक जीवित वस्तु 20 अमीनो एसिड के ठीक उसी सेट से अपना प्रोटीन बनाती है। वह विशिष्ट सेट क्यों? वैज्ञानिकों को पता है कि वहाँ बहुत सारे अमीनो एसिड हैं। दरअसल, 80 अमीनो एसिड तक वाले उल्कापिंड पृथ्वी पर उतरे हैं।

"प्रीबायोटिक अर्थ में, अमीनो एसिड का एक बहुत बड़ा सेट रहा होगा," लेमन कहते हैं, जो सेंटर फॉर केमिकल इवोल्यूशन में वैज्ञानिक सहयोगी भी हैं। "क्या इन 20 अमीनो एसिड के बारे में कुछ खास है, या ये विकास के कारण एक क्षण में ही जम गए?"

नए अध्ययन से पता चलता है कि इन 20 अमीनो एसिड पर जीवन की निर्भरता कोई दुर्घटना नहीं है। शोधकर्ता बताते हैं कि प्रोटीन में उपयोग किए जाने वाले अमीनो एसिड के प्रकार एक साथ जुड़ने की अधिक संभावना रखते हैं क्योंकि वे एक साथ अधिक कुशलता से प्रतिक्रिया करते हैं और कुछ अप्रभावी दुष्प्रभाव होते हैं।

यह खोज शोधकर्ताओं को समय में पीछे देखने और जीवन की उत्पत्ति के लिए आगे के सिद्धांतों का परीक्षण करने के लिए एक कामकाजी मॉडल प्रदान करती है। यह समझना कि पेप्टाइड्स कैसे बनते हैं, सिंथेटिक रसायन विज्ञान के क्षेत्र के लिए भी महत्वपूर्ण है, जहां वैज्ञानिक नए अणुओं को डिजाइन करने का प्रयास कर रहे हैं जिनका उपयोग दवा उपचार और सामग्री विज्ञान के लिए किया जा सकता है।

नेशनल साइंस फाउंडेशन के सेंटर फॉर केमिकल इनोवेशन के कार्यक्रम निदेशक कैथी कोवर्ट कहते हैं, "यह काम यह समझने की दिशा में एक वास्तविक कदम है कि जीवन के लिए आवश्यक प्रोटीन में कुछ बिल्डिंग ब्लॉक क्यों पाए जाते हैं।" "इस तरह के अनुसंधान के माध्यम से, केंद्र सभी जीवित चीजों की नींव, बायोपॉलिमर के रसायन विज्ञान पर प्रकाश डालने के अपने महत्वाकांक्षी मिशन को साकार कर रहा है।"

प्रयोग के लिए, शोधकर्ताओं ने "प्रोटीनसियस" अमीनो एसिड की तुलना की - जो आज जीवों द्वारा उपयोग किए जाते हैं - उन अमीनो एसिड से जो जीवित चीजों में मौजूद नहीं हैं। शोधकर्ताओं को पता था कि पानी के वाष्पीकरण ने प्रारंभिक पृथ्वी पर अमीनो एसिड को एक साथ जोड़ने के लिए आवश्यक स्थितियां पैदा की होंगी, इसलिए उन्होंने प्राकृतिक परिस्थितियों की नकल करने के लिए एक सुखाने की प्रतिक्रिया का उपयोग किया - पानी वाष्पित हो जाता है और गर्मी लागू होती है - जो अमीनो एसिड को पेप्टाइड बनाने का कारण बनती है।

लेमन कहते हैं, "गर्म करने और सुखाने के चक्रों के साथ, आप अमीनो एसिड की श्रृंखला बना सकते हैं जो प्रोटीन संरचनाओं के समान हैं।"

उनके प्रयोगों से पता चला है कि प्रोटीनयुक्त अमीनो एसिड एंजाइम या सक्रिय एजेंटों जैसे किसी अन्य तत्व की आवश्यकता के बिना बड़े "मैक्रोमोलेक्यूल्स" बनाने के लिए सहज रूप से जुड़ने की अधिक संभावना रखते हैं। यह जुड़ाव प्रोटीन बनाने में एक महत्वपूर्ण कदम है।

ऐसा प्रतीत होता है कि प्रोटीनयुक्त अमीनो एसिड अपनी संरचना के एक भाग, जिसे अल्फ़ा-एमाइन कहा जाता है, के माध्यम से प्रतिक्रियाशीलता पसंद करते हैं। उन्होंने ज्यादातर रैखिक, प्रोटीन जैसी रीढ़ की हड्डी "टोपोलॉजी" (ज्यामितीय संरचनाएं) बनाईं। यह प्रवृत्ति इन अमीनो एसिड को मोड़ने और बांधने में एक प्रमुख शुरुआत दे सकती है, जो अंततः प्रोटीन की ओर ले जाती है।

उनके द्वारा देखे गए रसायन विज्ञान के आधार पर, वैज्ञानिकों के पास अब आज के प्रोटीन में पाए जाने वाले सकारात्मक रूप से चार्ज किए गए अमीनो एसिड के चयन के लिए एक संभावित स्पष्टीकरण है।

लेमन कहते हैं, "यह एक पूरी तरह से रासायनिक प्रेरक शक्ति है जो अन्य अमीनो एसिड की तुलना में कुछ अमीनो एसिड के चयन का कारण बन सकती है।"

लोरेन विलियम्स, पीएचडी, जॉर्जिया टेक के प्रोफेसर और अध्ययन के सह-नेता, का कहना है कि शोध रसायनज्ञों को यह समझने के लिए एक प्रारंभिक बिंदु देता है कि प्रारंभिक पृथ्वी पर जीवन कैसे शुरू हुआ होगा, जिसे हेडियन अर्थ भी कहा जाता है। विलियम्स, जो सीसीई के सदस्य भी हैं, कहते हैं, "हम यह समझना शुरू कर रहे हैं कि कैसे पूरी तरह से रासायनिक प्रक्रियाएं, हेडियन पृथ्वी पर आधारित, ऐसे अणुओं का उत्पादन कर सकती हैं जिनमें जैविक पॉलिमर के साथ आश्चर्यजनक समानताएं हैं।"

आगे बढ़ते हुए, शोधकर्ता यह जांच करना चाहेंगे कि ये अमीनो एसिड आरएनए के साथ कैसे बातचीत करते हैं, प्रारंभिक घटक जिसने विकास में अगला कदम संभव बनाया होगा।

फ्रेनकेल-पिंटर कहते हैं, "यह जानना दिलचस्प होगा कि प्रोटीन के ये सकारात्मक रूप से चार्ज किए गए पूर्वज आरएनए जैसे नकारात्मक चार्ज वाले अणुओं के साथ कैसे सहयोग करते हैं।"

https://www.sciencedaily.com/releases/2019/08/190801093310.htm?fbclid=IwAR1GzJhGqjWG1Hijp_Y8tYg7FcQVZmS4DN6XGHoF7yKofHwxUll1mgsDTBw#

गुरुवार, 12 अक्तूबर 2023

" प्रेमी का प्रेम अस्थिर होता है, आवेशपूर्ण होता है, किसी पहाड़ी नदी के समान ! और पति का प्रेम धीर, गम्भीर होता है, गहरा और मन्थर-गंगा के समान । उसमें आवेश और उफान चाहे न आये, किन्तु वह सदा भरा-पूरा है । वह अकस्मात् ही बहाकर चाहे न ले जाये, किन्तु पार अवश्य उतारता है।” "मैं समझती हूँ।” पारंसवी ने पूर्ण विश्वास के साथ अपना कपोल विदुर की हथेली पर टिका दिया, "किन्तु आर्यपुत्र ! बाढ़ तो गंगा में भी आती है।"


विदुर हँसा, “आती है, मात्र वर्षा ऋतु में; और उससे क्षति ही होती है


प्रिये ! जाने क्या-क्या नष्ट हो जाता है । " पारसवी हतप्रभ नहीं हुई, "बाढ़ उतर जाती है, तो उजड़े परिवार फिर से बस जाते हैं। खेतों में नयी उपजाऊ मिट्टी आ जाती है। समग्र रूप से बहुत हानि नहीं होती ।" विदुर की भुजाएँ, आलिंगन

मंगलवार, 10 अक्तूबर 2023

 " विधाता ने हमारा जो यह शरीर बनाया है, यह बहुत समर्थ है और दूसरी ओर बेचारा बहुत असहाय है-पराधीन जो ठहरा। विधाता ने शरीर की आवश्यकताओं को अभिव्यक्ति देने के लिए मन को उसके साथ लगा दिया है; किन्तु मन स्वेच्छाचारी है। वह शरीर की आवश्यकताओं को समझने और अभिव्यक्त करने में मनमानी करता है। परिणाम यह है कि उसके कारण शरीर को कष्ट होता है । भोग की इच्छा शरीर की भी है, और मन की भी; किन्तु भोग का कर्म करना पड़ता है शरीर को, भोग की जितनी आवश्यकता शरीर को है, उतना भोग पाकर शरीर प्रसन्न होता है; किन्तु मन अपनी स्वेच्छाचारिता नहीं छोड़ता । उसे भुगतना कुछ नहीं पड़ता न ! वह तो स्वामी है। दास तो शरीर है। तो स्वामी की इच्छा पूरी करने के लिए भी शरीर को ही श्रम करना पड़ता है। और स्वामी है कि अपने दास के सुख-दुख की चिन्ता नहीं करता । तव जितना भोग शरीर पर आरोपित किया जाता है, वह भोग नहीं शरीर का क्षय होता है आप समझे महाराजकुमार ?" " समझ गया," भीष्म जैसे अपने आप में डूबे हुए-से वोले, "क्या आप


सम्राट् के स्वास्थ्य की सूचना दे रहे हैं ?"


"हाँ महाराजकुमार ! अब समय आ गया है कि आप सम्राट् के शरीर और रोग की स्थिति समझ लें।" राजवैद्य बोले, “सम्राट् का मन न केवल शरीर की आवश्यकता और क्षमता को नहीं समझता, वरन् उसके प्रति सर्वथा आततायी हो गया है। उनका शरीर क्षय के सोपान चढ़ता जा रहा है, और उनका मन भोग का आह्वान करता जा रहा है। वैद्य का धर्म रोग का निदान करना, और उसके लिए औषध प्रस्तुत करना है। सम्राटों का नियन्त्रण, वैद्य का कर्म नहीं है। वह सम्राट् के आत्मीय जनों का कर्म है। इसलिए मैं यह सूचना आपको देने आया हूँ कि सम्राट् का रोग हमारी पहुँच से बाहर जा रहा है। उन्हें सँभालना कठिन हो रहा है। यदि आप सम्राट् को सँभाल लेंगे, तो आज भी हमारा विश्वास है कि हम उनके रोग को सँभाल लेंगे ।" राजवैद्य ने रुककर भीष्म को देखा, "आपने देखा महाराजकुमार ! कभी-कभी वैद्य का धर्म रोगी के निकट नहीं, रोगी


के आत्मीय जनों के निकट भी होता है।" भीष्म गम्भीर दृष्टि से वैद्य की ओर देखते रहे। फिर धीरे से बोले, "कोई चिन्ताजनक बात तो नहीं है। "


"अव वैद्य के रूप में आपके सम्मुख स्पष्ट बोल रहा हूँ," राजवैद्य ने कहा,


"बात चिन्ताजनक स्थिति तक पहुँच गयी है, और बहुत ही शीघ्र चिन्तातीत स्थिति


में पहुँच जायेगी।"


"आपने राजमाता को बताया ?"

शनिवार, 7 अक्तूबर 2023

 12वीं में फेल हुए, 500 रुपये लेकर पहुंचे अमेरिका, खूब की नौकरी, फिर देश आकर खड़ी कर दी 1 लाख करोड़ की कंपनी

पैसा कमाने और पहचान बनाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है. लेकिन, सफलता की राह इतनी आसान नहीं होती है क्योंकि इस रास्ते पर कई असफलताएं आपका इंतजार करती हैं. फिर भी कुछ लोग धुन के इतने पक्के होते हैं कि आखिरकार कामयाबी के शिखर पर पहुंच जाते हैं. हम आपको एक ऐसे ही शख्स की कहानी सुना रहे हैं जिन्होंने 12वीं फेल होने के बावजूद 1 लाख करोड़ की कंपनी खड़ी कर दी.

आपने दवा बनाने वाली कंपनी डिवीज लैब के बारे में जरूर सुना होगा, लेकिन क्या आप इस कंपनी के फाउंडर मुरली डिवी के बारे में जानते हैं. आखिर कैसे उन्होंने इस कंपनी को खड़ा किया. यकीन मानिए उनके संघर्ष और मेहनत की कहानी सुनकर आपको भी जिंदगी में कुछ बड़ा करने की प्रेरणा मिलेगी.

10,000 की पेंशन पर चलता था परिवार

मुरली डिवी आंध्र प्रदेश के एक छोटे-से शहर से ताल्लुक रखते हैं. उनका बचपन आर्थिक तंगी में गुजरा क्योंकि, उनके पिता साधारण से कर्मचारी थे और मामूली-सी तनख्वाह में 14 सदस्यीय परिवार का भरण-पोषण करते थे. अब वक्त का तकाजा देखिये कि मुरली डिवी अपने कंपनी के जरिए हजारों कर्मचारियों को परिवार चलाने के लिए रोजगार दे रहे हैं.

अरबों रुपये की फर्म को खड़ा करने वाले मुरली डिवी कक्षा 12वीं में दो बार फेल हो गए थे. लेकिन, नाकामयाब होने पर भी उन्होंने हार नहीं मानी और अपना भविष्य बनाने के लिए कड़ी मेहनत करते रहे. महज 25 साल की उम्र में 1976 में मुरली डिवी अमेरिका चले गए. यहां उन्होंने फार्मासिस्ट के तौर पर काम करना शुरू किया. फोर्ब्स इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, जिस समय मुरली डिवी अमेरिका रवाना हुए थे तब उनके हाथ में केवल 500 रुपये थे.

पहली नौकरी में कमाए 250 रुपये

अमेरिका में उन्होंने नौकरी करके हर साल लगभग $65000 यानी 54 लाख रुपये कमाए. इस दौरान मुरली डिवी ने कई कंपनियों के साथ काम किया. पहली जॉब में उन्हें 250 रुपये मिले. कुछ वर्षों तक काम करने के बाद उन्होंने भारत आने का फैसला किया. उस वक्त उनके पास 33 लाख रुपये थे. वे भारत लौट आए लेकिन उन्होंने यह तय नहीं किया कि उन्हें क्या करना है.

भारत लौटकर शुरू किया कारोबार
साल 1984 में मुरली डिवी ने फार्मा सेक्टर के लिए केमिनोर बनाने के लिए कल्लम अंजी रेड्डी से हाथ मिलाया, जिसका 2000 में डॉ. रेड्डीज लैबोरेटरीज के साथ विलय कर दिया गया. इस दौरान डॉ. रेड्डीज लैब्स में 6 वर्षों तक काम करने के बाद, मुरली डिवी ने 1990 में डिवीज लैबोरेटरीज लॉन्च की. उन्होंने दवाओं के निर्माण में इस्तेमाल होने वाले API यानी कच्चे माल का कारोबार शुरू किया. 1995 में मुरली डिवी ने अपनी पहली मैन्युफक्चरिंग यूनिट चौटुप्पल, तेलंगाना में स्थापित की. 2002 में, उन्होंने विशाखापत्तनम के पास कंपनी की दूसरी यूनिट शुरू की.

आज डिविज़ लैब्स फार्मा सेक्टर में API बनाने वाली शीर्ष तीन कंपनियों में से एमक है और इसका बाजार पूंजीकरण लगभग 1 लाख करोड़ रुपये है. हैदराबाद स्थित डिवीज़ लैबोरेट्रीज़ ने मार्च 2022 में 88 बिलियन रुपये का राजस्व दर्ज किया.

https://hindi.news18.com/news/business/success-story-divis-laboratories-ltd-founder-murali-divi-who-failed-in-class-12-now-run-100000-crore-firm-7728322.html?utm_medium=social&utm_source=whatsapp

रविवार, 17 सितंबर 2023


अकथ कहानी प्रेम की-(बाबा शेख फरिद)


पहला-प्रवचन


सूत्र

बोलै सेखु फरीदु पियारे अलह लगे।

इहु तन होसी खाक निमाणी गोर घरे।।

आजु मिलावा सेख फरीद टाकिम।

कूंजड़ीआ मनहु मचिंदड़ीआ।।

जे जाणा मरि जाइए घुमि न आईए।

झूठी दुनिया लगी न आपु वआईए।।

बोलिए सचु धरमु न झूठ बोलिए।

जो गुरु दसै वाट मुरीदा जोलिए।।

छैल लघंदे पार गोरी मनु धीरिआ।

कंचन वंने पासे कलवति चीरिआ।।

सेख हैयाती जगि न कोई थिरु रहिआ।

जिसु आसणि हम बैठे केते वैसि गइआ।।

कातिक कूंजां चेति डउ सावणि बिजुलीआं।


सीआले संहंदीआं पिर गलि बाहड़ीआं।।

चले चलणहार विचारा लेइ मनो।

गढ़ेदिआं छिह माह तुरंदिआ हिकु खिनो।।

जिमी पुछै असमान फरीदा खेवट किनी गए।

जारण गोरा नालि उलामे जीअ सहे। ।

हमें इस पद का मर्म समझाने की अनुकंपा करें।

प्रेम और ध्यान..दो शब्द जिसने ठीक से समझ लिए, उसे धर्मों के सारे पथ समझ में आ गए। दो ही मार्ग हैं। एक मार्ग है प्रेम का, हृदय का। एक मार्ग है ध्यान का, बुद्धि का। ध्यान के मार्ग पर बुद्धि को शुद्ध करना है..इतना शुद्ध कि बुद्धि शेष ही न रह जाए, शून्य हो जाए। प्रेम के मार्ग पर हृदय को शुद्ध करना है..इतना शुद्ध कि हृदय खो जाए, प्रेमी खो जाए। दोनों ही मार्ग से शून्य की उपलब्धि करनी है, मिटना है। कोई विचार को काट-काट कर मिटेगा; कोई वासना को काट-काट कर मिटेगा।

प्रेम है वासना से मुक्ति। ध्यान है विचार से मुक्ति। दोनों ही तुम्हें मिटा देंगे। और जहां तुम नहीं हो वहीं परमात्मा है।

ध्यानी ने परमात्मा के लिए अपने शब्द गढ़े हैं..सत्य, मोक्ष, निर्वाण; प्रेमी ने अपने शब्द गढ़े हैं। परमात्मा प्रेमी का शब्द है। सत्य ध्यानी का शब्द है। पर भेद शब्दों का है। इशारा एक ही की तरफ है। जब तक दो हैं तब तक संसार है; जैसे ही एक बचा, संसार खो गया।

शेख फरीद प्रेम के पथिक हैं, और जैसा प्रेम का गीत फरीद ने गाया है वैसा किसी ने नहीं गाया। कबीर भी प्रेम की बात करते हैं, लेकिन ध्यान की भी बात करते हैं। दादू भी प्रेम की बात करते हैं, लेकिन ध्यान की बात को बिल्कुल भूल नहीं जाते। नानक भी प्रेम की बात करते हैं, लेकिन वह ध्यान से मिश्रित है। फरीद ने शुद्ध प्रेम के गीत गाए हैं; ध्यान की बात ही नहीं की है; प्रेम में ही ध्यान जाना है। इसलिए प्रेम की इतनी शुद्ध कहानी कहीं और न मिलेगी। फरीद खालिस प्रेम हैं। प्रेम को समझ लिया तो फरीद को समझ लिया। फरीद को समझ लिया तो प्रेम को समझ लिया।

प्रेम के संबंध में कुछ बातें मार्ग-सूचक होंगी, उन्हें पहले ध्यान में ले लें।

पहली बातः जिसे तुम प्रेम कहते हो, फरीद उसे प्रेम नहीं कहते। तुम्हारा प्रेम तो प्रेम का धोखा है। वह प्रेम है नहीं, सिर्फ प्रेम की नकल है, नकली सिक्का है। और इसलिए तो उस प्रेम से सिवाय दुख के तुमने कुछ और नहीं जाना।

कल ही फ्रांस से आई एक संन्यासिनी मुझे रात पूछती थी कि प्रेम में बड़ा दुख है, आप क्या कहते हैं? जिस प्रेम को तुमने जाना है उसमें बड़ा दुख है, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन वह प्रेम के कारण नहीं है, वह तुम्हारे कारण है। तुम ऐसे पात्र हो कि अमृत भी विष हो जाता है। तुम अपात्र हो, इसलिए प्रेम भी विषाक्त हो जाता है। फिर उसे तुम प्रेम कहोगे तो फरीद को समझना बहुत मुश्किल हो जाएगा; क्योंकि फरीद तो प्रेम के आनंद की बातें करेगा; प्रेम का नृत्य और प्रेम की समाधि और प्रेम में ही परमात्मा को पाएगा। और तुमने तो प्रेम में सिर्फ दुख ही जाना है, चिंता, कलह, संघर्ष ही जाना है। प्रेम में तो तुमने एक तरह की विकृत रुग्ण-दशा ही जानी है। प्रेम को तुमने नरक की तरह जाना है। तुम्हारे प्रेम की बात ही नहीं हो रही है।

जिस प्रेम की फरीद बात कर रहा है, वह तो तभी पैदा होता है जब तुम मिट जाते हो। तुम्हारी कब्र पर उगता है फूल उस प्रेम का। तुम्हारी राख से पैदा होता है वह प्रेम। तुम्हारा प्रेम तो अहंकार की सजावट है। तुम प्रेम में दूसरे को वस्तु बना डालते हो। तुम्हारे प्रेम की चेष्टा में दूसरे की मालकियत है। तुम चाहते हो, तुम जिसे प्रेम करो, वह तुम्हारी मुट्ठी में बंद हो, तुम मालिक हो जाओ। दूसरा भी यहीं चाहता है। तुम्हारे प्रेम के नाम पर मालकियत का संघर्ष चलता है।

जिस प्रेम की फरीद बात कर रहा है, वह ऐसा प्रेम है जहां तुम दूसरे को अपनी मालकियत दे देते हो; जहां तुम स्वेच्छा से समर्पित हो जाते हो; जहां तुम कहते होः तेरी मर्जी मेरी मर्जी। संघर्ष का तो कोई सवाल नहीं है।

निश्चित ही ऐसा प्रेम दो व्यक्तियों के बीच नहीं हो सकता। ऐसा प्रेम दो सम स्थिति में खड़ी हुई चेतनाओं के बीच नहीं हो सकता। ऐसे प्रेम की छोटी-मोटी झलक शायद गुरु के पास मिले; पूरी झलक तो परमात्मा के पास ही मिलेगी। ऐसा प्रेम पति-पत्नी का नहीं हो सकता, मित्र-मित्र का नहीं हो सकता। दूसरा जब तुम्हारे ही जैसा है तो तुम कैसे अपने को समर्पित कर पाओगे? संदेह पकड़ेगा मन को। हजार भय पकड़ेंगे मन को। यह दूसरे पर भरोसा हो नहीं सकता कि सब छोड़ दो, कि कह सको कि तेरी मर्जी मेरी मर्जी है। इसकी मर्जी में बहुत भूल-चूक दिखाई पड़ेंगी। यह तो भटकाव हो जाएगा। यह तो अपने हाथ से आंखें फोड़ लेना होगा। ऐसे ही अंधेरा क्या कम है, आंखें फोड़ कर तो और मुश्किल हो जाएगी। यह तो अपने हाथ में जो छोटा-मोटा दीया है बुद्धि का, वह भी बुझा देना हो जाएगा। यह तो निर्बुद्धि में उतरना होगा। यह संभव नहीं है।

मनुष्य और मनुष्य के बीच प्रेम सीमित ही होगा। तुम छोड़ोगे भी तो सशर्त छोड़ोगे। तुम अगर थोड़ी दूसरे को मालकियत भी दोगे तो भी पूरी न दोगे, थोड़ा बचा लोगे..लौटने का उपाय रहे; अगर कल वापस लौटना पड़े, समर्पण को इनकार करना पड़े तो तुम लौट सको; ऐसा न हो कि लौटने की जगह न रह जाए। तुम सीढ़ी को मिटा न दोगे, लगाए रखोगे।

साधारण प्रेम बेशर्त नहीं हो सकता, अनकंडीशनल नहीं हो सकता। और प्रेम जब तक बेशर्त न हो तब तक प्रेम ही नहीं होता। तुमसे ऊपर कोई, जिसे देख कर तुम्हें आकाश के बादलों का स्मरण आए; जिसकी तरफ तुम्हें आंखें उठानी हों तो जैसे सूरज की तरफ कोई आंख उठाए; जिसके बीच और तुम्हारे बीच एक बड़ा फासला हो, एक अलंघ्य खाई हो; जिसमें तुम्हें परमात्मा की थोड़ी सी प्रतीति मिले..उसको ही हमने गुरु कहा है।

गुरु पूरब की अनूठी खोज है। पश्चिम इस रस से वंचित ही रह गया है; उसे गुरु का कोई पता ही नहीं है। वह आयाम जाना ही नहीं पश्चिम ने। पश्चिम को दो मित्रों का पता है, शिक्षक-विद्यार्थी का पता है, पति-पत्नी का पता है, प्रेमी-प्रेयसी का पता है; लेकिन फरीद जिसकी बात करेगा..गुरु और शिष्य..उसका कोई पता नहीं है।

गुरु और शिष्य का अर्थ हैः कोई ऐसा व्यक्ति जिसके भीतर से तुम्हें परमात्मा की झलक मिली; जिसके भीतर तुमने आकाश देखा; जिसकी खिड़की से तुमने विराट में झांका। उसकी खिड़की छोटी ही हो..खिड़की के बड़े होने की कोई जरूरत भी नहीं है; लेकिन खिड़की से जो झांका, वह आकाश था। तब समर्पण हो सकता है। तब तुम पूरा अपने को छोड़ सकते हो।

धर्म की तलाश मूलतः गुरु की तलाश है, क्योंकि और तुम धर्म को कहां देख पाओगे? और तो तुम जहां जाओगे, अपने ही जैसा व्यक्ति पाओगे। तो अगर तुम्हारे जीवन में कभी कोई ऐसा व्यक्ति आ जाए जिसको देख कर तुम्हें अपने से ऊपर आंखें उठानी पड़ती हों; जिसे देख कर तुम्हें दूर के सपने, आकांक्षा, अभीप्सा भर जाती हो; जिसे देख कर तुम्हें दूर आकाश का बुलावा मिलता हो, निमंत्रण मिलता हो..और इसकी कोई फिकर मत करना कि दुनिया उसके संबंध में क्या कहती है, यह सवाल नहीं है..तुम्हें अगर उस खिड़की से कुछ दर्शन हुआ हो तो ऐसे व्यक्ति के पास समर्पण की कला सीख लेना। उसके पास तुम्हें पहले पाठ मिलेंगे, प्राथमिक पाठ मिलेंगे..अपने को छोड़ने के। वे ही पाठ परमात्मा के पास काम आएंगे।

गुरु आखिरी नहीं है; गुरु तो मार्ग है। अंततः तो गुरु हट जाएगा, खिड़की भी हट जाएगी..आकाश ही रह जाएगा। जो खिड़की आग्रह करे, हटे न, वह तो आकाश और तुम्हारे बीच बाधा हो जाएगी; वह तो सेतु न होगी, विघ्न हो जाएगा।

जिस प्रेम की फरीद बात कर रहें हैं, उसकी झलक तुम्हें कभी गुरु के पास मिलेगी। तुम मुझसे पूछोगे की हम कैसे गुरु को पहचानें। मैं तुमसे कहूंगाः जहां तुम्हें ऐसी झलक मिल जाए। उसके अतिरिक्त और कोई कसौटी नहीं है। गुरु की परिभाषा यह है कि जहां तुम्हें विराट की थोड़ी सी झलक मिल जाए; जिस बूंद में तुम्हें सागर का थोड़ा सा स्वाद मिल जाए; जिस बीज में तुम्हें संभावनाओं के फूल खिलते हुए दिखाई पड़ें। फिर ध्यान मत देना कि दुनिया क्या कहती है, क्योंकि दुनिया का कोई सवाल नहीं है। जहां तुम खड़े हो, वहां से हो सकता है, किसी खिड़की से आकाश दिखाई पड़ता हो; जहां दूसरे खड़े हों वहां से उस खिड़की के द्वारा आकाश दिखाई न पड़ता हो। यह भी हो सकता है कि तुम्हारे ही बगल में खड़ा हुआ व्यक्ति खिड़की कि तरफ पीठ करके खड़ा हो, और उसे आकाश न दिखाई पड़े। यह भी हो सकता है कि किन्हीं क्षणों में तुम्हें आकाश दिखाई पड़े और किन्हीं क्षणों में तुम्हें ही आकाश न दिखाई पड़े। क्योंकि जब तुम उंचाई पर होओगे और तुम्हारी आंखें निर्मल होंगी तो ही आकाश दिखाई पड़ेगा। जब तुम्हारी आंखें धूमिल होंगी, आंसुओं से भरी होंगी, पीड़ा, दुख से दबी होंगी..तब खिड़की भी क्या करेगी? अगर आंखें ही धूमिल हों तो खिड़की आकाश न दिखा सकेगीः खिड़की खुली रहेगी, तुम्हारे लिए बंद हो जाएगी। तुम्हें भी आकाश तभी दिखाई पड़ेगा जब आंखें खुली हों; और भीतर होश हो। आंख भी खुली हो और भीतर बेहोशी हो तो भी खिड़की व्यर्थ हो जाएगी।

तो ध्यान रखना, जिसको तुमने गुरु जाना है, वह तुम्हें भी चैबीस घंटे गुरु नहीं मालूम होगा। कभी-कभी, किन्हीं ऊंचाइयों के क्षण में, किन्हीं गहराइयों के मौकों पर कभी तुम्हारी आंख, तुम्हारे बोध और खिड़की का तालमेल हो जाएगा, और आकाश की झलक आएगी। पर वही झलक रूपांतरकारी है। तुम उस झलक पर भरोसा रखना। तुम अपनी ऊंचाई पर भरोसा रखना।

अगर ठीक से समझो तो गुरु पर भरोसा अपनी ही जीवन-दशा की ऊंचाई में हुई अनुभूतियों पर भरोसा है। संदेह अपनी ही जीवनदशा की नीचाइयों पर भरोसा है। श्रद्धा अपनी ही प्रतीति के ऊंचाइयों पर भरोसा है। और तुम्हारे भीतर दोनों हैं। तुम कभी इतने नीचे हो जाते हो जैसे पत्थर, बिल्कुल बंद, कहीं कोई रंध्र भी नहीं रह जाती कि तुम्हें अपने से पार की कोई झलक मिले। कभी तुम खुल जाते हो, जैसे खिलता हुआ फूल, और तुम्हारे पंखुरियों पर सूरज नाचता है, और तुम्हारे पराग से आकाश का मेल होता है। लेकिन जहां तुम्हें झलक मिल जाए वहां से सीख लेना परमात्मा के पाठ, क्योंकि प्रेम की पहली खबर वहीं होंगी, वहां तुम झुक सकोगे। जहां तुम झुक सको, वहीं धर्म की शुरुआत है।

लोग कहते है, मंदिर में जाओ और झुको; और मैं तुमसे कहता हूं, जहां तुम्हें झुकना हो जाए वहीं समझ लेना मंदिर है। जिसके पास झुकना सहजता से हो जाए, जरा भी प्रयास न करना पड़े, झुकना आनंदपूर्ण हो जाए, लड़ना न पड़े भीतर..वहां तुम्हें प्रेम की पहली खबर मिलेगी; वहां तुम्हें पहली बार पता चलेगा कि प्रेम दान है..वस्तुओं का नहीं, धन का नहीं, अपना स्वयं का।

प्रेम मांग नहीं है। जहां मांग है वहां प्रेम धोखा है, फिर वहां कलह है। अगर गुरु से भी तुम्हारी कोई मांग हो, कि समाधि मिले, परमात्मा मिले, आत्मज्ञान मिले..अगर ऐसी कोई मांग हो तो तुम वहां भी सौदा कर रहे हो, वहां भी व्यवसाय जारी है; प्रेम की तुम्हें समझ न आई।

गुरु के पास कोई मांग नहीं है। तुम गुरु को धन्यवाद देते हो कि उसने तुम्हारे समर्पण को स्वीकार कर लिया। फिर समाधि तो छाया की तरह चली आती है। जहां समर्पण है वहां समाधि आ ही जाएगी; उसके विचार की कोई जरूरत नहीं है; विचार किया, रुक जाएगी असंभव हो जाएगी। क्योंकि विचार से ही खबर मिल जाएगी कि समर्पण नहीं है। और तुम्हारा मन इतना चालाक है, कानूनी है, गणित से भरा है कि तुम्हें पता ही नहीं रहता कि वह किस तरह का धोखा देता है।

कल मैं, वंदना मराठी में एक पत्रिका मेरे लिए निकालती हैः योगदीप, सुंदर है..उसे देखता था। उसने बड़ी मेहनत वर्षों से की है और पत्रिका को बड़े मापदंड पर उठाया है। लेकिन जबसे उसने निकाली है पत्रिका, तबसे मैं एक छोटा सा वक्तव्य उसमें हमेशा देखता हूं। उस पत्रिका में सिर्फ मेरे ही विचार वह छापती है; लेकिन जहां संपादकों के नाम हैं, वहां उसने एक पंक्ति लिख रखी है कि इस पत्रिका में प्रकाशित विचारों से संपादक की सहमति अनिवार्य नहीं है।

होशियारी है! मेरे ही विचार छापती है, मेरे लिए ही पत्रिका चलाती है; लेकिन मेरे विचारों से भी संपादक की पूरी सहमति अनिवार्य नहीं हैः कोई मुकदमा चले, कोई झंझट हो! समर्पण भी सशर्त है! स्वीकार में भी कानून है! उलझन में पड़ने की किसी की भी हिम्मत नहीं है, साहस नहीं है।

प्रेम दुस्साहस है। वह ऐसी छलांग है जिसमें तुम कल का विचार नहीं करते। जब तुम जाते हो तो तुम पूरे ही साथ जाते हो, या नहीं जाते; क्योंकि आधा आधा क्या जाना! ऐसे तो तुम ही कटोगे और मुश्किल में पड़ोगे। जैसे आधा शरीर तुम्हारा मेरे साथ चला गया और आधा घर रह गया, तो तुम्हीं कष्ट पाओगे। मेरा इसमें कोई हर्ज नहीं है। लेकिन तुम्हीं दुविधा में रहोगे। या तो पूरे घर रह जाओ, या पूरे मेरे साथ चल पड़ो। जरा सी भी मांग हो, खंडित हो गए!

तुमने कभी ख्याल किया? जहां भी मांग आती है वहीं तुम छोटे हो जाते हो; जहां मांग नहीं होती, सिर्फ दान होता है, वहां तुम भी विराट होते हो। जब तुम्हारे मन में कोई मांगने का भाव ही नहीं उठता, तब तुममें और परमात्मा में क्या फासला है? इसलिए तो बुद्धपुरुषों ने निर्वासना को सूत्र माना, कि जब तुम्हारी कोई वासना न होगी, तब परमात्मा तुममें अवतरित हो जाएगा।

परमात्मा तुममें छिपा ही है, केवल वासनाओं के बादलों में घिरा है। सूरज मिट नहीं गया है सिर्फ बादलों में घिरा है। वासना के बादल हट जाएंगेः तुम पाओगे, सूरज सदा-सदा से मौजूद था।

गुरु के पास प्रेम का पहला पाठ सीखना, बेशर्त होना सीखना, झुकना और अपने को मिटाना सीखना। मांगना मत। मन बहुत मांग किए चला जाएगा, क्योंकि मन की, मन की पुरानी आदत है। मन भिखमंगा है। सम्राट का मन भी भिखारी है; वह भी मांगता है।

आत्मा सम्राट है; वह मांगती नहीं। जिस दिन तुम प्रेम में इस भांति अपने को दे डालते हो कि कोई मांग की रेखा भी नहीं होती, उसी क्षण तुम सम्राट हो जाते हो। प्रेम तुम्हें सम्राट बना देता है। प्रेम के बिना तुम भिखारी हो। वही तुम्हारा दुख है।

दूसरी बातः जब फरीद प्रेम की बात करता है, तो प्रेम से उसका अर्थ हैः प्रेम का विचार नहीं, प्रेम का भाव। और उन दोनों में बड़ा फर्क है। तुम जब प्रेम भी करते हो तब तुम सोचते हो कि तुम प्रेम करते हो। यह हृदय का सीधा संबंध नहीं होता; उसमें बीच में बुद्धि खड़ी होती है।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमारा किसी से प्रेम हो गया है। मैं कहता हूं, ठीक से कहो, सोच कर कहो। वे थोड़े चिंतित हो जाते हैं। वे कहते हैं, हम सोचते हैं कि प्रेम हो गया है; पक्का नहीं, हुआ कि नहीं, लेकिन ऐसा विचार आता है कि प्रेम हो गया है।

प्रेम का कोई विचार आवश्यक है? तुम्हारे पैर में कांटा गड़ता है तो तुम्हारा बोध सीधा होता है कि पैर में पीड़ा हो रही है। ऐसा थोड़े ही तुम कहते हो कि हम सोचते हैैं कि शायद पैर में पीड़ा हो रहीं है। सोच विचार को छेद देता है कांटा, आर-पार निकल जाता है। जब तुम आनंदित होते हो तो क्या तुम सोचते हो कि तुम आनंदित हो रहे हो, या कि तुम सिर्फ आनंदित होते हो? जब तुम दुखी होते हो..कोई प्रियजन चल बसा, छोड़ दी देह, मरघट पर विदा कर आए..जब तुम रोते हो तब तुम सोचते हो कि दुखी हो रहे हो, या कि दुखी होते हो? दोनों में फर्क है। अगर सोचते हो कि दुखी हो रहे हो ही नहीं रहे; शायद दिखावा होगा। समाज के लिए आंसू भी गिराने पड़ते हैं। दूसरों को दिखाने के लिए हंसना भी पड़ता है, प्रसन्न भी होना पड़ता है, दुखी भी होना पड़ता है; लेकिन तुम्हारे भीतर कुछ भी नहीं हो रहा है। लेकिन जब तुम्हारे भीतर दुख हो रहा है तो विचार बीच में माध्यम नहीं होता, यह सीधा होता है।

फरीद जब प्रेम की बात करे तो याद रखना, यह सोच-विचार वाला प्रेम नहीं है; यह पागल प्रेम है, यह भाव का प्रेम है। और जब भाव से तुम्हें कोई बात पकड़ लेती है तो तुम्हारे जड़ों से पकड़ लेती है। विचार तो वृक्षों में लगे पत्तों की भांति है। भाव वृक्ष के नीचे छिपी जड़ों की भांति है। छोटा सा बच्चा भी जन्मते ही भाव में समर्थ होता है, विचार में समर्थ नहीं होता। विचार तो बाद का प्रशिक्षण है; सिखाना पड़ता है..स्कूल, कालेज, युनिवर्सिटी, संसार, अनुभव..तब विचार करना सीखता है; लेकिन भाव, भाव तो पहले क्षण ही से करता है। अभी-अभी पैदा हुए बच्चे को भी गौर से देखो तो तुम पाओगे, भाव से आंदोलित होता है। अगर तुम प्रसन्न हो और आनंद से उसे तुमने छुआ है तो वह भी पुलकित होता है। अगर तुम उपेक्षा से भरे हो और तुम्हारे स्पर्श में प्रेम की ऊष्मा नहीं है, तो वह तुम्हारे हाथ से अलग हट जाना चाहता है, वह तुम्हारे पास नहीं आना चाहता। अभी सोच-विचार कुछ भी नहीं है। अभी मस्तिष्क के तंतु तो निर्मित होंगे, अभी तो ज्ञान स्मृति बनेंगे। तब वह जानेगाः कौन अपना है, कौन पराया है। अभी वह अपना-पराया नहीं जानता। अभी तो जो भाव के निकट है वह अपना है, जो भाव के निकट नहीं वह पराया है। फिर तो वह जो अपना है उसके प्रति भाव दिखाएगा; जो अपना नहीं है उसके प्रति भाव को काट लेगा। अभी स्थिति बिल्कुल उलटी है। इसलिए तो छोटे बच्चे में निर्दोषता का अनुभव होता है। और जीसस जैसे व्यक्तियों ने कहा है कि जो छोटे बच्चों की भांति होंगे, वही मेरे परमात्मा के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे।

फरीद का प्रेम भाव का प्रेम है। और भाव तो तुम बिल्कुल ही भूल गए हो। तुम जो भी करते हो वह मस्तिष्क से चलता है। हृदय से तुम्हारे संबंध खो गए हैं। तो थोड़ा सा प्रशिक्षण जरूरी है हृदय का।

यहां मेरे पास लोग आते हैं। उनसे मैं कहता हूं कि थोड़ा तुम हृदय को भी जगाओ; कभी आकाश में घूमते हुए, गुजरते हुए बादलों को देख कर नाचो भी, जैसा मोर नाचता है। बादल घुमड़-घुमड़ कर आने लगे, ऐसे क्षण में तुम बैठे क्या कर रहे हो? बादलों ने घूंघर बजा दिए, ढोल पर थाप दे दी, तुम बैठे क्या कर रहे हो? नाचो! पक्षी गीत गाते हैंः सुर में सुर मिलाओ! वृक्ष में फूल खिलते हैंः तुम भी प्रफुल्लित होओ! थोड़ा चारों तरफ जो विराट फैला है जिसके हाथ अनेक-अनेक रूपों में तुम्हारे करीब आए हैं..कभी फूल, कभी सूरज की किरण, कभी पानी की लहर..इससे थोड़ा भाव का नाता जोड़ो। बैठे सोचते मत रहो। इंद्रधनुष आकाश में खिले, तो तुम यह मत सोचो कि इंद्रधनुष की फिजिक्स क्या है, कि यह प्रकाश प्रिज्म से गुजर कर सात रंगों में टूट जाता है। ऐसे ही पानी के कणों से गुजर कर सूरज की किरणें सात रंगों में टूट गई हैं..इस मूढ़ता में मत पड़ो। इस पांडित्य से तुम वंचित ही रह जाओगे। इंद्रधनुष का सौंदर्य खो जाएगा; हाथ में फिजिक्स की किताब रह जाएगी, जिसमें कोई भी इंद्रधनुष नहीं है। तुम इसके रहस्य को अनुभव करो। तुम किसी सिद्धांत से इसे समझा मत लो अपने को। इंद्रधनुष आकाश में खिला है, तुम्हारे भीतर भी इंद्रधनुष को खिलने दो! तुम भी ऐसे ही रंग-बिरंगे हो जाओ! थोड़ी देर को तुम्हारी बेरंग जिंदगी में रंग उतरने दो!

चारों तरफ से परमात्मा बहुत रूपों में हाथ फैलाता है; लेकिन तुम अपना हाथ फैलाते ही नहीं, नहीं तो मिलन हो जाए। और यहीं प्रशिक्षण होगा। यहीं से तुम जागोगे, और धीरे-धीरे तुम्हें पहली दफे पता चलेगा भेद कि विचार का प्रेम क्या है, भाव का प्रेम क्या है।

विचार का प्रेम सौदा ही बना रहता है, क्योंकि विचार चालाक है। विचार यानी गणित। विचार यानी तर्क। विचार के कारण तुम निर्दोष हो नहीं पाते। विचार ही तो व्यभिचार है। भाव निर्दोष होता है। भाव का कोई व्यभिचार नहीं है। और विचार के कारण तुम कभी सहजता, सरलता, समर्पण..इनका अनुभव नहीं कर पाते, क्योंकि विचार कहता हैः सजग रहो! सावधान, कोई धोखा न दे जाए! चाहे विचार तुम्हें सब धोखों से बचा ले; लेकिन विचार ही अंततः धोखा दे देता है। और भाव के कारण शायद तुम्हें बहुत खोना पड़े; लेकिन जिसने भाव पा लिया उसने सब पा लिया।

फरीद जिस प्रेम की बात करेगा, वह भाव है। और तुम्हें उसकी थोड़ी सी सीख लेनी पड़ेगी। और सीख कठिन नहीं है। किसी विश्वविद्यालय में भर्ती होने की जरूरत नहीं है। अच्छा ही है कि भाव को सिखाने का कोई उपाय नहीं है; नहीं तो संस्थाएं उसको भी सिखा देतीं और खराब कर देतीं। अगर निर्दोषता को सिखाने के लिए भी कोई व्यायामशालाओं जैसी जगह होती तो वहां निर्दोषता भी सिखा दी जाती; तुम उसमें भी पारंगत हो जाते, और तब तुम उससे भी वंचित हो जाते।

भाव को कोई सिखाने का कोई एक उपाय नहीं है; सिर्फ थोड़ा बुद्धि को शिथिल करने की बात है। भाव सदा से मौजूद है; तुम लेकर आए हो। भाव तुम्हारी आत्मा है।

अब फरीद के इन वचनों को समझने की कोशिश करें।

बोलै सेखु फरीदु पियारे अलह लगे।

शेख फरीद कहता हैः मेरे प्यारो, अल्लाह से जोड़ लो अपनी प्रीति।

बोलै सेखु फरीदु पियारे अलह लगे।

ऐसा ही इसका अनुवाद सदा से किया गया है कि फरीद कहता हैः मेरे प्यारो, अल्लाह से जोड़ लो अपनी प्रीति। लेकिन मुझे लगता है, शाब्दिक रूप से तो अर्थ ठीक है, लेकिन फरीद का गहरा इशारा चूक गया है। मैं इसके अनुवाद में थोड़ा फर्क करना चाहता हूं।

बोलै सेखु फरीदु पियारे अलह लगे।

शेख फरीद कहता हैः प्यारो, अल्लाह से लग जाओ। अल्लाह से लग जाना..उसी को मैं कह रहा था भाव का प्रशिक्षण। अल्लाह से अगर तुमने प्रेम करने की कोशिश की तो तुम वही प्रेम करोगे जो तुम अब तक करते रहे हो। तुम्हारी भी मजबूरी है। तुम नया प्रेम कहां से ले आओगे? तुम अल्लाह से भी प्रेम करोगे तो वही प्रेम करोगे जो अब तक करते रहे हो। भक्त वही तो करते हैं, अनेक। कोई राम की मूर्ति सजा कर बैठा है, तो उसने राम की मूर्ति ऐसे सजा ली है जैसा कि कोई प्रेयसी अपने पति को सजाती है; हीरे-जवाहरात लगा दिए हैं, सोने-चांदी का सामान जुटा दिया है; भोग लगा देता है; बिस्तर पर सुला देता है, उठा देता है; मंदिर के पट बंद हो जाते है, खुल जाते।

अगर तुमने परमात्मा को पिता की तरह देखा तो तुम उसकी सेवा में वैसे ही लग जाओगे जैसे तुम्हें अपने पिता की सेवा में लगना चाहिए। अगर तुमने परमात्मा को प्रेयसी के रूप में देखा, जैसा सूफियों ने देखा है, तो तुम उसके गीत वैसे ही गाने लगोगे जैसे लैला ने मजनू के गाए। लेकिन इस सब से तुमने जो प्रेम जाना, उसी को तुम परमात्मा पर आरोपित कर रहे हो; नये प्रेम का आविर्भाव नहीं हो रहा है।

इसीलिए तो हजारों भक्त है, लेकिन कभी कोई एकाध भगवान को उपलब्ध होता है। क्योंकि तुम्हारी भक्ति तुम्हारे ही प्रेम की पुनरुक्ति होती है। अगर तुम्हारे प्रेम से ही परमात्मा मिलता होता तो कभी का मिल गया होता। तुम फिर से परमात्मा से भी वे ही नाते-रिश्ते बना लेते हो जो तुमने आदमियों से बनाए थे। तुम उससे भी वही बातें करने लगते हो जो तुमने आदमियों से की थीं। तुम किसी के प्रेम में पड़ गए थे, तुमने कहा थाः तुझसे सुंदर कोई भी नहीं। अब तुम परमात्मा से यही कहते हो कि तू पतितपावन है, ऐसा है, वैसा है! तुम वही बातें कह रहे हो? शब्द बासे हैं, उधार हैं।

इसलिए मैं फरीद के वचन का अर्थ करता हूंः पियारे अलह लगे..तू अल्लाह से लग जा। अब इसका क्या अर्थ होगा..अल्लाह से लग जाना? वही अर्थ होगा कि चारों तरफ अस्तित्व ने घेरा हुआ है; अल्लाह तुझे घेरे ही हुए है; तू ही अलग-थलग है; अल्लाह तो लगा हुआ ही हैः तू भी लग जा। अल्लाह ने तो तुझे ऐसे ही घेरा है जैसे मछली को सागर ने घेरा हो। अल्लाह तो तुझसे लगा ही हुआ है; क्योंकि अल्लाह न लगा हो तो तू बच ही न सकेगा, एक क्षण न जीएगा, श्वास भी न चलेगी हृदय भी न धड़केगा। वह तो अल्लाह तुझसे लगा हैः इसलिए तू धड़कता है, चलता है, श्वास है, जीवन है। तू गलत भी हो जाए तो भी अल्लाह लगा हुआ है। चोर भी हो जाए, हत्यारा भी हो जाए तो भी अल्लाह लगा हुआ है, क्योंकि अल्लाह के बिना हत्यारा भी श्वास न ले सकेगा, चोर का हृदय भी न धड़केगा। बुरे हो या भले, अल्लाह चिंता नहीं करताः वह लगा ही हुआ है।

असली सवाल अब यह है कि हम भी उससे कैसे लग जाएं जैसे वह हमसे लगा है बेशर्तः कहता नहीं कि तुम अच्छे हो तो ही तुम्हारे भीतर श्वास लूंगा; साधु हो तो हृदय धड़केगा; असाधु तो बंद; कानून के खिलाफ गए, दाएं चले, बाएं नहीं चले सड़क पर, अब श्वास न चलेगी। अल्लाह अगर ऐसा कंजूस होता कि सिर्फ साधुओं में धड़कता, असाधुओं में न धड़कता तो संसार बड़ा बेरौनक हो जाता; तो राम ही राम होते, रावण दिखाई न पड़ते। और तुम सोच सकते हो, राम ही राम हों तो कैसी बेरौनक हो जाए दुनिया! लिए अपना-अपना धनुष खड़े हैं; मारने तक को कोई नहीं जिसको बाण मारें! सीता जी खड़ी हैं, कोई चुराने वाला नहीं है! राम-कथा आगे बढ़ती नहीं!

न, परमात्मा राम में भी श्वास ले रहा है, रावण में भी; और जरा भी पक्षपात नहीं है, दोनों में लगा हुआ है। परमात्मा बेशर्त, बिना शुभ-अशुभ का विचार किए, तुम्हारी योग्यता-अयोग्यता का बिना विचार किए, तुम्हारे साथ है। तुम उसके साथ नहीं हो। सागर तो तुम्हारे साथ है; तुम उससे लड़ रहे हो!

बोलै सेखु फरीदु पियारे अलह लगे।

फरीद कहता हैः प्यारो, अल्लाह से लग जाओ, वैसे ही जैसा अल्लाह तुमसे लगा है।

हिंदू के अल्लाह से मत लगना, मुसलमान के अल्लाह से मत लगना, नहीं तो शर्त हो जाएगी। मंदिर के अल्लाह से मत लगना, मस्जिद के अल्लाह से मत लगना, नहीं तो शर्त हो जाएगी। जैसे वह बेशर्त लगा है..न पूछता है कि तुम हिंदू हो, न पूछता है कि तुम मुसलमान हो, न पूछता है कि तुम जैन हो, कि बौद्ध हो, कि ईसाई, पूछता ही नहीं; न पूछता कि तुम स्त्री कि पुरुष, न पूछता कि काले कि गोरे..कुछ पूछता ही नहीं; बस तुमसे लगा हैः ऐसे ही तुम भी मत पूछो कि तू मस्जिद का कि मंदिर का, कि तू कुरान का कि पुराण का, कि तू गोरे का कि काले का; तुम भी लग जाओ।

मंदिर और मस्जिद के अल्लाह ने मुसीबत खड़ी की है। तुम उस अल्लाह को खोजो जो सब में व्याप्त है, सब तरफ मौजूद है; जिसने सब तरफ अपना मंदिर बनाया हैः कहीं वृक्ष की हरियाली में कहीं झरने के नाद में, कहीं पर्वत के एकांत में, कहीं बाजार के शोरगुल में..जिसने बहुत तरह से अपना मंदिर बनाया है। सारा जगत उसके ही मंदिर के स्तंभ हैं! सारा आकाश उसके ही मंदिर का चंदोवा है! सारा विस्तार उसकी ही भूमि है! तुम इस अल्लाह को पहचानना शुरू करो, इससे लगो।

बोलै सेखु फरीदु पियारे अलह लगे।

इहु तन होसी खाक निमाणी गोर घरे।।

और इस शरीर से बहुत मत लगे रहो, क्योंकि जल्दी ही कब्र में सड़ेगा। यह शरीर तो खाक हो जाएगा और इसका घर निगोड़ी कब्र में जा बनेगा। इससे तुम जरूरत से ज्यादा लग गए हो। जिससे लगना चाहिए उसे भूल गए; जिससे नहीं लगना था उससे चिपट गए। जो तुम्हारे जीवन का जीवन है, उससे तुमने हाथ दूर कर लिए; और जो क्षण भर के लिए तुम्हारा विश्राम-स्थल है, राह पर सराय में रुक गए हो रात भर..सराय को तो पकड़ लिया, अपने को छोड़ दिया है।

यह शरीर..इहु तन होसी खाक..यह शरीर तो जल्दी हीउ खाक हो जाएगा। निमाणी गोर घरे..और किसी निगोड़ी कब्र में इसका घर बन जाएगा। तुम इससे मत जकड़ो। अगर पकड़ना ही है तो जीवन के सूत्र को पकड़ लो। लहरों को क्या पकड़ते हो; पकड़ना ही है तो सागर को पकड़ लो। क्योंकि लहरें तो तुम पकड़ भी न पाओगे और मिट जाएंगी; तुम मुट्ठी बांध भी न पाओगे और विसर्जित हो जाएंगी।

लहरों को पकड़ना शरीर को पकड़ना है। शरीर तरंग है, पांच तत्वों की तरंग है, पांच तत्वों के इस विराट सागर में उठी एक बड़ी लहर है..सत्तर साल तक बनी रहती है, अस्सी साल तक बनी रहती है। पर विराट को देख कर सत्तर-अस्सी साल क्या है, क्षण भर भी नहीं है। जो समय तुमसे पहले हुआ और जो समय तुम्हारे बाद होगा और उसे हिसाब में लो तो तुम जितने समय रहे वह न के बराबर है। यह लहर है। इसको तो तुमने जोर से पकड़ लिया है और जिसमें यह लहर उठी है, उसको तुम भूल ही गए हो। जो आधार है वह भूल गया है, पत्तों पर भटक रहे हो।

इहु तन होसी खाक निमाणी गोर घरे।

आजु मिलावा सेख..यह वचन मुझे बहुत प्यारा रहा है। यह बड़ा अनूठा है! इसे बहुत गौर से जाग कर समझने की कोशिश करना।

‘आज उस प्रीतम से मिलन हो सकता है, शेख, यदि तू भावनाओं को काबू कर ले जो तेरे मन को बेचैन कर रही हैं।’

आजु मिलावा सेख..आज मिलना हो सकता है तेरा। यह बड़ा क्रांतिकारी वचन है। क्योंकि साधारणतः तुम्हारे पंडित-पुरोहित कहते हैं कि जन्मों-जन्मों का पाप है, उसको काटना पड़ेगा, तब मिलन हो सकेगा। और शेख कहता हैः आजु मिलावा सेख..यह आज हो सकती है बात; इसी क्षण हो सकती है। इसको एक क्षण भी टालने की जरूरत नहीं है। क्योंकि परमात्मा उतना ही उपलब्ध है जितना कभी था, और इतना ही सदा उपलब्ध रहेगा। उसकी उपलब्धि में रत्ती भर फर्क नहीं पड़ता। तुमने पाप किए कि पुण्य किए..इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम जिस दिन भी उसके साथ लगने को राजी हो, उसका आलिंगन सदा ही उन्मुक्त था; आमंत्रण सदा ही था। तुम्हारे पाप बाधा न बन सकेंगे। तुम्हारे पाप तुम ही क्या हो, तुम्हारे पापों का कितना मूल्य हो सकता है? लहर ही मिट जाती है, तो लहर का इठलाना कितना टिक सकता है?

इसे थोड़ा हम समझें। यह भी मनुष्य का अहंकार है कि मैंने बहुत पाप किए हैं। यह तुम्हें अड़चन लगेगी समझने में। तुम कहोगेः यह कैसा अहंकार है? लेकिन इससे भी ऐसा लगता है इतना मैं कुछ हूं! और इससे ऐसा भी लगता है कि जब तक मैं इन पापों को न काट दूंगा, तब तक परमात्मा न मिलेगा। जैसे परमात्मा का मिलना मेरे किसी कृत्य पर निर्भर है! इसलिए कर्म का सिद्धांत अहंकारियों को खूब जमा, खूब जंचा। अहंकारियों के अहंकार को पुष्टि मिली की हमने ही कर्म किए थे, इसलिए हम भटक रहे हैं; हम ही कर्म जब ठीक करेंगे तो पहुंच जाएंगे। लेकिन हम, मैं छिपा है भीतर।

यहीं फर्क है भक्तों का। भक्त कहते हैं, पहुंचेंगे उसके प्रसाद से। तुम्हारे प्रयास से नहीं पहुंचोगे। तुम्हारा प्रयास ही तो अटका रहा है। यह ख्याल कि मेरे करने से कुछ होगा, यही तो तुम्हें भटका रहा है। कर्म नहीं भटका रहें हैं, कर्ता का भाव भटका रहा है। असली पाप कर्मों में नहीं है, कर्ता के भाव में है। इसलिए कृष्ण ने अर्जुन से गीता में कहाः तू कर्ता का भाव छोड़ दे। तू निमित्तमात्र हो जा। फिर तुझे कुछ भी कर्म न छुएगा। कर्म तू कर, पर ऐसे कर जैसे वही तुझसे कर रहा है, तू बीच में नहीं है। तू बांस की पोंगरी हो जा; उसको ही गाने दे गीत। वह गाए तो ठीक, न गाए तो ठीक। तू बीच में चेष्टा मत कर। तू अपने को बीच में मत ला; अपने को बीच में खड़ा मत कर।

शेख फरीद कहते हैंः आज ही हो सकता है मिलन। यह बड़े हिम्मत के फकीरों ने ऐसी बात कही है। तुम्हारा मन तो खुद भी डरेगा कि यह कैसे हो सकता है आज। वस्तुतः सच्चाई यह है कि तुम आज चाहते भी नहीं। तुम चाहते हो कि कोई समझाए कि कल हो सकता है, आज नहीं; क्योंकि आज और दूसरे काम करने हैं, हजार व्यवसाय पूरे करने हैं। आज ही हो सकता है मिलन! यह जरा जल्दी हो जाएगी। इसमें तो पोस्टपोन करने का, स्थगित करने का उपाय न रहेगा।

तो मैं तुमसे कहता हूं, कर्म का सिद्धांत अहंकारियों को खूब जंचा। और अहंकारियों को यह बात भी खूब जंची कि जब तक हम कर्मों को बदल न देंगे; बुरे को शुभ से मिटा न देंगे; काले को सफेद से पोत न देंगे; अशुभ को शुभ में ढांक न देंगे; जब तक तराजू बराबर संतुलन में न आ जाएगा; शुभ और अशुभ बराबर न हो जाएंगे..तब तक छुटकारा नहीं हो सकता। इसका अर्थ हुआ कि मैंने ही पाप किए, मुझे ही पुण्य करने होंगे; मेरे ही कारण घटना घटेगी, परमात्मा के प्रसाद से नहीं, उसके अनुग्रह से नहीं। और इसमें बड़ी सुविधा है कि जन्मों-जन्मों के कर्म हैं, वे आज तो कट नहीं जाएंगे, जन्म-जन्म लगेंगे। स्वभावतः जितने दिन मिटाया है उतने दिन बनाना पड़ेगा। जितने दिन बिगाड़ा है, उतने दिन सुधारना पड़ेगा। कितनी ही जल्दी करो तो भी जन्मों-जन्म लग जाएंगे। इससे बड़ी सुविधा है। इससे आज कोई झंझट नहीं है। आज दुकान करो, आज चोरी करो; धर्म कल। आज तुम जैसे चलते है चलते रहो, कोई उपाय ही नहीं है; कल परिवर्तन होगा, कल होगा रूपांतरण!

कल के ख्याल ने मनुष्य को अधार्मिक बनाया है। कल बड़ी सुविधा है। उसकी आड़ में हम अपने को छिपा लेते हैं। कल होगा, आज तो कुछ होना नहीं है..तो आज तो हम जो हैं हम रहेंगे! एकदम से तो क्रांति हो न जाएगी! तत्क्षण तो कुछ घट न जाएगा! सिलसिला होगा! क्रमिक विकास होगा! विकास होते-होते समय आएगा, तब कहीं घटना घटेगी! इस जन्म में तो होने वाला नहीं है! तो इस जन्म में जो कर रहे हो, करते रहो; और थोड़ी कुशलता से कर लो! समय जितनी देर मिला है, और भोग लो; कहीं अगले जन्म में मुक्ति हो ही न जाए।

ऐसे पूरब में, जहां कि पुनर्जन्म के सिद्धांत को, कर्म के सिद्धांत को बड़ी स्वीकृति मिली, अधर्म का बड़ा गहरा विस्तार हुआ। होना नहीं चाहिए था। अगर वस्तुतः लोगों ने इसलिए स्वीकार किया था पुनर्जन्म का सिद्धांत कि वे धार्मिक थे, तो पूरब में क्रांति हो जानी चाहिए थी, पूरब में सूर्योदय हो जाता। नहीं हुआ।

पूरब जितना बेईमान है, पश्चिम में भी उतने बेईमान आदमी नहीं पाए जाते। और पूरब जितना अनैतिक है और जितना भ्रष्ट है, वैसा भ्रष्टाचार और वैसी अनैतिकता भी कहीं नहीं पाई जाती। नास्तिक से नास्तिक और भौतिकवादी से भौतिकवादी मुल्कों में भी ऐसी अनीति नहीं है। कारण क्या होगा? पूरब के पास सुविधा है। हम टाल सकते हैं। उनके पास सुविधा नहीं है, यही जीवन सब कुछ है। अच्छे होना है तो यही जीवन है, बुरे होना है तो यही जीवन है। हमारे पास बहुत जीवन हैं। हमें कोई जल्दी नहीं है।

पूरब के मन में जल्दी नहीं है; इसलिए जो चल रहा है चलने दो, जो हो रहा है होने दो। हम किसी त्वरा में नहीं हैं कि क्रांति अभी हो जाए। समय हमारे पास जरूरत से ज्यादा हैः आज नहीं होगा, कल होगा; कल नहीं होगा, परसों होगा। हमें बड़ा धीरज है। धीरज आड़ बन गई है। जहां-जहां धीरज ज्यादा हो जाता है, वहां क्रांति असंभव हो जाती है। अगर तुम्हें आज पता चल जाए कि आज ही हो सकती है यह बात, तो फिर तुम्हें दोष अपने को ही देना पड़ेगा; फिर तुम्हें साफ कर लेना होगा कि अगर टालना है तो तुम टालते हो, स्थगित करना है तो तुम स्थगित करते हो; परमात्मा आज राजी था। तब तुम्हें बड़ी बेचैनी होगी। तब तुम्हें कोई भी सांत्वना का उपाय न रह जाएगा।

इसलिए फरीद का वचन मैं कहता हूं, बड़ा क्रांतिकारी हैः आजु मिलावा सेख..आज हो सकता है मिलना, शेख। देर उसकी तरफ से नहीं है।

हमारे मुल्क में कहावत हैः देर है, अंधेर नहीं। मैं तुमसे कहता हूंः न देर है, न अंधेर है। उसकी तरफ से कुछ भी नहीं हैं; तुम्हारी तरफ से दोनों हैं। उसकी तरफ से न तो देर है और न अंधेर है; तुम्हारी तरफ से देर भी है और इसलिए अंधेर है। देर के आधार से ही अंधेर है। टालने की सुविधा है..तो आज जैसी भी स्थिति है, ठीक है; कल सब ठीक हो जाएगा। कल के स्वप्न के आधार पर तुम आज के गंदे यथार्थ को टालते चले जाते हो; कल की आशा में आज की बीमारी झेल लेते हो। आज का नरक भोग लेते हो; कल स्वर्ग मिलेगा!

आजु मिलावा सेख..आज उस प्रीतम से मिलन हो सकता है। करना क्या है? बस एक छोटी सी बात करनी हैः कूंजड़ीआ मनहु मचिंदड़ीआ..यह जो मन में विचारों और भावों का शोरगुल मचा है, यह भर बंद हो जाए। कर्मों को नहीं बदलना है; सिर्फ विचारों को शांत करना है। कर्मों को बदलना तो असंभव है। कितने जन्म तुम्हारे हुए, कोई हिसाब है? उसमें क्या-क्या तुमने नहीं किया, कोई हिसाब है? उस सबको बदलने बैठोगे तो यह कथा तो अंतहीन हो जाएगी। यह तो फिर कभी हो ही न पाएगा। लेकिन बुद्ध हुए, महावीर हुए, फरीद हुआ, नानक हुए, दादू हुए, कबीर हुए..इनके जीवन में क्रांति घटित होते हमने देखी। यह घटना घटी है, तो इसके घटने का एक ही कारण हो सकता है कि जो हमने समझा है कि कर्म बदलने होंगे, वह भ्रांति है; सिर्फ विचार गिरा देने काफी हैं।

ऐसा समझो कि एक रात एक आदमी रात सपना देखता रहा है कि उसने बड़ी हत्याएं की हैं, बड़ी चोरियां की हैं, बड़े व्यभिचार किए हैं, और वह बड़ा परेशान है अपने सपने में कि अब कैसे छुटकारा होगा; इतना उपद्रव कर लिया है, अब इस सबके विपरीत कैसे शुभ कर्म करूंगा? ..और तब तुम जाते हो, उसे हिला कर जगा देते हो, आंख खुलती हैः सपने खो गए! कर्म नहीं बदलने पड़ते; सपना टूट जाए, बसः फिर वह खुद ही हंसने लगता है कि यह भी मैं क्या-क्या सोच रहा था! यह क्या-क्या हो रहा था! और मैं सोच रहा था कि इससे छुटकारा कैसे होगा लेकिन सपना टूटते ही छुटकारा हो गया!

विचार तुम्हारे स्वप्न हैं। कर्म ने नहीं बांधा है; बांधा है विचार ने। कर्म तो विचारों के स्वप्नों के भीतर घट रहे हैं। अगर विचार टूट जाए, स्वप्न टूट जाएः तुम जाग गए। सारे जन्म तुम्हारे जो हुए, वह एक गहरा स्वप्न था, एक दुखस्वप्न था। उसको बदलने का कोई सवाल नहीं है। उसको मिटाने का भी कोई सवाल नहीं है। जागते ही वह नहीं पाया जाता है।

शेख, यदि तू उन भावनाओं को काबू कर ले जो तेरे मन को बेचैन कर रही हैं...! वे जो तेरे भाव, तेरे विचार, और उनकी जो तरंगें, और झंझावात और ऊहापोह तेरे भीतर मचा है..बस उसको तू शांत कर ले।

उसको शांत करने के दो ढंग हैं।

एक ढंग ध्यान है।

ध्यान शुद्ध विज्ञान है कि तुम वैज्ञानिक आधार पर मन की तरंगों को एक के बाद एक शांत करते चले जाते हो। लेकिन ध्यान का रास्ता मरुस्थल का रास्ता है। वहां छायादार वृक्ष नहीं हैं, मरूद्यान नहीं हैं। वहां चारों तरफ फूल नहीं खिलते और हरियाली नहीं है; पक्षियों के गीत नहीं गूंजते; अंतहीन रेत का विस्तार है..तप्त-उत्तप्त! ध्यान का मार्ग सूखा है, गणित का है।

दूसरा मार्ग है प्रेम का, कि तुम इतने प्रेम से भर जाओ कि तुम्हारे जीवन की सारी ऊर्जा प्रेम बन जाए, तो जो ऊर्जा भावना बन रही थी, विचार बन रही थी, तरंगें बन रही थी, वह खिंच आए और सब प्रेम में नियोजित हो जाए। इसलिए तो बड़े वृक्ष के नीचे अगर तुम छोटा वृक्ष लगाओ तो पनपता नहीं है; क्योंकि बड़ा वृक्ष सारे रस को खींच लेता है भूमि से, छोटे वृक्ष को रस नहीं मिलता। जो बहुत बड़े वृक्ष हैं, वे अपने बीजों को दूर भेजने की कोशिश करते हैं, क्योंकि अगर बीज नीचे ही गिर जाएं तो वे कभी वृक्ष न बन पाएंगे।

सेमर का बड़ा वृक्ष अपने बीजों को रुई में लपेट कर भेजता है ताकि हवा में रुई उड़ जाए। वैज्ञानिक कहते हैं कि वह बहुत कुशल और होशियार वृक्ष है, बड़ा चालबाज है! वह तरकीब समझ गया है कि अगर बीज नीचे ही गिर गया तो कभी पनपेगा ही नहीं; उसकी संतति नष्ट हो जाएगी। तो वह उसको रुई में लपेट लेता है। वह रुई तुम्हारे तकियों के लिए नहीं बनता। तुम्हारे तकियों से सेमर को क्या लेना-देना? वह अपने बीजों को पंख लगाता है, रुई में लपेट देता हैः रुई हवा में उड़ जाती है और जब तक ठीक भूमि न मिल जाए तब तक वह उड़ती चली जाती है। जब ऐसी भूमि मिल जाती है, जहां कोई वृक्ष बड़ा नहीं है आसपास, तब वह जमीन को पकड़ लेता है।

बड़े वृक्ष के नीचे छोटा वृक्ष नहीं पनपता। ठीक जब तुम्हारे भीतर प्रेम का बड़ा वृक्ष पैदा होता है तो सब छोटी-मोटी तरंगें खो जाती हैं; सब भूमि में रस एक ही प्रेम में चला आता है; प्रेम अकेली अभीप्सा बन जाता है, सब लपेटों को अपने में समा लेता है।

तो, एक तो ध्यान है कि तुम एक-एक तरंग और एक-एक विचार को क्रमशः शांत करते जाओ। फिर एक प्रेम है कि शांत किसी को मत करो, सब को लपेट लो एक महा अभीप्सा में, एक प्रेम की प्रगाढ़ अभीप्सा मेंः तुम एक महा लपट बन जाओ, सब लपटें उसमें समा जाएं। ये दो उपाय हैं।

प्रेम का रास्ता बड़ा हरा-भरा है। उस पर पक्षी भी गीत गाते हैं, मोर भी नाचते हैं। उस पर नृत्य भी है। उस पर तुम्हें कृष्ण भी मिलेंगे..बांसुरी बजाते। उस पर तुम्हें चैतन्य भी मिलेंगे..गीत गाते। उस पर तुम्हें मीरा भी नाचती मिलेगी।

ध्यान का रास्ता बड़ा सूखा है। उस पर तुम्हें महावीर मिलेंगे, लेकिन मरुस्थल जैसा है रास्ता। उस पर तुम्हें बुद्ध बैठे मिलेंगे, लेकिन कोई पक्षी की गूंज तुम्हें सुनाई न पड़ेगी। तुम्हारी मर्जी। जिसको मरुस्थल से लगाव हो...। ऐसे भी लोग हैं जिनको मरुस्थल में सौंदर्य मिलता है। व्यक्ति-व्यक्ति की बात है।

एक युवक ने मुझे आकर कहा कि जैसा सौंदर्य उसने मरुस्थल में जाना वैसा उसने की नहीं जाना। यह संभव है, क्योंकि मरुस्थल में जो विस्तार है वह कही भी नहीं है। सहारा के मरुस्थल में खड़े होकर ओर-छोर नहीं दिखाई पड़ता; रेत ही रेत का सागर है अंतहीन; कहीं कोई अंत नहीं मालूम होता। इस अनंत में किसी को सौंदर्य मिल सकता है, कोई आश्चर्य नहीं है। और जैसी रात मरुस्थल की होती है वैसी तो कहीं भी नहीं होती। जैसे मरुस्थल की रात में तारे साफ दिखाई पड़ते हैं वैसे कहीं नहीं दिखाई पड़ते; क्योंकि मरुस्थल की हवाओं में कोई भी भाप नहीं होती; हवा बिल्कुल शुद्ध होती है, पारदर्शी होती है; तारे इतने साफ दिखाई पड़ते हैं कि हाथ बढ़ाओ और छू लो।

तो ध्यान का अपना मजा है। ध्यान जिसको ठीक लग जाए वह उस तरफ चल पड़े। प्रेम का अपना मजा है। ध्यान का पूरा मजा तो जब मंजिल मिलेगी तब आएगा। ध्यान का मजा तो पूरा अंत में आएगा; प्रेम का मजा कदम-कदम पर है। प्रेम की मंजिल पूरे रास्ते पर फैली है। ध्यान की मंजिल अंत में है और रास्ता बहुत रूखा-सूखा है। प्रेम की मंजिल अंत में नहीं है, कदम-कदम पर फैली है, पूरे रास्ते पर फैली है मंजिल। तुम जहां रहोगे वहीं आनंदित रहोगे। तुम्हारी मर्जी! व्यक्ति-व्यक्ति को अपना चुनाव कर लेना चाहिए।

आज उस प्रीतम से मिलन हो सकता है, शेख, यदि तू उन विचारों को काबू में कर ले, उन तरंगों को रोक ले जो तुझे बेचैन कर रही हैं।

कूंजड़ीआ मनहू मचिंदड़ीआ।

जिन्होंने तेरे मन में बड़ा उपद्रव मचा रखा है, झंझावात, तूफान..उनको तू सम्हाल ले।

और ध्यान रखना, प्रेम का रास्ता सुगम है; क्योंकि तुम सारे उपद्रव को परमात्मा के चरणों में समा देते हो। तुम कहते होः तू ही सम्हाल! हम तेरे साथ लग लेते हैं, तू फिकर कर!

तुम एक बड़ी नाव में सवार हो जाते हो।

ध्यान का रास्ता छोटी नाव का है।

बुद्ध के जमीन से विदा हो जाने के बाद दो संप्रदाय हो गए उनके अनुयायियों के। एक का नाम हैः हीनयान। हीनयान का अर्थ होता हैः छोटी नाव; छोटी नाव वाले लोग। हीनयान ध्यान का रास्ता है। अपनी अपनी डोंगी, दो भी नहीं बैठ सकते; दो भी बैठ जाए तो उलट जाए; एक ही बैठ सके, और वह भी पूरा सम्हल कर ही चले। और अपने ही हाथ से खेना है, कोई और कोई सहारा नहीं है, और बड़ा तूफान है।

और दूसरे पंथ का नाम हैः महायान। महायान प्रेम का मार्ग है। महायान का अर्थ हैः बड़ी नाव, जिस पर हजारों लोग एक साथ सवार हो जाएं। हीनयान कहता हैः बुद्ध से इशारा ले लो, लेकिन बुद्ध का सहारा मत लो; इशारा ले लो, सहारा मत लो, क्योंकि चलना तुम्हें है। महायान कहता हैः इशारा क्या लेना? सहारा ही ले लेते हैं; बुद्ध के कंधे पर ही सवार हो जाते हैं। जब बुद्ध जा ही रहे हैं, हम उनके साथ लग लेते हैं।

महायान फैला बहुत; हीनयान सिकुड़ गया। क्योंकि हीनयान थोड़े से लोगों का रस हो सकता है; वह मार्ग ही संकीर्ण है। महायान विराट हुआ। जो भी बुद्ध धर्म का विकास हुआ बाद में, वह महायान के कारण हुआ। क्योंकि भक्ति और प्रेम हृदय को छूते हैं, जगाते हैं। क्या जरूरत है रोते हुए जाने की, जब हंसते हुए जाया जा सकता हो? और क्या जरूरत है गंभीर चेहरे बनाने की, जब मुस्कुराते हुए रास्ता कट जाता हो? और क्या जरूरत है अकारण कष्ट पाने की, जब प्रेम की भीनी-भीनी बहार में यात्रा हो सकती हो?

‘आज उस प्रीतम से मिलन हो सकता है, शेख; बस तू मन की सारी तरंगों को समर्पित कर दे।’

जे जाणा मरि जाइए...

शेख कहता हैः अगर पता होता कि मरना ही होगा तो जिंदगी ऐसी न गंवाते। इस जिंदगी में जिसको भी पता हो जाता है कि मृत्यु है, वही बदल जाता है; और जिसको पता नहीं होता कि मृत्यु है वही बर्बाद हो जाता है। धर्म तुम्हारे जीवन में उसी दिन उतरता है जिस दिन तुम्हारे जीवन में मृत्यु का बोध आता है, जिस दिन तुम्हें लगता है कि मौत आती है। मौत का आना, मौत के आने का ख्याल, मौत के पैरों की पगध्वनि, जिसे सुनाई पड़ गई, वह आदमी तत्क्षण रूपांतरित हो जाता है। मौत जब आती हो तो चांदी के ठीकरों में क्या अर्थ रह जाता है? मौत जब आ ही रही हो तो बड़े महल बना लेने से क्या होगा? मौत जब आ ही रही है, चल ही पड़ी है, रास्ते पर ही है, किसी भी क्षण मिलन हो जाएगा, तो दुश्मनी, वैमनस्य, ईष्र्या, इनका क्या मूल्य है?

तुम इस तरह जीते हो जैसे कभी मरना ही नहीं, इसलिए तुम गलत जीते हो। अगर तुम इस तरह जीने लगो कि आज ही मरना हो सकता है, तुम्हारी जिंदगी से गलती विदा हो जाएगी। गलती के लिए समय चाहिए। गलती के लिए सुविधा चाहिए।

थोड़ा सोचो, आज अचानक तुम्हें खबर आ जाए कि बस आज सांझ विदा हो जाओगे, तो आज तुमने सोचा था कि किसी की हत्या कर देने का..क्या करोगे? बजाय हत्या करने पर तुम जाकर उसको गले लगा लोगे; कहोगे कि भाई अब जा रहे हैं, अब कोई सवाल ही न रहा। अब झगड़ा ही क्या! विदा होने का वक्त आ गया! तुम खुश रहो, आबाद रहो; हम तो जाते हैं। किसी की चोरी करने की तैयारी पर ही थे, कि जेब काटने को ही थे..अब क्या जेब काटनी है! अब उलटा तुम, उलटा मन होगा कि अपनी जेब भी उसीको दे दो, क्योंकि अब जाने का वक्त आ गया! इंच-इंच जमीन के लिए लड़ रहे थे..अब कोई अड़चन न रही; क्योंकि जमीन मरे हुए को तो, सम्राट को भी उतनी ही मिलती है, भिखारी को भी उतनी ही मिलती है। छह फीट जमीन काफी हो जाती है।

फरीद कहता हैः यदि मुझे पता ही होता, फरीद की मरना होगा और फिर लौटना नहीं है, तो इस झूठी दुनिया से प्रीति जोड़ कर मैं अपने को बर्बाद न कर बैठता। तब फिर मैंने प्रेम तुझसे ही लगाया होता।

हम व्यर्थ की चीजों से प्रेम लगाते रहे। खुद विदा होना था जहां से वहां हमने प्रेम के बीज बोए। जहां से हमको ही चले जाना था वहां अपना हमने हृदय जोड़ा। तो स्वभावतः हम टूटेंगे, हृदय टूटेगा, दुख और पीड़ा होगी। जे जाणा मरि जाइए..तब तो क्रांति घट जाती।

पशुओं में कोई धर्म पैदा नहीं हुआ। और जिस मनुष्य के जीवन में धर्म की किरण न उतरे वह पशु जैसा है। एक बात में समानता है उसकी और पशु की। पशुओं में धर्म क्यों पैदा न हुआ? क्योंकि पशुओं को मृत्यु का कोई बोध नहीं है। मरते जरूर हैं; लेकिन जब एक कुत्ता दूसरे कुत्ते को मरते देखता है तो वह समझता हैः अच्छा तो तुम मर गए! मगर उसे कभी ख्याल नहीं आता कि मैं मरूंगा। यह आ भी कैसे सकता है? क्योंकि कुत्ता सदा दूसरे को मरते देखता है, अपने को तो कभी मरते देखता नहीं। इसलिए तर्कयुक्त है कि दूसरे मरते हैं, मैं नहीं मरता। हरेक मरते कुत्ते को देख कर उसकी अकड़ और बढ़ती जाती है कि मैं तो मरने वाला नहीं, हरेक मर रहा है, सब मर रहे हैं, मैं अमर हूं।

ऐसी नासमझी मनुष्य के भीतर भी है। तुम दूसरे को मरते देख कर दया करते हो, सहानुभूति करते हो, दो आंसू बहाते हो, कहते होः बहुत बुरा हुआ। लेकिन तुम्हें याद आता है कि उसकी मौत में तुम्हारी मौत ने भी तुम्हें संदेश दिया कि, उसकी मौत तुम्हारी भी मौत है?

एक अंग्रेज कवि ने लिखा है..उसके गांव का नियम है कि जब कोई मर जाता है तो चर्च की घंटियां बजती हैं, तो उसने लिखा है कि पहले मैं भेजता था लोगों को पता लगाने कि देखो, कौन मर गया; अब मैं नहीं भेजता, क्योंकि जब भी चर्च की घंटी बजती हैं तो मैं ही मरता हूं।

हर मनुष्य की मौत मनुष्यता की मौत है। हर मनुष्य की मौत में तुम्हारी मौत घटती है। अगर यह दिखाई पड़ने लगे तो तुम क्या ऐसे ही रहोगे जैसे अब तक रहे हो? इन्हीं खेल-खिलौनों से खेलते रहोगे? इन्हीं व्यर्थ की चीजों को इकट्ठा करते रहोगे या बदलोगे? मौत बदल देगी, झकझोर देगी, सपना तोड़ देगी।

जे जाणा मरि जाइए...

पता होता कि मर जाना है, तो कभी के बदल गए होते। फरीद तुमसे कह रहा है, उसे तो पता ही है। वह तुमसे कह रहा है कि जागो। जिसे तुमने जीवन समझा है वह जीवन नहीं है; वह मरने की लंबी प्रक्रिया है। जीवन कहीं और है, जहां तुमने खोजा ही नहीं। जीवन तो परमात्मा के साथ है।

बोलै सेखु फरीदु पियारे अलह लगे।

उसके साथ मरना कभी नहीं होता। संसार के साथ जो जुड़ता है वह बार-बार मरता है, क्योंकि यह टूटेगा ही संबंध। यह नदी-नाव संयोग है। यह कोई थिर रहने वाली बात नहीं है। नदी बदली जा रही है, प्रति क्षण भागी जा रही है; उसी नदी से उसी नाव का संयोग कैसे रहेगा?

हेराक्लतु ने कहा हैः एक ही नदी में दुबारा उतरना असंभव है। क्योंकि जब तुम दुबारा उतरने जाओगे, वह नदी तो जा चुकी। एक ही आदमी से दुबारा मिलना असंभव है; क्योंकि जब तुम दुबारा मिलने जाओगे, वह आदमी अब कहां रहा! सब बदल चुका, गंगा में कितना पानी बह गया! पहली दफा मिले थे तब तो बड़ा पे्रमपूर्ण था, अब मिले तो बड़ा उदास था, वह आदमी वही नहीं है पहली दफा मिले तो बड़ा क्रुद्ध था; अब मिले तो बड़ा दयावान था। यह आदमी वही नहीं है।

बुद्ध पर एक आदमी थूक गया और दूसरे दिन क्षमा मांगने आया। बुद्ध ने कहाः नासमझी मत कर। तू कर तो कर, मुझसे तो मत करवा। जिस पर तू थूक गया था वह आदमी अब कहां! और जो थूक गया था, वह आदमी अब कहां! वह बात गई..गुजरी हो गई। भूल! जाग! मैं वही नहीं हूं। चैबीस घंटे में गंगा का कितना पानी बह गया! तू वही नहीं है। मेरी तो फिकर छोड़; लेकिन तेरी तो बात साफ हैः कल तू थूक गया था; आज तू क्षमा मांगने आया है! तू वही कैसे हो सकता है? थूकने वाला और क्षमा मांगने वाला दो अलग दुनिया हैं। जाग!

जे जाणा मरि जाइए...

जिसने जाना कि मौत होगी उसने असली जीवन की खोज शुरू कर दी। समय खोने जैसा नहीं है। इसके पहले की समय हाथ से निकल जाए, अवसर खो जाए, जीवन पर जड़ें पहुंच जानी चाहिए।

बोलिए सचु धरमु न झूठ बोलिए।

जो गुरु दसै वाट मुरीदा जोलिए। ।

इसका अनुवाद सदा से किया जा रहा है कि तू धरम से सच बोल, झूठ न बोल। जो रास्ता गुरु दिखा दे, उसी पर चल। इसमें मैं थोड़ा फर्क करता हूं।

बोलिए सचु धरमु...

फरीद का शब्द हैः बोलिए सचु धरमु..सत्य धर्म से बोल, सत्य से बोल। सचु धरमु का अर्थ होता हैः स्वभाव से बोल। जो तेरा वास्तविक स्वभाव है वही धर्म है। अपनी प्रामाणिकता से बोल। अपने अस्तित्व से बोल। धर्म से सच बोल में, बात चली जाती है। धर्म से सच बोल..जैसे की हम किसी को कसम दिलवा रहे हों कि खा धर्म की कसम और सच बोल; खा ईमान की कसम और सच बोल। नहीं, धर्म से सच बोल..ऐसा नहीं; सत्य धर्म से बोल; वह तेरा जो स्वभाव है, वह तेरा जो सच्चा धर्म है..जिसको कृष्ण ने स्वधर्म कहा हैः स्वधर्मे निधनं श्रेयः। तू वहां से बोल जो तू है; तू अपनी वास्तविकता से बोल।

ये दोनों अलग बातें हैं। धर्म से सच बोलने का मतलब यह है कि झूठ मत बोल; जैसा तूने जाना हो वैसा बोल; तथ्य बोल। और जो अनुवाद मैं कर रहा हूं, वह हैः तू अपनी वास्तविकता से बोल; तथ्य कि फिकर मत कर, सत्य बोल। क्योंकि बहुत बार सत्य तथ्य के विपरीत होता है। बहुत बार तथ्य बोलने से सत्य नहीं बोला जाता। बहुत बार तुम बोलते हो, बिल्कुल फैक्चुअल होता है, तथ्यगत होता है; लेकिन सत्य नहीं होता, क्योंकि तुम्हारी वास्तविकता से नहीं बोला गया होता।

ऐसा समझो, हिंदुओं और मुसलमानों का दंगा हो रहा है। एक हिंदू ने भी दंगा देखा है, एक मुसलमान ने भी दंगा देखा है। दोनों अदालत के सामने वक्तव्य देते है। हिंदू कुछ और देखेगा जो मुसलमान ने देखा ही नहीं। मुसलमान कुछ और देखेगा जो हिंदू ने देखा ही नहीं। दोनों तथ्य बोल रहे हैं। न तो हिंदू झूठ बोल रहा हैं, न मुसलमान झूठ बोल रहा हैं। हिंदू भी वही बोल रहा है जो उसने देखा। लेकिन सवाल तो यह है कि देखने में ही व्याख्या हो जाती है। अगर हिंदू देख रहा है तो व्याख्या तो वहीं हो गई। कुछ चीजें हिंदू देख ही नहीं सकता; वे हिंदू होने के कारण असंभव हैं। और कुछ चीजें मुसलमान नहीं देख सकता; वे मुसलमान होने के कारण असंभव हैं।

जैसे समझो कि किसी ने कुरान जला दी, तो मुसलमान के तो प्राण जला दिए; हिंदू के लिए किताब, जो रद्दी बाजार में एक रुपये में बिक सकती थी, वह जला दी..इसमें झगड़ा-झांसा क्या है? इसमें क्या बिगड़ रहा है? दूसरी खरीद लो बाजार से! एक रुपये की रद्दी जलाई है! ..और मुसलमान की आत्मा जला दी!

जब किसी हिंदू की मूर्ति तोड़ी जाती है, तो मुसलमान के लिए पत्थर है, हिंदू के लिए परमात्मा है। तथ्य काफी नहीं है। मुसलमान कहेगाः एक पत्थर को लोगों ने तोड़ा! उसके लिए इतना उपद्रव मचाने की कोई जरूरत न थी। लोगों ने व्यर्थ शोरगुल मचाया, हत्या की। यह सब अकारण है। एक पत्थर तोड़ा था! हिंदू कहेगाः हमारे परमात्मा पर हमला हो गया, हम पर हमला हो गया। हमारे प्राणों को गहरी चोट पहुंचाई गई है। फिर जो भी हुआ वह कुछ भी नहीं है उसके मुकाबले।

तथ्य तो तुम्हारी आंख से तथ्य बनता है; तुम्हारा दृष्टिकोण उसमें सम्मिलित हो गया। मैं किसको कहूंगा सच? मैं दोनों को सच नहीं कहूंगा। क्योंकि जब तक तुम हिंदू हो तुम सच नहीं हो सकते; जब तक तुम मुसलमान हो तुम सच नहीं हो सकते। क्योंकि तुमने कुछ धारणाएं पहले से ही मान लीं जो तुम्हें सच न होने देंगी। तुम जब न हिंदू की तरह बोलोगे न मुसलमान की तरह बोलोगे; जब तुम एक शुद्ध चैतन्य की तरह बोलोगे, तब तुम सच धर्म से बोले। तब तुम अपनी वास्तविकता से बोले। तब तुमने न तो हिंदू के ढंग से कहा, न मुसलमान के ढंग से कहा। तब तुमने शुद्ध चैतन्य के ढंग से कहा। और यह बड़ी अलग बात है। यह बड़ी भिन्न बात है।

तथ्यों की बहुत फिकर मत करना, सत्यों की फिकर करना; क्योंकि तथ्य तो आदमी का मन ही निर्मित करता है। असली सवाल उस सत्य की खोज का है जो आदमी का बनाया हुआ नहीं, जो परमात्मा का बनाया हुआ है। सत्य वह है जो परमात्मा के द्वारा है, तथ्य वह है जो हमारी व्याख्या है। तो व्याख्याएं तो बड़ी बड़ी अलग-अलग होती हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन का एक मित्र है..मित्र भी है और शत्रु भी है, क्योंकि दोनों कवि हैं। और बड़ा वैमनस्य है और बड़ी ईष्र्या है। वर्षों बाद मित्र से मिलना हुआ है, या शत्रु से। स्वभावतः जैसा कवियों कि आदत होती है, एक-दूसरे ने डींग मारना शुरू कर दी। मित्र ने कहा कि वर्षों बाद मिले, नसरुद्दीन, तुम्हें पता भी न होगा, मेरी कविताओं को पढ़ने वालों की संख्या दुगुनी हो गई है। नसरुद्दीन ने कहाः हद हो गई, मुझे पता ही न चला कि तुम्हारा विवाह हो गया! वह कह रहा है कि मेरे पढ़ने वालों की संख्या दुगुनी हो गई है और नसरुद्दीन कह रहा है कि मुझे पता ही न चला कि कब तुम्हारा विवाह हो गया। क्योंकि और तो कोई उपाय नहीं की तुम्हारे पढ़ने वाले दुगुने हो जाएं। पहले अकेले तुम पढ़ने वाले थे; अब औरत और पढ़ती होगी! तुम्हारी कविता कोई और पढ़ेगा?

आंकड़े जितना झूठ बोलते हैं उतना दुनिया में कोई चीज नहीं बोलती। सरकारें जानती हैं अच्छी तरह, इसलिए वे आंकड़ों में बात करती हैं। वे झूठ बोलने के ढंग हैं।

उन्नीस सौ सत्रह में रूस में क्रांति हुई। साल भर बाद, एक छोटे गांव के संबंध में अखबार में खबर छपी थी कि वहां शिक्षा दुगुनी हो गई है। अब यह आंकड़ा बड़ा है। लेकिन हुआ कल इतना था कि उस स्कूल में एक मास्टर था और एक ही विद्यार्थी था, अब दो विद्यार्थी हो गए थे। शिक्षा दुगुनी हो गई! सौ प्रतिशत बढ़ गई!

आंकड़े बड़े झूठ बोलते हैं। राजनीतिज्ञ भलीभांति जानते हैं, कैसे आंकड़ों को उपयोग करना। तुम्हें समझ में ही न आएगा। उनके आंकड़े तुम देखो तो मुल्क अमीर होता जाता है, तुम गरीब होते जाते हो। तुम भूखे मरते हो, मुल्क की संपत्ति बढ़ती चली जाती है। उनके आंकड़े अगर तुम देखो तो कुछ और ही दुनिया है उनके आंकड़ों की। और उनके आंकड़ों में घिरे वे बैठे रहते हैं और हिसाब लगाते रहते हैं। नीचे असलियत बड़ी और है। आंकड़े असलियत को छिपाते हैं, उघाड़ते नहीं।

तथ्य तो तुम्हारी व्याख्या है; तुम्हारी धारणा उसमें समाविष्ट हो गई है। सत्य निर्धारणा होकर देखी गई बात है।

फरीद के वचन का मैं अर्थ करता हूंः बोलिए सचु धरमु..तुम्हारी सच्चाई से, तुम्हारे अस्तित्व से, तुम्हारे स्वभाव से, तुम्हारे धर्म से बोलो; अपनी प्रामाणिकता से बोलो, अप्रामाणिकता से नहीं। और तभी यह संभव होगा, तभी यह संभव होगा..जो गुरु दसै वाट मुरीदा जोलिए..तभी यह संभव होगा कि गुरु जो राह दिखाएगा, तुम उस पर चल सकोगे, उसके पहले नहीं। क्योंकि उसके पहले गुरु जो रास्ता बताएगा, उसमें भी तुम अपनी धारणा से हिसाब लगाओगे।

यह मेरा रोज का अनुभव हैः मैं कुछ कहता हूं, लोग करते कुछ हैं। और उनसे मैं पूछता हूं तो वे कहते हैं कि आपने ही तो कहा था! तब मैं गौर करता हूं तो मैं पाता हूं कि उन्होंने कहां होशियारी की। जो मैं कहता हूं उसमें से कुछ चुन लेते हैं वे। कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि वह कुछ पूरे के विपरीत हो।

कुरान में एक वचन है। वचन यह है कि तू शराब पी, नरक में सड़ाया जाएगा। एक मुसलमान शराब पीता था। मौलवी ने उससे कहाः पागल, तू सदा मस्जिद आता है। सदा मेरी बात सुनता है। हजार बार तूने सुना होगा यह वचन कि तू शराब पी और नरक में सड़ाया जाएगा। फिर भी तू पीए चले जा रहा है? तुझे होश नहीं आया?

उसने कहाः अभी मैं आधे वचन को ही पूरा करने में समर्थ हूं..तू शराब पी; अभी बाकी वचन की सामथ्र्य नहीं; धीरे-धीरे...।

कभी-कभी अंश पूरे के विपरीत हो सकता है। कभी-कभी खंड समग्र के विपरीत हो सकता है; क्योंकि समग्र बड़ी और बात है। तो मैं देखता हूं कि कहूं कुछ, परिणाम कुछ हो जाता है। वह चुनने वाला वह बैठा है। जब तक तुम अपनी प्रामाणिकता से ही बदलने को नहीं राजी हो तब तक कोई तुम्हें बदल न सकेगा। क्योंकि तुम्हें कोई कैसे बदलेगा, जब तुम ही बदलना न चाहते होओ? अगर तुम ही अपने साथ खेल खेल रहे हो, अपने को ही धोखा देने में लगे हो, तो तुम्हें कोई भी नहीं जगा सकता। सोए को कोई जगा दे; और जागा हुआ कोई आंख बंद किए पड़ा है, उसको तुम कैसे जगाओगे? वह जागना ही नहीं चाहता।

बोलिए सचु धरमु न झूठ बोलिए।

जो गुरु दसै वाट मुरीदा जोलिए।।

और फिर जो गुरु राह बता दे, उसे सुनना अपनी वास्तविकता में। उसे सुनना अपनी धारणाओं को हटा कर। उसके इशारे को पहचानने की कोशिश करना उसकी तरफ से, अपनी तरफ से नहीं; क्योंकि तुम तो कुछ गलत ही समझोगे। तुम गलत होः तुम जो व्याख्या करोगे वह गलत होगी, तुम जो मतलब निकालोगे वह तुम्हारा अपना होगा। वह जो कहता है उसे ठीक से सुन लेना..अपने मन को अलग हटा कर, किनारे रख कर।

‘प्रेमी के रास्ता पार कर लेने पर प्रियतमा को हिम्मत बंध जाती है।’

और जैसे-जैसे तुम गुरु की बात मान कर चलोगे, गुरु की आंखों में तुम्हें दिखाई पड़ने लगेगा कि तुम्हारे संबंध में आस्था और आश्वासन आने लगा। तुम अपनी फिकर मत करना; तुम गुरु की आंख में देखना। तुम यह मत सोचना अपनी तरफ से कि मैं खूब बढ़ रहा हूं, खूब कर रहा हूं और ठीक विकास हो रहा है। यह सवाल नहीं है। तुम इस बात को देखना कि गुरु तुम्हारे प्रति आश्वस्त हो रहा है या नहीं।

अभी कल रात मैं एक जर्मन विचारक, हैरीगेल, की किताब पढ़ रहा था। उसने छह वर्ष तक जापान में एक गुरु के पास धनुर्विद्या सीखी। धनुर्विद्या के माध्यम से जापान में ध्यान सिखाया जाता है। वह झेन फकीरों का एक रास्ता है। और धनुर्विद्या में ध्यान बड़ी सुविधा से फलित होता है; मगर बड़ा कठिन भी है। छह साल! और हैरीगेल पहले से ही धनुर्विद्या में कुशल व्यक्ति था। तो उसने सोचा था कि साल छह महीने में सब सीख कर लौट आऊंगा। तीन साल बीत गए, कुछ भी हल नहीं होता, और गुरु कुछ असंभव मालूम होता है; क्योंकि वह बातें ऐसी कहता है जो हैरीगेल की पकड़ में नहीं आतीं। पहली बात वह यह कहता है कि लक्ष्य-भेद हमारा लक्ष्य नहीं है। तीर तुम्हारा ठीक जगह पर लग गया, इससे हमें कुछ लेना देना नहीं है..लग गया, ठीक; नहीं लगा, ठीक। असली सवाल तुम्हारे हृदय से, तुम्हारे भीतर से जब तीर छूटा तब ठीक छूटा की नहीं, वह सवाल है। ठीक तो कभी-कभी ऐसे भी लग जाता है, अंधेरे में भी लग जाता है। ठीक तो तकनीकी ढंग से भी लग जाता है। अगर किसी आदमी ने तकनीक सीख ली तो तीर लग जाता है। यह सवाल नहीं है। ध्यान कहां घटित होगा? तुम्हारे भीतर जब तीर छूटता है, उस क्षण का सवाल है। उस क्षण ध्यान में छूटता है तो लगा। लगे या न लगे, अगर ध्यान में न छूटा; विचारणा में छूटा तो लग भी जाए तो बेकार।

तीन साल बाद हैरीगेल को लगा कि मैं सिर पचा रहा हूं इस आदमी के साथ; क्योंकि तीर का मतलब होता है कि लगना चाहिए। पश्चिम का सोचने का ढंग यह है कि जब तुम तीर सीख रहे हो तो उसका कुल अर्थ इतना है कि कितनी बार निशाने पर लगता है; अगर सौ प्रतिशत लगने लगा तो तुम पूरे कलाकार हो गए। और यह आदमी पागल हैः सौ प्रतिशत तीर लगे तो भी वह सिर हिलाए जाता है; वह कहता है कि नहीं।

और दूसरी बात गुरु ने कही कि जब तुम तीर चलाओ तो तुम्हें नहीं चलाना चाहिए; वह चलाए..परमात्मा! तुम सिर्फ तीर लेकर खड़े रहो। उसने कहाः यह बिल्कुल पागलपन हो गया। वह कौन है? वह कहां से चलाएगा? मैं नहीं चलाऊंगा तो तीर कैसे चलेगा?

और गुरु कहता हैः चलेगा। और गुरु जब चलाता है तो हैरीगेल भी देखता है कि बात तो ठीक कहता है। जब वह तीर खींचता है तो हैरीगेल ने जाकर उसकी मसल टटोल कर देखी, उसकी मसल पर जोर नहीं है, जो कि होना चाहिए। इतनी बड़ी प्रत्यंचा को वह खींच रहा है, मसल ऐसे है जैसे छोटे बच्चे की हों! उसमें मसल है ही नहीं! कहीं कोई खींचने का तनाव ही नहीं है। चेहरे पर कोई तनाव नहीं है। और वह खड़ा रहता है तीर खींच कर, और जब तीर छूटता है तो ऐसे ही छूटता है जैसे कि वह गुरु उसको जिस ढंग से समझाता है। वह प्रतीक उसको भी ठीक लगता है।

जापान में बांसों का बड़ा प्रेम है। और गुरु कहता हैः जैसे बांस की शाखा पर बर्फ पड़ जाती है तो बांस उसे झकझोरता थोड़े ही है; बांस वजन में झुक जाता है; झुकता जाता है, झुकता जाता है। एक घड़ी आती है, बर्फ खुद ही सरक जाती है। फिर बांस अपनी जगह उठ कर खड़ा हो जाता है। ऐसा ही तीर तुम खींच कर खड़े रहो, एक घड़ी आती है, तीर अपने से छूट जाता है, जैसे बरफ सरक जाती है।

वह उसकी समझ में नहीं आता। उसने बड़े उपाय किए। वह एक महीने भर की छुट्टी लेकर दूर समुद्र के तट पर चला गया। वह आदमी कुशल है, होशियार है। उसने सोचा, कोई तरकीब होगी इसमें, क्योंकि गुरु का हाथ भी छूट जाता है। तो उसने तरकीब साध ली। एक महीना उसने कई तरह के उपाय किए। उसने एक तरकीब खोज ली। वह तरकीब उसने यह खोज ली कि तीर को खींच कर वह खड़ा हो जाए और हाथ को इतने धीमे से छोड़े, इतने आहिस्ता से छोड़े कि छोड़ने का पता न चले; धीमे से छोड़ दे और तीर छूट जाए। वह महीने भर में निष्णात हो गया। उसने कहा कि अरे, इतनी सी बात थी और मैं नाहक परेशान हो रहा था!

वह आया। उसने तीर चला कर गुरु को दिखाया। गुरु एकदम चैंका, इतना कभी नहीं चैंका था। वह पास आया और उसने कहाः वंस अगेन प्लीज, एक बार फिर। यह भी डरा, हैरीगेल भी डरा कि शायद उसमें कुछ गड़बड़ हो गई है या क्या? तीर बिल्कुल छूटा तो सही है। गुरु को भरोसा न आया कि यह छूट नहीं सकता; क्योंकि यह छूट ही तब सकता है जब ध्यानस्थ चित्त हो, यह तो ध्यानस्थ तो चित्त है नहीं अभी! यह तीर छूटा कैसे? इसने कोई तरकीब सीख ली।

दुबारा इसने तीर छोड़ कर बताया। गुरु ने उसके हाथ से प्रत्यंचा ले ली और उसकी तरफ पीठ करके बैठ गया..जो कि जापान में बड़े से बड़ा अपमान है जो गुरु शिष्य का कर सकता हैः पीठ करके बैठ जाना। उसने कहा कि बात खत्म हो गई। पंद्रह दिन तक बड़ी मिन्नतें की गुरु की, आदमियों से खबरें पहुंचाईं; उसने कहा कि नहीं। जब शिष्य गुरु को धोखा दे तो फिर कोई उपाय नहीं।

हैरीगेल ने लिखा हैः मैंने धोखा दिया नहीं था। यह पश्चिमी और पूर्वीय बुद्धि का भेद है। मैंने तो कोई धोखा दिया नहीं था। मैंने तो सोचा था कि मैंने कोई तरकीब खोज ली है। मगर गुरु ने उसको ऐसा लिया कि धोखा दिया गया है। बामुश्किल गुरु राजी हुआ और उसने कहाः दुबारा ऐसी भूल न हो, अन्यथा मैं तुम्हारी शक्ल न देखूंगा।

वह जो पीठ फेर कर बैठ जाना है..छैल लघंदे पार, गोरी मनु धीरिआ..जैसे कि प्रेमी नदी पार करके आ रहा है और प्रेयसी इस किनारे खड़ी है और प्रेमी उस पार से आ रहा है; नदी तेज है, भयंकर उसका प्रवाह है, या वर्षा की बाढ़ है, उत्तुंग तरंगें हैं और गोरी का डर, और गोरी का मन कंप रहा है कि पता नहीं प्रेमी पार कर पाएगा, नहीं कर पाएगा, नदी बहा तो न ले जाएगी। वह शंकित है। वह आश्वस्त नहीं है। पर जैसे-जैसे प्रेमी पास आने लगता है इस किनारे के, गोरी आश्वस्त हो जाती है, प्रेयसी को धीरज बंधता जाता हैः अब, अब डर नहीं है!

गुरु किनारे खड़े शिष्य को ऐसे ही देखता है। तुम गुरु की नजरों पर नजर रखना। जब तुम उसमें पाओ कि आश्वासन आ गया; जब तुम पाओ कि गुरु प्रसन्न है; जब तुम पाओ कि वह मुस्कुरा रहा है; जब तुम पाओ कि आशीष बरसते हैं उससे; जब तुम पाओ कि अब वह आश्वस्त है..तभी तुम आश्वस्त होना। अपनी तरफ से आश्वस्त मत हो जाना, नहीं तो तुम खुद धोखा दे लोगे अपने को। तुम्हारी धोखा देने की इतनी संभावना है कि जिसका कोई हिसाब नहीं। तुम अपने पर भरोसा मत कर लेना।

छैल लघंदे पार गोरी मनु धीरिआ।

कि प्रेमी पास आ गया, अब ज्यादा दूर न रही; हाथ दो हाथ मारने की बात है, किनारा लग जाएगा। गोरी के मन धीरज आ गया।

प्रेमी के नदी पार कर लेने पर जैसे प्रियतमा को हिम्मत बंध जाती है, ऐसे ही जिस दिन तुम गुरु की आंख में हिम्मत बंधी देखो तुम्हारे बाबत, आश्वस्त देखो गुरु को, उसी दिन आश्वस्त होना, उसके पूर्व नहीं।

‘तू करौत से चीर दिया जाएगा यदि तू कंचन की तरफ लुभाएगा।’

कंचन वंने पासे कलवति चीरिआ।

और प्रेम के जगत में एकमात्र ही भटकाव है वह है धन है। यह बड़ी मनोवैज्ञानिक और बड़ी गहरी बात है। फरीद कह रहा है कि प्रेम से चूकने का एक ही उपाय है और वह है कि कंचन में उत्सुक हो जाए। तू धन में उत्सुक हो जाए। अब यह नाजुक है। यह ख्याल बड़ा गहरा है। और मनोविज्ञान अब इसकी खोज कर रहा है धीरे-धीरे। और मनोविज्ञान कहता है कि जो आदमी धन में उत्सुक है वह आदमी प्रेम में उत्सुक नहीं होता। ये दोनों बात एक साथ होती ही नहीं..ऐसे ही जैसे जो आदमी पूरब चल रहा है, वह पश्चिम की तरफ नहीं चल रहा है।

क्यों धन और प्रेम में इतना विरोध है?

प्रेम बड़े से बड़ा धन है। जिसने प्रेम को पा लिया, उसे धन मिल गया। वह अपनी गरीबी में भी हीरे-जवाहरातों का मालिक है। लेकिन जिसने प्रेम नहीं पाया, उसके लिए तो फिर एक ही रास्ता है कि वह धन इकट्ठा करे, ताकि थोड़ा सा आश्वासन तो मिले कि मेरे पास भी कुछ है। धन प्रेम का सब्स्टीट्यूट है, परिपूरक है। इसलिए कृपण आदमी प्रेमी नहीं होता। कंजूस प्रेमी नहीं होता..हो नहीं सकता। नहीं तो वह कंजूस नहीं हो सकता। ये दोनों बातें एक साथ नहीं घट सकतीं; ये विपरीत हैं। जितना तुम धन को इकट्ठा करते हो उतना ही तुम्हारा प्रेम पर भरोसा कम है। तुम कहते होः कल क्या होगा? बुढ़ापे में क्या होगा? आर्थिक हालत बिगड़ जाएगी तो परिस्थिति कैसे सम्हालूंगा?

प्रेमी कहता हैः क्या करेंगे; जो प्रेम आज करता है वह कल भी करेगा। जिसने आज प्रेम दिया है और भरपूर किया है वह कल भी फिकर लेगा।

अगर तुम किसी को पाते हो जो तुम्हें प्रेम कर रहा है तो बुढ़ापे की चिंता न होगी। लेकिन अगर तुम्हारा कोई नहीं प्रेमी, तुमने किसी को इतना प्रेम नहीं दिया, न कभी किसी से इतना प्रेम लिया, तो तिजोड़ी ही सहारा है बुढ़ापे में। और फिर तुम्हें डर है, प्रेमी तो धोखा दे जाए; तिजोड़ी कभी धोखा नहीं देती। प्रेमी का क्या भरोसा, आज साथ है, कल अलग हो जाए! धन ज्यादा सुरक्षित मालूम पड़ता है। प्रेमी माने न माने, धन तो सदा तुम्हारी मान कर चलेगा। धन तो कोई अड़चन खड़ी नहीं करता, मालकियत पूरी स्वीकार करता है। फिर धन का तुम जैसा उपयोग करना चाहो, जब करना चाहो, वैसा कर सकते हो। प्रेमी का तुम उपयोग नहीं कर सकते। प्रेमी प्रेम में कुछ करे, ठीक; प्रेमी के साथ जबरदस्ती नहीं की जा सकती।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं, छोटा बच्चा जब पैदा होता है तो अगर मां उसको प्रेम करती हो तो वह ज्यादा दूध नहीं पीता। आपको भी अनुभव होगा, अगर मां बच्चे को ठीक प्रेम करती हो तो मां सदा परेशान रहती है उसको जितना दूध पीना चाहिए, वह नहीं पी रहा है; जितना खाना खाना चाहिए, वह नहीं खा रहा है। वह उसके पीछे लगी है चैबीस घंटे कि और खा। क्यों? क्योंकि बच्चा जानता है, जिस स्तन से दूध अभी बहा प्रेम से भरा हुआ, जब भूख लगेगी फिर बहेगा। भरोसा है। लेकिन अगर मां बच्चे को प्रेम न करती हो; नर्स हो, मां न हो तो बच्चा छोड़ता ही नहीं स्तन। क्योंकि बच्चे को डर हैः तीन घंटे बाद जब भूख लगेगी, नर्स उपलब्ध रहेगी नहीं रहेगी, इसका कुछ पक्का नहीं है। भविष्य अंधकारपूर्ण है। इसलिए तुम देखोगे, जिन बच्चों को प्रेम नहीं मिला उनके पेट बड़े पाओगे; जिन बच्चों को प्रेम मिला उनके पेट बड़े नहीं पाओगे। पेट बड़ा, मां की तरफ से प्रेम नहीं मिला, इसका सबूत है। बड़ा पेट यह कह रहा है कि थोड़ा भोजन हम इकट्ठा कर लें वक्त-बेवक्त के लिए, क्योंकि कुछ भरोसा तो है नहीं। नर्स क्या भरोसा? मां का, अगर वह सिर्फ शरीर की ही मां हो और हृदय से प्रेम न बहता हो, और भरोसा न हो तो बच्चा बेचारा अपनी सुरक्षा कर रहा है। वह यह कह रहा है, थोड़ा अतिरिक्त हमेशा रखना चाहिएः कभी रात भूख लगेगी, कोई उठाने वाला न होगा, तो पेट भरा होना चाहिए।

तुम ध्यान रखना, गरीब लोग ज्यादा खाते हैं, क्योंकि कल का भरोसा नहीं। अमीर की भूख ही मिट जाती है, क्योंकि जब चाहिए तब मिल जाएगा। अमीरों के पेट बड़े होने चाहिए वस्तुतः। लेकिन तुम पाओगे, अकालग्रस्त क्षेत्रों में लोगों के पेट बहुत बड़े हो जाते है; सारा शरीर सूख जाता है, पेट बड़ा हो जाता है। क्योंकि जब मिल जाता है तब वे पूरा खा लेते हैं, जरूरत से ज्यादा खा लेते हैं; क्योंकि दो-चार-पांच दिन चलना पड़ेगा, क्या पता बिना खाने के चलना पड़ेगा!

मां के स्तन पर बेटे को दो रास्ते खुलते हैंः एक प्रेम का रास्ता है। एक पेट का रास्ता है। पेट यानी धन, पेट यानी तिजोड़ी। एक प्रेम का रास्ता है। प्रेम यानी प्राण, प्रेम यानी आत्मा। तिजोड़ी यानी शरीर; प्रेम यानी परमात्मा। तो जिनके जीवन में प्रेम की कमी है, वे धन पर भरोसा रखेंगे।

इसलिए फरीद कहता हैः कंचन वंने पासे कलवति चीरिआ।

और ध्यान रखना, प्रेम के रास्ते में धन के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। अगर धन की तरफ झुका, लुभाया तो, आरे से चीर दिया जाएगा। इसका कुछ मतलब ऐसा नहीं है कि कोई आरे से किसी को चीर देगा। लेकिन जब प्रेम कट जाता है तो प्राण ऐसे ही कट जाते हैं जैसे आरे से चीर दिए गए हों।

सेख हैयाती जगि न कोई थिरु रहिआ।

‘शेख, इस दुनिया में कोई हमेशा रहने वाला नहीं हैं। जिस पीढ़े पर हम बैठे हैं, उस पर कितने ही बैठ चुके हैं।’

वैज्ञानिक कहते हैं कि जिस जगह तुम बैठे हो वहां कम से कम दस आदमियों की लाशें दफनाई जा चुकी हैं। इंच-इंच जमीन पर करोड़ों-करोड़ों लोग दफनाए जा चुके हैं। तुम भी थोड़े दिन बाद जमीन के भीतर होओगे, कोई और तुम्हारे ऊपर बैठा होगा। पर्त-दर-पर्त मुर्दे दबते जाते हैं।

शेख, इस दुनिया में कोई भी हमेशा रहने वाला नहीं हैं।

बुद्ध का बड़ा प्रसिद्ध वचन हैः सब्बे संघार अनिच्चा..इस संसार में सभी कुछ बहावमान है, बहता जा रहा है, परिवर्तनशील है। इसमें कहीं भी कोई किनारा नहीं है। लहरों को किनारे मत समझ लेना और उनको पकड़ कर मत रुक जाना। और जिस जगह तुम बैठे हो, बैठे-बैठे अकड़ मत जाना, उसको सिंहासन मत समझ लेना। सब सिंहासनों के नीचे कब्रें दबी हैं।

जैसे कुलंग पक्षी कार्तिक में आते हैं, चैत में दावानल और सावन में बिजलियां आती हैं और जाड़े में जैसे कामिनी अपने प्रीतम के गले में बांहें डाल देती हैं..ऐसे ही सब क्षण भर को आता है और चला जाता है। इस सत्य पर तू अपने मन में विचार कर कि यहां सब क्षणभंगुर है।’ शाश्वत के सपने मत सजा। शाश्वत के सपने सजाएगा तो भटकेगा। क्षणभंगुर के सत्य को देख। इस पर तू अपने मन में विचार कर।

‘मनुष्य के गढ़े जाने में महीनों लगते हैं, टूट जाने में क्षण भी नहीं लगता।’

फरीद कहते हैंः जमीन ने आसमान से पूछा, कितने खेने वाले चले गए। श्मशान और कब्रों में उनकी रूहें झिड़कियां झेल रही हैं!

चले चलणहार विचारा लेइ मनो।

चलती हुई हालत है; चल ही रहे हैं मौत की तरफ। चले चलनहार..चल ही पड़े हैं। जन्म के साथ ही आदमी मरने की तरफ चल पड़ा है।

चले चलणहार विचारा लेइ मनो।

ठीक से सोच ले। यहां घर बनाने की कोई जगह नहीं है। यहां रात रुक जा, ठीक; मंजिल यहां नहीं है। पड़ाव हो, बस; सुबह उठे और डेरा उठा लेना है।

चले चलणहार विचारा लेइ मनो।

गंढ़ेदिआ छिअ माह तुरंदिआ हिकु खिनो।।

छह महीने लग जाते हैं बच्चे के गढ़ने में, क्षण भर में मिट जाता है। मरने में क्षण भर नहीं लगता।

जिमी पुछै असमान फरीदा खेवट किनी गए।

जमीन आसमान से पूछती है, फरीद कितने खेने वाले, नावें चलाने वाले मांझी आए और चले गए।

जारण गोरा नालि उलामे जीअ सहे।

और वे सब कहां हैं जो बड़ा मस्तक उठा कर मांझी बने थेः जो नाव पर अकड़ कर बैठे थे; जिन्होंने सिंहासनों को शोभायमान किया था..वे अब सब कहां हैं? वे सब बड़े खेने वाले लोग कहां खो गए?

श्मशान और कब्रों में उनकी रूहें झिड़कियां झेल रही हैं।

अब वे अपने लिए ही पछता रहे हैं कि उन्होंने जीवन व्यर्थ खोया। अब वे रो रहे हैं कि उन्होंने कुछ न किया, जो करने योग्य था! और वह सब कमाया जो मिट्टी था! हीरे गंवाए, कंकड़ इकट्ठे किए! कूड़ा-करकट सम्हाला, संपदा खोई। अब वे झिड़कियां झेल रहें हैं; खुद पछता रहे हैं।

जीवन, जिसे तुम जीवन कहते हो, जीवन नहीं हैं; वह तो केवल मरने की प्रतीक्षा है; मृत्यु के द्वार पर लगा क्यू हैः अब मेरे, तब मेरे! एक और जीवन है, एक महाजीवन है। धर्म उसी का द्वार है। लेकिन जो इस जीवन को मृत्यु जान लेगा वही उस महाजीवन की खोज में निकलता है। इस पर ठीक से सोचना।

फरीद ठीक कहता हैः खूब मन ठीक से विचार कर ले। यही जीवन हो सकता है, यह क्षणभंगुर, जो अभी है और अभी गया; हवा के झोंके में कंपते हुए पत्ते की भांति, जो प्रतिपल मरने के लिए कंप रहा है? सुबह के उगते हुए सूरज में जैसे ओस समा जाती हैं, विलीन हो जाती है, खो जाती है, ऐसा मौत किसी भी दिन तुझे तिरोहित कर देगी। यह तेरा होना कोई होना है? इस पर ठीक से विचार कर ले। जिन्होंने भी ठीक से विचार किया वे ही नये अस्तित्व की खोज में लग गए।

बुद्ध ने देखा मरे हुए आदमी को, पूछा अपने सारथी कोः क्या हो गया है इसे?

सारथी ने कहाः सभी को हो जाता है..अंत में सभी मर जाते हैं।

बुद्ध ने कहाः रथ वापस लौटा ले।

सारथी ने कहाः लेकिन हम युवक महोत्सव में भाग लेने जा रहे थे। वे आपकी प्रतीक्षा करते होंगे, क्योंकि राजकुमार गौतम ही युवक महोत्सव का उदघाटन करने को था।

गौतम बुद्ध ने कहाः अब मैं युवक न रहा। जब मौत आती है, और मौत आ रही है..कैसा यौवन? कैसा उत्सव? वापस लौटा ले। मैं मर गया। इस आदमी को मरा हुआ देख कर मैं जिसे अब तक जीवन समझता था, वह मिट गया; अब मुझे किसी और जीवन की तलाश में जाना है।

उस जीवन की खोज ही धर्म है।


आज इतना ही।


कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...