बुधवार, 22 दिसंबर 2021

दान

 दुनिया के सारे धर्मों में चैरिटी पर, दान पर, बहुत जोर दिया गया है। और उसका कारण यह है कि आदमी ने धन के साथ सदा अपराधभाव महसूस किया है। दान का इतना प्रचार इसीलिए किया गया है ताकि मनुष्य कुछ कम अपराध भाव महसूस करे। तुम्हें हैरानी होगी; प्राचीन अंग्रेजी में एक शब्द है गिल्ट जिसका अर्थ है धन। जर्मन भाषा में एक शब्द है गेल्ड जिसका अर्थ धन है। और गोल्ड तो बहुत करीब है ही। गिल्ट, गिल्ट, गोल्ड—किसी ने किसी तरह गहरे में धन के साथ अपराध भाव जुड़ा है।


जब कभी भी तुम्हारे पास धन होता है तुम अपराधी अनुभव करते हो...और यह स्वाभाविक हैं, क्योंकि इतने सारे लोगों के पास धन नहीं है। तुम अपराध भाव से बच कैसे सकते हो? जब कभी भी तुम्हें धन मिलता है, तुम जानते हो कि तुम्हारी वजह से कोई गरीब हो गया है। जब कभी भी तुम्हें धन मिलता है, तुम जानते हो कि कहीं न कहीं कोई न कोई जरूर भूख से मर रहा होगा। और इधर तुम्हारा बैंक बैलेंस बड़ा और बड़ा होता जा रहा है। किसी बच्चे को जीवित रहने के लिए औषधि न मिल सकेगी। किसी स्त्री को दवा न मिल सकेगी, कोई गरीब आदमी मर जाएगा क्योंकि उसके पास भोजन न होगा। इन चीजों से तुम कैसे बच सकते हो? ये तो वहां होगी ही। जितना अधिक धन तुम्हारे पास होगा, उतनी ही अधिक ये चीजें तुम्हारी चेतना में विस्फोटित होती रहेंगी, तुम अपराधी अनुभव करोगे।


 दान तुम्हें तुम्हारे अपराध-भाव से निर्भार करने के लिए है, इसलिए तुम कहते हो, ‘मैं कुछ तो कर रहा हूं: मैं एक अस्पताल खोलने जा रहा हूं, एक कॉलेज खोलने जा रहा हूं। मैं इस दान फंड को रूपया देता हूं, उस ट्रस्ट को रूपया देता हूं।’ तुम थोड़े से आनंदित महसूस करते हो। संसार सदा निर्धनता में जिया है, संसार सदा तंगी में जिया है, निन्यान्वे प्रतिशत लोग निर्धनता का जीवन जिए है। करीब-करीब भूखे रहते है, और मर जाते है। और केवल एक प्रतिशत व्यक्ति समृद्धि के साथ, धन के साथ जिए है। उन्होंने सदैव अपराध-भाव अनुभव किया है। उनकी सहायता करने के लिए धर्मों ने दान की धारणा का विकास किया है। यह उन्हें उनके अपराध-भाव से छुटकारा दिलाने के लिए है।

 दान कोई सदगुण नहीं है—यह बस तुम्हारी स्थिर बुद्धि को सकुशल बनाए रखने के लिए है, वरना तो तुम विक्षिप्त हो जाओगे। दान सद्गुण नहीं है—यह एक पुण्य भी नहीं है। यह नहीं कि जब तुम दान देते हो तो तुम कोई अच्छा काम करते हो। बात कुल यह है कि धन को इकट्ठा करने में तुम जो बुरे काम करते हो, तुम उसके लिए पश्चाताप करते हो।  दान कोई महान गुण नहीं है—यह तो पश्चाताप है, तुम पश्चात्ताप कर रहे होते हो। एक सौ रूपये तुमने कमाये, दस रूपये तुमने दान में दे दिए। यह एक पश्चात्ताप है। तुम थोड़ा सा अच्छा महसूस करते हो; तुम उतना खराब महसूस नहीं करते, तुम्हारे अहंकार थोड़ा सा सुरक्षित महसूस करता है। तुम परमात्मा से कह सकते हो, ‘मैं केवल शोषण ही नहीं कर रहा था, मैं गरीब आदमियों की मदद भी कर रहा था।’ मगर यह किसी तरह की मदद है? एक तरफ तो तुम सौ रूपए छीन लेते हो, और दूसरी और देते हो केवल दस रूपये—ये तो ब्याज तक नहीं?


यह एक तरकीब है जिसका आविष्कार तथाकथित धार्मिक लागों ने किया था। गरीबों की सहायता करने के लिए नहीं बल्कि धनवालों की सहायता करने के लिए। यदि निर्धन लोगों की सहायता हुई भी, वह तो मात्र इसका परिणाम था, एक उप-उत्पाद, परंतु यह उनका उद्देश्य नहीं था।

मैं दान की बात ही नहीं करता हूं। यह शब्द ही मुझे कुरूप लगता है। मैं तो बांटने की बात करता हूं—और इसमें एक बिलकुल ही भिन्न गुण के साथ बांटना। यदि तुम्हारे पास है, तुम बांट लो। इसलिए नहीं कि बांटने से तुम दूसरों की सहायता करोगे, न; बल्कि बांटने से तुम विकसित होओगे। जितना ज्यादा तुम बांटते हो, उतना ही ज्यादा तुम विकसित होते हो।


और जितना ज्यादा तुम बांटते हो, उतना ही ज्यादा तुम्हें और मिलता है—चाहे जो भी हो। यह केवल धन का ही प्रश्न नहीं है। यदि तुम्हारे पास ज्ञान हो, उसे बांटो। यदि तुम्हारे पास प्रेम हो, उसे भी बांटो। जो भी तुम्हारे पास हो, उसे बांटो, उसे चारों और फैलाओ; हवाओं में उड़ती एक फूल की सुगंध की तरह इसे फैलने दो। इसका विशेष रूप से गरीबों से ही कोई संबंध नहीं है। जो भी उपलब्ध हो उसी के साथ बांट लो...और गरीब भी तरह-तरह के होते है।


एक धनी व्यक्ति भी गरीब हो सकता है क्योंकि उसने कभी कोई प्रेम जाना ही नहीं है। उसके साथ प्रेम बांटो। एक गरीब आदमी ने शायद प्रेम जाना हो पर अच्छा भोजन नहीं—उसके साथ भोजन को बांटो। एक धनी व्यक्ति के पास शायद सब कुछ हो, परंतु समझ न हो, उसे अपनी समझ को बांटो लो, वह भी गरीब है। गरीबी की हजार किस्में है। जो भी तुम्हारे पास हो, उसे भी बांट लो।

लेकिन याद रखना, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि यह पुण्य है, कि परमत्मा इसके लिए स्वर्ग में तुम्हें एक विशेष स्थान देगा, कि तुम्हारे साथ एक विशेष्ट व्यवहार किया जाएगा। कि तुम्हें एक अति विशिष्ट व्यक्ति माना जाएगा। और न ही बांटने से तुम अभी और यही आनंदित हो जाओगे। जमाखोर कभी आनंदित नहीं हो सकता।वह जमा ही किए चला जाता है। वह विश्राम नहीं कर सकता, वह दे नहीं सकता। वह जमा ही किए जाता है, जो कुछ भी उसे मिलता है, वह बस उसी को जमा कर लेता है। वह कभी उसका आनंद नहीं उठा पाता क्योंकि आनंद उठाने के लिए भी तुम्हें बांटना तो पड़ता ही है—क्योंकि सारा आनंद एक तरह का बांटना ही है।


यदि तुम सच में ही अपने भोजन का आनंद उठाना चाहते हो, तुम्हें मित्रों को  बुलाना होगा। यदि तुम सच में ही भोजन का आनंद उठाना चाहते हो, तुम्हें अतिथियों को निमंत्रण देना होगा, वरना तुम इसका आनंद न उठा पाओगे। यदि सच में ही तुम मदिरापान का लुत्फ उठाना चाहते हो, कैसे तुम अकेले अपने कमरे में इसका लुत्फ उठा सकते हो। तुम्हें दोस्त, अपने साथी खोजने ही होगे। तुम्हें बांटना आना ही चाहिए, आनंद बांटने से बढ़ता है।


आनंद सदा बांटना है। आनंद अकेले में नहीं होता। अकेले तुम कैसे आनंदित हो सकते हो? एकदम अकेले—जरा सोचो!  नहीं, आनंद तो एक संबंध है। यह संग-साथ है। सच तो यह है कि जो लोग पहाड़ पर भी चले गए होते हैं, और एकांत जीवन जीते होते हे। वे भी अस्तित्व के साथ बांटते है, वे भी अकेले नहीं होते। वे बांट लेते है, तारों और पहाड़ों, पक्षियों और वृक्षों के साथ—वे भी वहां अकेले नहीं होते।


जरा सोचो! बारह वर्ष तक महावीर जंगल में अकेले खड़े रहे थे—पर वह अकेले नहीं थे। मैं तुमसे कहता हूं, अधिकारता से, कि वह अकेले नहीं थे। पक्षी वहां आते थे, और उनके चारों और खेलते रहते थे। पशु आते थे उनके पास बैठ जाते थे। वृक्ष उन्हें देख कर गद्दगद्द हो कर उन पर फूल बरसाते थे। रात को सितारे जगमगाते थे, सुबह जब सूर्य उदय होता तो उनके तन बदन को छूता था, दिन-रात, सर्दियां-गर्मिया... और सारे वर्ष कुछ न कुछ होता ही रहता था। यह आनंदपूर्ण था। हां, इंसानों से वह दूर थे—उन्हें दूर रहना ही था क्योंकि इन्सानों ने उन्हें इतनी हानि पहुंचाई थी कि स्वस्थ होने के लिए उन्हें दूर रहना ही था। यह तो बस एक निश्चित समय तक इंसानों से दूर रहने के लिए चले गए थे। ताकि वह उन्हें और अधिक कष्ट न पहुंचा सके। यही कारण है कि संन्यासी कभी-कभी एकांत में चला जाता है। बस अपने घाव को भरने के लिए। वरना लोग अपने खंजर तुम्हारे धावों में चुभोते ही रहेंगे, वे उन घावों को हरा ही रखेंगे; वे उन्हें भरने न देंगे, वे तुम्हें जो उन्होंने किया है उसे अनकिया करने का अवसर ही न देंगे।

बारह वर्ष तक महावीर मौन थे: चट्टानों और वृक्षों के पास खड़े, बैठे, पर वह अकेले न थे—सारे अस्तित्व ने उनके आसपास भीड़ लगा रखी थी। सारा अस्तित्व उनके ऊपर समाविष्ट हो रहा था। फिर एक दिन वह आया जब वह स्वस्थ्य हो गए। उनके घाव भर गए। और अब वह जान गए थे कि कोई उन्हें हानि नहीं पहुंचा सकता है। वह पार जा चुके थे। अब कोई भी इंसान उन्हें चोट नहीं पहुंचा सकता था। वह इंसानों से संबंधित होने के लिए, उस आनंद को बांटने के लिए जो उन्हें वहां जंगल में प्राप्त हुआ था, वापस लौट आना ही पड़ा।


जैन धर्मग्रंथ केवल इतना ही कहते है कि वह इस संसार को छोड़ कर चले गए थे। वे उस दूसरे तथ्य की बात ही नहीं करते...वह संसार में वापस क्यों लोट कर आ गए? कौन सा कारण है जो उन्हें संसार में धकेल रहा था, वह आनंद जो उनके भीतर घटा था वह बहने को तत्पर हो रहा था। यह तो आधी ही बात हुई कि वह संसार को छोड़ कर जंगलों में चले गए, यह पूरी कथा नहीं है।


बुद्ध जंगल में चले गए थे, पर वह वापस भी लौट आये थे। कैसे तुम वहां जंगल में बने रह सकते हो जब कि तुम्हें ‘वह’ मिल गया हो? तुम्हें वापस आना होगा और इस बांटना होगा। हां, वृक्षों के साथ बांट लेना अच्छा है, पहाड़ो के साथ बाटा जा सकता है, पक्षियों के साथ बांट सकते हो। परंतु वृक्ष इतना तो नहीं समझ पाते। वे तो बड़े ही र्निबुद्धि हैं। पशुओं के साथ बांट लेना अच्छा है; वे सुंदर है—पर मानवीय आदान-प्रदान की सुंदरता ही कुछ और होती है। उस सम्पूर्णता की पूर्णता मनुष्य के पास बांटना ही प्रत्युत्तर हो सकता है। उन सबको वापस लौटना ही पड़ा, संसार में, मनुष्य के बीच में, अपनी उत्फुल्लता, अपने आनंद, अपनी समाधि को बांटने के लिए।


‘दान’ कोई अच्छा शब्द नहीं है,  यह बड़ा ही भारी शब्द है। मैं तो बांटने की बात करता हूं। अपने संन्यासियों से मैं कहता हूं कि बांटो। ‘दान’ शब्द में कुछ कुरूपता भी है; ऐसा लगता है कि तुम तो ऊंचे हो और दूसरा तुमसे नीचे है; कि दूसरा एक भिखारी है। कि तुम दूसरे की मदद कर रहे हो, कि वह जरूरत में है। यह अच्छी बात नहीं है। दूसरों को ऐसे देखना मानो कि वह तुमसे नीचा हो—तुम्हारे पास है और उसके पास नहीं है—अच्छी बात नहीं है। यह अमानवीय है।


बांटना एक बिल्कुल ही भिन्न दृष्टि की बात है। इस बात का प्रश्न ही नहीं है कि उसके पास है अथवा नहीं है। प्रश्न तो बस यह है कि तुम्हारे पास बहुत अधिक है—तुम्हें बांटना ही है। जब तुम दान देते हो, तुम दूसरे से तुम्हें धन्यवाद देने की अपेक्षा करते हो। जब तुम बांटते हो, तुम उसे धन्यवाद देते हो कि उसने तुम्हें ऊर्जा उडेलने का अवसर दिया—जो कि तुम पर बहुत एकत्रित हो गई थी। यह भारी होने लगी थी। तुम कृतज्ञ अनुभव करते हो।


बांटना तुम्हारी प्रचुरता से है। दान दूसरे की गरीबी के लिए है। वरना तुम्हारी समृद्धि से है। उनमें गुणात्मक भेद है।


नहीं, मैं दान की बात ही नहीं करता, मैं तो बांटने की बात करता हूं...और यह बढ़ेगा। यह एक आधारभूत नियम है। जितना अधिक तुम देते हो, उतना ही अधिक तुम्हें मिलता है। देने में कभी कंजूस न बनो।

ओशो रजनीश

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2021

नारी

 नाराजगी में देवताओं ने एक आदमी को अभिशाप दिया कि आज से तेरी छाया खो जाएगी। धूप में भी चलेगा तो तेरी छाया नहीं बनेगी। वह आदमी अपने मन में बहुत हंसा कि छाया से मेरा क्या बिगड़ जाएगा। और देवता कैसे नासमझ हैं, अभिशाप भी दे रहे हैं तो छाया के खोने का दे रहे हैं। वह समझ ही न सका कि छाया के खोने से क्या नुकसान हो सकता है? आप भी नहीं समझ सकेंगे कि छाया के खोने से क्या नुकसान है? लेकिन जैसे ही वह आदमी अपने गांव में आया उसे पता चला कि बहुत नुकसान हो गया, जिस आदमी ने भी देखा कि धूप में उसकी छाया नहीं बन रही है वही आदमी उससे भयभीत हो गया।

गांव में खबर फैल गई कि वह आदमी कुछ गड़बड़ हो गया है, उसकी छाया नहीं बनती, ऐसा कभी भी नहीं हुआ था कि किसी आदमी की छाया न बने। उसके घर के लोगों ने द्वार बंद कर लिए, उसके मित्रों ने मुंह मोड़ लिया। उसकी पत्नी ने उसे पति मानने से इनकार कर दिया, उसके बच्चे भी उसे इनकार करने लगे। गांव में उसका जीना मुश्किल हो गया। और गांव के लोगों ने कहा कि तुम गांव के बाहर निकल जाओ। ऐसी बीमारी कभी किसी को नहीं हुई है आज तक कि उसकी छाया खो जाए। पता नहीं तुम कैसे अभाग्य के लक्षण हो। उस आदमी को वह गांव छोड़ देना पड़ा।

क्या ऐसा हो सकता है कि किसी आदमी की छाया खो जाए? लेकिन जब नारियों के संबंध में मैं सोचता हूं तो मुझे पता चलता है कि उनके संबंध में मामला बिलकुल उलटा हो गया है। वे सिर्फ छाया रह गई हैं और उनकी आत्मा खो गई हैं।

नारी सिर्फ पुरुष की छाया रह गई है, उसके पास अपनी कोई आत्मा नहीं हैं।  स्त्रियों में मां मिलती है, बहन मिलती है, बेटी मिलती है नारी कहीं भी नहीं मिलती। मां है, पत्नी है, बेटी है, बहन है लेकिन नारी, नारी कहीं भी नहीं है। स्त्री का कोई भी अस्तित्व है तो पुरुष से संबंधित होकर है, अपने में उसका कोई भी अस्तित्व नहीं है। अपनी उसकी कोई हैसियत नहीं है। अपना उसका कोई व्यक्तित्व नहीं है।

हिंदुस्तान में भी स्त्री को हम संपत्ति मानते रहे हैं। नारी संपत्ति, स्त्री संपत्ति शब्द का हम प्रयोग करते हैं। कन्या का दान कर देते हैं, जैसे कि कोई वस्तु किसी को दान में दी जा रही हो। स्त्री के व्यक्तित्व का अंगीकार ही नहीं हो सका। और इस बात में कि स्त्री सिर्फ छाया है, मनुष्य-जाति को जितने दुख दिए हैं उतने किसी और बात ने नहीं दिए हैं। क्योंकि जिस स्त्री के पास आत्मा ही न हो, वह स्त्री न तो स्वयं के लिए आनंद बन सकती है और न किसी और के लिए। जिसकी आत्मा ही खो गई हो वह एक दुख का ढेर होगी और उसके व्यक्तित्व के चारों तरफ दुख की किरणें ही फैलती रहेंगी, दुख का अंधेरा ही फैलता रहेगा।

परिवार एक आनंद का फूल नहीं बन पाया क्योंकि जिसकी आत्मा के खिलने से वह आनंद बन सकता था उसके पास आत्मा ही नहीं है। परिवार एक संस्था है मृत और मरी हुई क्योंकि नारी है केंद्र और नारी के पास कोई व्यक्तित्व नहीं है। मनुष्य-जाति बहुत से दुर्भाग्य में से गुजरती रही है, उसमें सबसे बड़ा दुर्भाग्य, बड़े से बड़ा दुर्भाग्य नारी की स्थिति है। किन्होंने यह स्थिति नारी की बना दी है? कौन है जिम्मेवार? इस संबंध में खोजबीन करने से बहुत अजीब नतीजे हाथ में आते हैं। संतों से पूछिए, महात्माओं से पूछिए, वे कहेंगे, नारी--ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी। उनमें वे गिनती करते हैं।

संत कहते हैं कि नारी नर्क का द्वार है।

कोई पूछे इन संत को कि पैदा कहां से हुए थे? नौ महीने किसके पेट में रहे थे? खून किसका दौड़ता है तुम्हारी नसों में, हड्डियां किससे बनी हैं, मांस किससे पाया है? अब तक ऐसा तो उपाय नहीं हो सका कि संत पुरुषों के पेट में रह कर पैदा हो सकेगा। लेकिन जिस स्त्री से मांस-मज्जा बनती है, हड्डी बनती है, जिसके खून से जीवन चलता है। नौ महीने तक जिसके शरीर का हिस्सा होकर आदमी रहता है उसी स्त्री के छूने से वह अपवित्र हो जाता है। और स्त्री के अतिरिक्त तुम्हारे पास है क्या तुम्हारे शरीर में जो अपवित्र हो गए? और स्त्रियां ही भीड़ लगा कर पूजा करेंगी कि संत बहुत बड़ा संत है, स्त्री के छूने से अपवित्र हो जाता है।

मूढ़ता की भी कोई सीमा होती है, जहालत की भी कोई हद्द होती है। किन्होंने स्त्री को अपमानित किया है और उसके व्यक्तित्व से आत्मा छीन ली है? उन लोगों ने स्त्री को अपमानित किया है और उसकी आत्मा का हनन किया है, जो लोग इस जीवन, इस जगत, इस धरती के विरोध में हैं। और उनका, उनके विरोध में एक संगति है, जो लोग भी मानते हैं कि असली जीवन मरने के बाद शुरू होता है, जो लोग मानते हैं कि असली जीवन मोक्ष में शुरू होता है, स्वर्ग में शुरू होता है, जो लोग भी मानते हैं कि यह पृथ्वी पापपूर्ण है, यह जीवन असार है। जो लोग भी मानते हैं, यह जीवन निंदित है, कंडेम है, यह जीवन जीने के योग्य नहीं है। ऐसे सारे लोग नारी को गाली देंगे, क्योंकि इस जीवन को जो निंदित करते हैं वे नारी को भी निंदित करेंगे, क्योंकि यह जीवन नारी से ही निकलता और विकसित होता और प्रभावित होता है।

इस जीवन का द्वार नारी है और इसलिए नारी नर्क का द्वार है क्योंकि इस जीवन को कुछ लोग नर्क मानते हैं। जिन लोगों ने इस जीवन की निंदा की है उन लोगों ने स्त्री को भी अपमानित किया है। दुनिया में मुश्किल से कोई धर्म होगा जिसने स्त्री को कोई भी इज्जत दी हो। 

यह तथ्य समझ लेना जरूरी है, तो ही नारी के जीवन में आने वाले भविष्य में कोई क्रांति हो सकती है और नारी को आत्मा मिल सकती है। जब तक पृथ्वी का जीवन भी स्वीकार योग्य नहीं बनता, जब तक यह जीवन भी अहोभाग्य नहीं बनता, जब तक इस जीवन को भी आनंद और इस जीवन को भी परमात्मा का प्रसाद मानने की क्षमता पैदा नहीं होती, तब तक नारी की आत्मा को वापस लौटाना मुश्किल है।

जब तक परलोक महत्वपूर्ण रहेगा नारी अपमानित रहेगी। जब तक परलोक श्रेष्ठ रहेगा तब तक नारी श्रेष्ठ नहीं हो सकती। परलोकवाद में और नारी के व्यक्तित्व में बुनियादी संघर्ष चल रहा और इसलिए परलोकवादी जो संत, साधु, महात्मा हैं वे नारी के जन्मजात दुश्मन हैं। उनको लगता है कि नारी ही मनुष्य को उलझाती है, जन्म देती है, प्रेम में डालती है, वासना में बांधती है, और यह सारा का सारा जीवन का जो उपक्रम है नारी चलाती है, नारी केंद्र है। यह बात थोड़ी दूर तक सच है कि जीवन के केंद्र पर नारी है, लेकिन यह बात गलत है कि जीवन असार है। यह बात गलत है कि जीवन त्याज्य है। यह बात गलत है कि इस जीवन को लात मारने से कोई बड़ा जीवन उपलब्ध होता है। बड़ा जीवन उपलब्ध होता है इसी जीवन को ठीक से जीने से। बड़ा जीवन उपलब्ध होता है इसी जीवन की सम्यक अनुभूति से। बड़ा जीवन उपलब्ध होता है इसी जीवन को सीढ़ी बनाने से।

लेकिन अब तक दुनिया का कोई धर्म जीवन को अंगीकार नहीं कर पाया। दुनिया के सारे धर्म लाइफ निगेटिव हैं। वह जीवन का निषेध करते हैं, लाइफ अफरमेटिव नहीं है। और जब तक पृथ्वी पर लाइफ अफरमेशन का, जीवन स्वीकार को धर्म पैदा नहीं होता, तब तक नारी को आत्मा नहीं मिल सकती। जीवन का जब तक निषेध चलेगा नारी सम्मानित नहीं हो सकती। जीवन के निषेध करने वाले लोगों ने नारी को अपमानित किया है और उसके व्यक्तित्व को दीनऱ्हीन कर दिया है। इसलिए पहली क्रांति नारी को करनी है तथाकथित धार्मिक लोगों, धर्मगुरुओं, धर्मों के खिलाफ। पहली क्रांति धर्मों के खिलाफ, और वह इस आधार पर कि इस जीवन की स्वीकृति होनी चाहिए, इस जीवन की धन्यता होनी चाहिए, इस जीवन का आनंद होना चाहिए, इस जीवन की दुश्मनी नहीं, शत्रुता नहीं, लेकिन इस जीवन की धन्यता को स्वीकार करने के लिए हमें जीवन की सारी वैल्यूज, सारे सिद्धांत, सारे आधार बदल देने होंगे। क्योंकि अब तक हम मानते हैं जो जीवन को छोड़ देता है वह आदमी श्रेष्ठ है, जो आदमी जीता है वह आदमी नहीं।

और जीवन को छोड़ने का मतलब क्या होता है? संन्यासी जो भागते हैं, कहते हैं, घर छोड़ कर आ गए हैं; अगर उनके घर में बहुत गौर करो तो घर का मतलब होगा स्त्री। घर का मतलब वैसे स्त्री ही होता है। वह स्त्री को छोड़ कर भागने वाला संन्यासी इतना आदृत हुआ है। वह क्यों आदृत हुआ है? स्त्री को छोड़ते ही लगता है, एक आदमी जीवन का विरोधी हो गया। लेकिन जीवन को छोड़ने की इन लंबी परंपराओं ने जीवन के सारी जड़ों को विषाक्त कर दिया है। जीवन से सारा आनंद, सारा रस, सारा सौंदर्य छीन लिया है। जीवन को एक उदासी और एक दुख की कालिमा दे दी है। जीवन से सारी मुस्कुराहट छीन ली है।

धर्म एक नृत्य करता हुआ धर्म नहीं रह गया, धर्म एक गीत गाता हुआ धर्म नहीं रह गया। धर्म उदास, चेहरे लटके हुए लोगों का, भागे हुए लोगों का एक लंबी कतार हो गई। ये सारी की सारी कतारें स्त्री के विरोध में हैं। इस देश में चूंकि जीवन विरोधी चिंतकों का बहुत प्रभाव रहा है, और जीवन के विरोध में कुछ लोग क्यों हो जाते हैं?


एक लोमड़ी एक बगीचे से गुजरती है। अंगूरों के गुच्छे लगे हैं। वह छलांग लगाती उन गुच्छों को पाने के लिए, लेकिन गुच्छे दूर हैं और हाथ उसके नहीं पहुंच पाते। बहुत कोशिश करती है, तभी चारों तरफ देखती है कि कुछ खरगोश एक झाड़ी में से झांक कर देख रहे हैं। फिर वह खड़ी हो जाती है और शान से रास्ते पर वापस लौटने लगती है। वे खरगोश उससे पूछते हैं, देवी, अंगूर कैसे थे? वह देवी कहती है, अंगूर, अंगूर खट्टे थे, खाने योग्य नहीं थे, इसलिए मैंने छोड़ दिए। लोमड़ी यह नहीं कहती कि पाए नहीं जा सके, लोमड़ी यह नहीं कहती मेरी छलांग छोटी थी, लोमड़ी यह नहीं कहती कि अंगूर मुझे मिल ही नहीं सके, चखने का सवाल नहीं उठा। लेकिन अहंकार भीतर से कहता है कि नहीं, अंगूर तो मैं पा लेती लेकिन वे खट्टे थे इसलिए छोड़ दिए हैं।

जो लोग जीवन के रस को उपलब्ध नहीं कर पाते, वे बजाय यह कहने के कि हमें जीवन जीने की कला नहीं आती, यही कहना पसंद करते हैं कि जीवन असार है, जीवन खट्टा है, जीवन पाने योग्य नहीं है। जितने लोग जीवन को पाने में, जीवन के सत्य को अनुभव करने में असमर्थ हो जाते हैं, वे सारे लोग जीवन विरोधी हो जाते हैं। और इन जीवन विरोधी लोगों ने सारे लोगों के चित्त को विकृत करने, परवर्ट करने का काम किया है। 

जब तक हम मरना सिखाते रहेंगे और जब तक धर्म स्युसाइडल होगा, आत्मघाती होगा तब तक नारी का सम्मान नहीं हो सकता है। जिस दिन जीवन को जीने की कला बनेगा धर्म, जिस दिन हम जीवन के जीने को ही जीवन के जीने की ठीक विधि को ही, जीवन को जीने की कला और आर्ट को ही धर्म कहेंगे उस दिन नारी सम्मानपूर्ण रीति से ही स्वीकृत हो सकती है। लेकिन कोई पूछ सकता है कि हिंदुस्तान में जहां धर्म का इतना प्रभाव है नारी अपमानित हुई, तो पश्चिम में, यूरोप में, अमेरिका में, जहां धर्म का इतना प्रभाव नहीं है वहां नारी की क्या स्थिति है? वहां भी नारी अपमानित है लेकिन दूसरे ढंग से।

हिंदुस्तान में नारी का एक ही उपयोग है, जिसको स्वर्ग या मोक्ष जाना हो, वह नारी को छोड़ कर भागे। ऐसा निगेटिव उपयोग है। नारी का एक ही उपयोग है और वह यह कि जिसको मोक्ष जाना हो नारी को छोड़ कर भागे। हिंदुस्तान ने नारी को छोड़ कर आदर दिया है। ठीक इससे दूसरी एक्सट्रीम पश्चिम में पैदा हुई है। और वह यह है कि नारी का एक ही उपयोग है कि उसका भोग किया जाए। वहां भी नारी को आत्मा नहीं मिल सकी है। यहां नारी का उपयोग है कि उसका त्याग किया जाए और पश्चिम में उसका उपयोग है कि भोग किया जाए। लेकिन नारी न त्याग के लिए बनी है और न नारी भोग के लिए बनी है। नारी का अपना कोई अस्तित्व भी है त्याग और भोग से पृथक, उसकी अपनी कोई गरिमा भी है, अपनी कोई आत्मा भी है।

पश्चिम एक अति पर है कि नारी भोग्य है। उसे भोग लेना है और फेंक देना है, इससे ज्यादा उसका कोई उपयोग नहीं। पश्चिम में भी नारी की आत्मा नहीं उठ पाई है ऊपर। पश्चिम में नारी का उपयोग भी एक शोषण है और पूरब में भी शोषण है। इसलिए दुनिया में कहीं भी नारी नहीं पैदा हो पाई है। नारी को आत्मा का विकास करने का कोई मौका नहीं मिल पाया है। एक तरफ धर्मगुरुओं ने नारी को अपमानित किया है, दूसरी तरफ धर्म के विरोधी लोगों ने नारी को दूसरी दिशा से अपमानित किया है। लेकिन ऐसा मालूम पड़ता है कि पुरुष नारी को अपमानित करने को तत्पर है वह उसको अंगीकार और स्वीकार नहीं करना चाहता।

और बड़ी हैरानी की बात है, बाप अपनी बेटी से कहता है कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। पति अपनी पत्नी से कहता है कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। बेटे अपनी मां से कहते हैं कि हम तुझे प्रेम करते हैं। लेकिन यह प्रेम बड़ा अजीब है पुरुषों का कि नारी को व्यक्तित्व नहीं दे पाया हजारों साल के प्रेम के बाद भी। यह प्रेम कैसा है कि दूसरे व्यक्ति को आत्मा नहीं दे पाता? यह प्रेम कैसा है कि दूसरे की गर्दन जकड़ लेता है लेकिन उसको मुक्त नहीं कर पाता? जो प्रेम बांधता है, वह प्रेम नहीं है। जो प्रेम मुक्त करता है, वही प्रेम है। प्रेम अगर मुक्त न कर सके, तो फिर प्रेम में और घृणा में अंतर क्या है?

अगर एक पति अपनी पत्नी को प्रेम करता है, तो इस प्रेम का एक ही अर्थ होगा कि पहले इसे आत्मा, इसे व्यक्तित्व, इसकी अपनी इनडिपेंडेंट इंडिविजुअलिटी पैदा करने में सहयोगी बने। और जब यह एक व्यक्ति होगी, तभी प्रेम का कोई अर्थ है। हम जिसे प्रेम करते हैं उसे व्यक्ति बनाना चाहते हैं। लेकिन पुरुष ने आज तक नारी को व्यक्ति नहीं बनने दिया है, बल्कि वह व्यक्ति न बन जाए इसकी सारी कोशिश की है। हजारों वर्ष तक नारी को शिक्षा नहीं मिलने दी, क्योंकि शिक्षा एक व्यक्तित्व देती है। तो शिक्षा को रोक रखा कि नारी को शिक्षा की कोई जरूरत नहीं है।

नारी को शिक्षा वर्जित रखी हजारों साल तक, क्योंकि शिक्षा जैसे ही मिलेगी, नारी में विचार पैदा होंगे। विचार विद्रोह लाते हैं, विद्रोह व्यक्तित्व लाता है। नारी को अशिक्षित रखने की साजिश जारी रही। फिर किसी भांति नारी ने अगर थोड़ी-बहुत शिक्षा लेनी शुरू की, तो एक नई साजिश शुरू हुई कि नारी को ठीक पुरुष जैसी शिक्षा दे दो। नारी को पुरुष जैसी शिक्षा देने से भी नारी की आत्मा प्रकट नहीं होती। वह नंबर दो का पुरुष बन जाती है, कार्बनकापी बन जाती है। अब सारी दुनिया में नारी को शिक्षा देने के लिए पुरुष मजबूरन राजी हुआ है। लेकिन उस राजी में एक नई साजिश शुरू हुई कि जो पुरुष की शिक्षा है वही नारी को दे दो।

नारी के पास अपना व्यक्तित्व है पुरुष से बहुत भिन्न, बहुत अलग आयाम, बहुत अलग डायमेंशन है उसके व्यक्तित्व का। उसके मनस्य का बहुत अलग रूप है। उसके मनस्य की दिशा बहुत भिन्न है वह ठीक पुरुष जैसी नहीं है। और यही तो कारण है कि पुरुष और उसमें जो भेद है, जो भिन्नता है, वही उनके बीच आकर्षण का कारण है। वे बिलकुल दो उलटे ध्रुव हैं। और जिस दिन स्त्री को या तो शिक्षा मत दो, तब वह गुलाम बन जाती है, तब वह पंगु हो जाती है और अगर मजबूरी में शिक्षा देनी पड़े, तो उसे ठीक पुरुषों जैसी शिक्षा दे दो ताकि वह नंबर दो का पुरुष बन जाए, कार्बनकापी हो जाए और व्यर्थ हो जाए।

हिंदुस्तान में नारी दास है, पश्चिम में नारी कार्बनकापी है और कार्बनकापी की भी अपनी कोई आत्मा नहीं होती। स्त्री को खतम करने के लिए एक उपाय यह था कि शिक्षा मत दो, दूसरा उपाय यह है कि वही शिक्षा दे दो जो तुम पुरुष को दे रहे हो। तब वह पुरुष जैसी क्लर्क बन जाएगी, पुरुष जैसी पाइलट बन जाएगी, पुरुष जैसी फौज का जवान बन जाएगी, वह सब बन जाएगी लेकिन एक बात पक्की है कि पुरुष जैसा होने में वह स्त्री नहीं रह जाएगी, नारी नहीं रह जाएगी। और आज पश्चिम में यह दुर्घटना दिखाई पड़नी शुरू हो गई है।

पूरब में स्त्री स्त्री नहीं है सिर्फ दासी है। वह जो स्त्रियां लिखती हैं न प्रेम-पत्र, तो नीचे लिखती हैं--आपकी दासी। और जिसको लिखती हैं वे बड़े प्रसन्न होते हैं पति परमेश्वर वगैरह जो होते हैं। और उनको खयाल भी नहीं आता कि जिसको हमने दासी लिखने को मजबूर कर दिया है, जो हमारे सामने मुकाबले पर खड़ी नहीं रह गई है, उससे प्रेम पाने का आनंद कभी भी नहीं मिल सकता। प्रेम पाने का आनंद उनके साथ है जो समकक्ष हैं, उनके साथ कभी नहीं है जो हमसे नीचे हैं। क्योंकि जो हमसे नीचे हैं उनसे प्रेम डिमांड किया जा सकता है, मांगा जा सकता है लिया जा सकता है। और ध्यान रहे, प्रेम मांग कर कभी भी नहीं मिलता है। प्रेम मिलता है तो बिना मांगे मिलता है। प्रेम मांग कर कभी नहीं मिलता।

और प्रेम देने के लिए मजबूर कभी नहीं किया जा सकता। लेकिन स्त्री को आज तक यही समझाया गया है कि वह प्रेम दे, पति परमेश्वर है उसको प्रेम देना ही चाहिए। प्रेम कोई कर्तव्य नहीं है कि करना चाहिए। जो प्रेम करना पड़ता है, वह तत्काल प्रेम नहीं रह जाता, तत्क्षण प्रेम नहीं रह जाता। इसलिए जहां गुलामी है वहां प्रेम कभी भी नहीं हो सकता। गुलाम कभी प्रेम नहीं करते। गुलाम भयभीत होते हैं, प्रेम नहीं करते। पत्नियां भयभीत हैं पतियों से, और पत्नियां जब तक भयभीत हैं तब तक उनसे प्रेम नहीं मिल सकता।

और जब पत्नियों से प्रेम नहीं मिलता, तो पुरुष खोजता है प्रेम को कहीं और। वेश्याओं में खोजता है, बाजारों में खोजता है। और उसे पता नहीं कि जब पत्नी से प्रेम नहीं मिलता तो वेश्या से कैसे प्रेम मिल सकता है? हालांकि उसकी बुद्धि वही है। वह पत्नी में और वेश्या में बुनियादी फर्क नहीं मानता है। पत्नी स्थाई वेश्या है, जिसको सदा के लिए खरीद लाया है।

बिना प्रेम के जिसे खरीद लाया गया है उसमें और एक रात के लिए स्त्री को खरीदने में बुनियादी फर्क नहीं है। फर्क सिर्फ डिग्री का है, मात्रा का है, एक रात के लिए खरीदा है कि पूरी जिंदगी के लिए खरीदा है। जब तक पुरुष बिना प्रेम के एक स्त्री को घर में बांध लाता है, तब तक प्रेम की कोई संभावना नहीं है। और फिर जिंदगी भर कोशिश करो कि हम प्रेम करते हैं। वह दिखावा रहेगा, बातचीत रहेगी, ऊपर से कहेंगे कि हम प्रेम करते हैं। प्रेम के पत्र भी लिखे जाएंगे, भीतर कहीं भी प्रेम नहीं होगा।

पूछें पति अपने मनों से कभी अपनी पत्नियों को प्रेम किया है? पूछें पत्नियां अपने मन से कभी प्रेम किया है? जिनको हम कहते हैं कि हम प्रेम करते हैं। कि वह सब बातचीत हो गई है। अगर हमने प्रेम किया होगा तो घरों की ऐसी स्थिति होती जैसी आज है, चौबीस घंटे कलह की, संघर्ष की, वैमनस्य की? घरों का यह रूप होता, यह कुरूपता, यह अग्लीनेस होती घरों में? यह परिवारों की हालत होती? क्या आज हर आदमी परिवार से भाग जाने को आतुर होता है।

 घर वह पत्नी रास्ता देख रही है। पति और पत्नियों के बीच संबंध प्रेम के अतिरिक्त और कुछ भी होगा, प्रेम का नहीं। प्रेम की बातचीत निपट बातचीत है। और बातचीत से भरने की कोशिश चलती है, लेकिन बातचीत से जिंदगी नहीं भरती।

और तब एक बेचैनी शुरू होती है और वह बेचैनी सारे जीवन को रुग्ण कर देती है। प्रेम के बिना कोई भी आदमी अधूरा रह जाता है। स्त्रियां भी और पुरुष भी और सारी मनुष्य-जाति अधूरी है। उसके भीतर कुछ कमी है जो पूरी नहीं हो पाती, जीवन भर दौड़ कर भी प्रेम नहीं मिल पाता। प्रेम नहीं मिल सकता है इस भांति। प्रेम मिलता है समकक्ष से, और जब तक स्त्री पुरुष के समकक्ष नहीं होती तब तक स्त्री से प्रेम नहीं मिल सकता है। और अच्छा होगा कि स्त्रियां यह कह दें कि जब तक हम दासी हैं तब हमसे प्रेम लिया जा सकता है, लेकिन हम दे नहीं सकते। और यह उचित होगा।

लेकिन पति परमात्मा बहुत प्रसन्न होते हैं यह जान कर कि पत्नी उनकी दासी। और उन्हें कभी खयाल नहीं कि जिसको आपने दासी बना लिया, उससे मनुष्यता खो गई है, वह मनुष्य नहीं रहा। पूरब की हालत है दासियों की और पश्चिम की हालत, पश्चिम की हालत और भी बदतर हो गई है। पश्चिम की स्त्री और भी खिलवाड़ का साधन हो गई है। जब दिल आए स्त्री को बदला जा सकता है।

ओशो रजनीश




मंगलवार, 7 दिसंबर 2021

मेरी बहू मेरी बेटी


  • "मेरी बेटी "
 एक बेटी मेरे घर में भी आई है, 
सिर के पीछे उछाले गये चावलों को,

माँ के आँचल में छोड़कर, 
पाँव के अँगूठे से चावल का कलश लुढ़का कर, 
महावर रचे पैरों से, महालक्ष्मी का रूप लिये, 
बहू का नाम धरा लाई है.

एक बेटी मेरे घर में भी आई है.

माँ ने सजा धजा कर बड़े अरमानों से,
 दामाद के साथ गठजोड़े में बाँध विदा किया, 
उसी गठजोड़े में मेरे बेटे के साथ बँधी, 
आँखो में सपनों का संसार लिये सजल नयन आई है.

एक बेटी मेरे घर भी आई है.

किताबों की अलमारी अपने भीतर संजोये, 
गुड्डे गुड़ियों का संसार छोड़ कर, 
जीवन का नया अध्याय पढ़ने और जीने,
 माँ की गृहस्थी छोड़, अपनी नई बनाने, 
बेटी से माँ का रूप धरने आई है.

एक बेटी मेरे घर भी आई है.

माँ के घर में उसकी हँसी गूँजती होगी, 
दीवार में लगी तस्वीरों में, 
माँ उसका चेहरा पढ़ती होगी, 
यहाँ उसकी चूड़ियाँ बजती हैं,
 घर के आँगन में उसने रंगोली सजाई है.

एक बेटी मेरे घर में भी आई है.

शायद उसने माँ के घर की रसोई नहीं देखी,
 यहाँ रसोई में खड़ी वो डरी डरी सी घबराई है,
 मझसे पुछ पुछ कर खाना बनाती है
मेरे बेटे को मनुहार से खिलाकर,
 प्रशंसा सुन खिलखिलाई है.

एक बेटी मेरे घर में भी आई है.

अपनी ननद की चीज़ें देखकर,
 उसे अपनी सभी बातें याद आईहैं,
 सँभालती है, करीने से रखती है, 
जैसे अपना बचपन दोबारा जीती है, 
बरबस ही आँखें छलछला आई हैं.

एक बेटी मेरे घर में भी आई है.

मुझे बेटी की याद आने पर "मैं हूँ ना",
 कहकर तसल्ली देती है, 
उसे फ़ोन करके मिलने आने को कहती है, 
अपने मायके से फ़ोन आने पर आँखें चमक उठती हैं
 मिलने जाने के लिये तैयार होकर आई है.

एक बेटी मेरे घर में भी आई है.

उसके लिये भी आसान नहीं था,
 पिता का आँगन छोड़ना,
 पर मेरे बेटे के साथ अपने सपने सजाने आई है,
 मैं खुश हूँ, एक बेटी जाकर अपना घर बसा रही,
 एक यहाँ अपना संसार बसाने आई है.

एक बेटी मेरे घर में भी आई है.






सोमवार, 18 अक्तूबर 2021

डेंगू ज्वर

 डेंगू ज्वर की आयुर्वेदिक चिकित्सा- 

1 गोदंती भस्म 5 ग्राम+ स्फटिक भस्म 2.5 ग्राम, गिलोय सत्व 15 ग्राम, प्रवाल पिष्टी 5 ग्राम मिलाकर घुटाई करें और महासुदर्शन चूर्ण 100 ग्राम मिलाकर इसमे से 1/2 चम्मच पानी से लें।


2- संजीवनी वटी 1 गोली+त्रिभुवन कीर्ति रस 1 गोली + हिंगुलेश्वर रस 1 गोली पीसकर शहद से या पानी से ।ज्यादा हड़फूटन वाला बुखार, शरीर में दर्द हो तो ही हिंगुलेश्वर रस लें, लो बीपी और ह्रदय रोगी अम्लपित्त के रोगी यह मिश्रण ना लें


3- बुखार के साथ अत्यधिक प्लेटलेट्स लो हो बहुत ही कमजोरी महसुस हो पुटपक्व विषम ज्वरांतक लौह 1 गोली +जयमंगल रस 1 गोली + अभ्रक भस्म 125 mg+ गिलोय सत्व 1 ग्राम+गोदंती भस्म 250mg+चौंसठ प्रहरी पिप्पली 250mg, सितोपलादी चूर्ण 1/2 छोटे चम्मच मिलाकर शहद से लें साथ में अमृतारिष्ट 2 चम्मच बराबर मात्रा पानी मिलाकर ।, 


गुरुवार, 7 अक्तूबर 2021

भीष्म पितामह तथा जटायु



अंतिम सांस गिन रहे जटायु ने कहा कि मुझे पता था कि मैं  रावण से नही जीत सकता लेकिन तो भी मैं लड़ा .. यदि मैं नही लड़ता तो आने वाली पीढियां मुझे कायर कहती ।


जब  रावण  ने जटायु के दोनों पंख  काट डाले... तो काल आया और जैसे ही  काल आया ... तो गिद्धराज जटायु ने मौत को ललकार कहा,


'खबरदार ! ऐ मृत्यु  ! आगे बढ़ने की कोशिश मत करना... मैं  मृत्यु को स्वीकार  तो करूँगा... लेकिन तू मुझे तब तक नहीं छू सकता... जब तक मैं  सीता  जी की  सुधि प्रभु " श्रीराम " को नहीं सुना देता...!


मौत उन्हें छू नहीं पा रही है... काँप रही है खड़ी हो कर...  मौत तब तक खड़ी रही, काँपती रही... यही इच्छा मृत्यु का वरदान जटायु को मिला।


किन्तु महाभारत  के भीष्म पितामह छह महीने तक बाणों की  शय्या  पर लेट करके मौत का इंतजार करते रहे...  आँखों में आँसू हैं ... रो रहे हैं... भगवान  मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं...!


कितना  अलौकिक है यह दृश्य... रामायण मे जटायु भगवान की गोद  रूपी शय्या  पर लेटे हैं... प्रभु " श्रीराम " रो रहे हैं और जटायु  हँस रहे हैं.... वहाँ महाभारत में भीष्म पितामह  रो रहे हैं और भगवान "  श्रीकृष्ण  " हँस रहे हैं... भिन्नता प्रतीत हो रही है कि नहीं...  ?


अंत समय में जटायु को प्रभु "  श्रीराम  " की गोद की शय्या  मिली... लेकिन भीष्म  पितामह को मरते समय  बाणो की शय्या मिली.... !  जटायु  अपने कर्म के बल पर अंत समय में भगवान की गोद रूपी  शय्या में प्राण त्याग रहा है....


प्रभु "  श्रीराम " की शरण में..... और  बाणों पर लेटे लेटे भीष्म  पितामह  रो रहे हैं.... ऐसा  अंतर  क्यों ?...


ऐसा अंतर इसलिए है कि भरे दरबार में भीष्म पितामह ने  द्रौपदी की इज्जत को लुटते हुए देखा था... विरोध नहीं कर पाये थे ... ! दःशासन  को ललकार देते... दुर्योधन को ललकार देते... लेकिन लेकिन  द्रौपदी  रोती रही... बिलखती रही...  चीखती रही...  चिल्लाती  रही... लेकिन भीष्म पितामह  सिर झुकाये बैठे रहे....  नारी की  रक्षा नहीं कर पाये...!


उसका परिणाम यह निकला कि इच्छा मृत्यु  का वरदान पाने पर भी  बाणों की शय्या मिली और .


 जटायु ने  नारी का सम्मान किया... अपने प्राणों की आहुति दे दी... तो मरते समय भगवान " श्रीराम " की  गोद की शय्या मिली...!


जो दूसरों के साथ गलत होते देखकर भी आंखें मूंद लेते हैं ... उनकी गति भीष्म जैसी होती है... जो अपना परिणाम जानते हुए भी... औरों के लिए संघर्ष करते है, उसका माहात्म्य जटायु  जैसा कीर्तिवान होता है।


 सदैव गलत  का विरोध जरूर करना चाहिए। सत्य परेशान जरूर होता है, पर पराजित नहीं ।





गुरुवार, 30 सितंबर 2021

सतयुग या कलयुग

 बच्चा पैदा होता है, तब वह निर्दोष है, तब उसकी स्लेट कोरी है। न उस पर बुरा है कुछ, और न अच्छा है। बच्चा साधु नहीं है, निर्दोष है। असाधु भी नहीं है। असाधु तो है ही नहीं, साधु होने का दोष भी अभी उसके ऊपर नहीं है। अभी उसने हा और न कुछ भी नहीं कहा है। अभी उसने बुरा और अच्छा कुछ भी चुना नहीं है। अभी निर्विकल्प है। अभी उसका कोई चुनाव नहीं है। अभी च्वाइसलेस है। अभी उसे पता भी नहीं कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है। अभी भेद पैदा नहीं हुआ। अभी बच्चा अभेद में जी रहा है।

यह जो बच्चे की दशा है, यही दशा पूरे समाज की भी कभी रही है, उसी को हिंदू सतयुग कहते हैं। और ठीक मालूम होता है, वैज्ञानिक मालूम होता है। क्योंकि एक व्यक्ति की जीवन—कथा जो है, वही जीवन—कथा सभी व्यक्तियों की जीवन—कथा है।

बच्चा निर्दोष पैदा होता है और बुढ़ा सब दोषों से भरकर मरता है। सतयुग बचपन है समाज का। और कलियुग बुढ़ापा है समाज का; वह अंतिम घड़ी है। जब सब तरह के रोग इकट्ठे कर लिए गए। जब सब तरह की बीमारियां संगृहीत हो गईं। जब सब तरह के अनुभवों ने आदमी को चालाक और बेईमान बना दिया, भोलापन खो गया।

हालांकि उस बेईमानी और चालाकी से कुछ मिलता नहीं है। क्योंकि मिलता होता, तो बुजुर्ग प्रसन्न होते और बच्चे दुखी होते। खोता ही है, मिलता कुछ नहीं है। लेकिन मन समझाता है कि होशियारी।

तो जिसे हम आदमी की समझदारी कहते हैं, वह इससे ज्यादा नहीं है। क्योंकि फल क्या है? सारी बुद्धिमत्ता कहा ले जाती है? हाथ में बचता क्या है? बच्चे को हानि क्या है? उसकी निर्दोषता से उसका क्या खो रहा है? निर्दोष चित्त का कुछ खो ही नहीं सकता। क्योंकि उसकी कोई पकड़ नहीं है।

मनुष्य की जो, एक—एक व्यक्ति की जो कथा है, हिंदू विचार पूरे जीवन की कथा को भी वैसा ही स्वीकार करता है। मनुष्य—जाति का जो आदिम युग था, वह सतयुग है। जब लोग सरल थे और बच्चों की भांति थे। और यह बात सच मालूम पड़ती है। आज भी आदिम जातियां हैं, वे सरल हैं और बच्चों की भांति हैं।

फिर सभ्यता, समझ, गणित का विकास होता है। हृदय खोता है और बुद्धि प्रबल होती है। भाव क्षीण होते हैं और हिसाब मजबूत होता है। कविता खो जाती है और गणित ही गणित रह जाता है।  सब चीज गणित हो जाती है। आंकडे सब कुछ हो जाते हैं। सबसे ऊपर कैलकुलेशन, हिसाब हो जाता है। चालाकी है। लेकिन हिंदू हिसाब से कलियुग है। आखिरी वक्त है; सबसे बुरा वक्त है।

इसे विकास कहें या इसे पतन कहें? बुजुर्ग को बच्चे का विकास कहें? या बूढ़े को बचपन का खो जाना कहें, पतन कहें? अगर आप से कोई पूछे, तो दोनों में क्या होना चाहेंगे? उससे निर्णय हो जाएगा। क्योंकि जो आप होना चाहेंगे, वही पाने योग्य है, वही श्रेष्ठ है। जो आप न होना चाहेंगे, वहीं कुछ भ्रांति, भूल, कहीं कुछ अंधकार है।

कोई भी बूढा नहीं होना चाहता और कोई भी सिर्फ गणित में नहीं जीना चाहता। क्योंकि जीवन के आनंद की कोई भी झलक मस्तिष्क में कभी नहीं उतरती। जीवन का आनंद, जीवन का नृत्य, जीवन की सुगंध तो हृदय ही अनुभव करता है। मस्तिष्क सब कुछ दे सकता है, सिवाय आनंद को छोड्कर। और हृदय के साथ शायद सब कुछ खो जाएगा, सिर्फ आनंद बचेगा। लेकिन सब कुछ खोकर भी आनंद बचाने जैसा है।

जिसको हम वैज्ञानिक विकास कहते हैं, वह विज्ञान का विकास होगा। ज्यादा बड़ी मशीनें हमारे पास हैं, ज्यादा बडे मकान हमारे पास हैं। लेकिन वे आनंद का विकास तो नहीं हैं। क्योंकि उन बड़े मकानों में भी दुखी लोग रह रहे हैं। झोपड़ों में भी इतने दुखी लोग नहीं थे, जितने बड़े मकानों में दुखी लोग रह रहे हैं। और जिनके पास कुछ भी न था, कोई औजार न थे, कोई शस्त्र—साधन न थे, वे भी इससे ज्यादा आनंदित थे। हमारे पास एटामिक मिसाइल्स हैं, चांद पर पहुंचने के उपाय हैं, लेकिन सुख का कोई कण भी नहीं है।

कैसे हम नापते हैं, यह सवाल है। अगर आप सिर्फ रुपयों के ढेर से नापते हैं कि आदमी का विकास हुआ कि पतन, तो विकास हुआ है। अगर आप आदमी में देखते हैं और नापते हैं, तो पतन हुआ है। तो आपकी दृष्टि पर निर्भर करेगा। क्या दृष्टिकोण है? मापदंड क्या है? क्राइटेरियन क्या है? नापते कैसे हैं?

हिंदू चिंतन, उपनिषद के ऋषि या गीता के कृष्ण, मनुष्यता से नापते हैं। क्या आपके पास है, यह मूल्यवान नहीं है, आप क्या हैं, यही मूल्यवान है। कितना आपके पास है, यह व्यर्थ हिसाब है। कितनी आत्मा है! कितना सत्व है! कितना चैतन्य है! आप क्या हैं! बीइंग से नापते हैं, हैविग से नहीं। आपके बैंक बैलेंस से आपके होने का कोई नाता नहीं है। आप नग्न खड़े हों, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, तो भी आपके भीतर सत्व हो सकता है।

महावीर जैसे नग्न खड़े व्यक्ति के पास भी आत्मा है, सब कुछ है। बाहर से कुछ भी नहीं है। कैसे नापते हैं!

इस युग से ज्यादा दुखी कोई युग नहीं था। इस युग से ज्यादा विक्षिप्तता किसी युग में नहीं थी। फिर भी हम कहे चले जाते हैं, संपन्न हैं! फिर भी हम कहे चले जाते हैं, वैभवशाली हैं!

सच है, बात तो सच है। इतनी संपन्नता भी कभी नहीं थी। इतनी विपन्नता भी कभी नहीं थी। पर दो अलग कोण हैं नापने के। एक कोण है, जो धन से नापता है, पदार्थ से नापता है। और एक कोण है, जो चेतना से नापता है।

चेतना की दृष्टि से मनुष्य का पतन हुआ है परमात्मा से। इसलिए हम चेतना को फिर वापस उसी स्थिति में ले जाएं, जहां से परमात्मा से हमारा संबंध छूटता है। फिर हमारी धारा वहीं गिरे, तो वही परम निष्पत्ति होगी।

लेकिन पदार्थ की दृष्टि से, साधन—सामग्री की दृष्टि से हम रोज विकास कर रहे हैं। हम विकास कर रहे हैं, यह कहना भी शायद ठीक नहीं है, क्योंकि मशीनें खुद ही विकास कर रही हैं। अब तो आदमी को उसमें हाथ बंटाने की भी जरूरत नहीं है। कंप्यूटर हैं, वे विकास करते चले जाएंगे।

और वैज्ञानिक कहते हैं, इस सदी के पूरे होते—होते हम ऐसी मशीनें पैदा कर लेंगे, जो मशीनों को जन्म दे सकें, अपने से बेहतर मशीनों को जन्म दे सकें। वह बिल्ट—इन हो जाएगा, कि मशीन जब टूटने के करीब आए, मिटने के करीब आए, तो अपने से बेहतर मशीन को जन्म दे जाए। जैसे आप एक बच्चे को जन्म दे जाते हैं। तब तो फिर आपकी बिलकुल भी जरूरत नहीं होगी। तब मशीनें विकसित होती रहेंगी। आप अपने घर भी बैठे रहे, जैसे थे वैसे रहे, तो भी मशीनें विकसित होती रहेंगी।

मशीन ही विकसित हो रही है। आदमी खों रहा है। इस हिसाब से पतन है।

इसमें पूरा पूरब सहमत है। बुद्ध, लाओत्से, कृष्ण, सब सहमत हैं, जीसस, मोहम्मद, सब सहमत हैं, जरथुस्त्र, कनक्यूसियस, सब सहमत हैं कि बचपन श्रेष्ठतम है, शुद्धता की दृष्टि से। और इसलिए जब कोई व्यक्ति, लाओत्से कहता है, पुन: बचपन को उपलब्ध हो जाता है, तब वह संत हो गया। वर्तुल पूरा हुआ। उदगम से फिर मिलना हो गया। कृष्ण भी यही गीता में कह रहे हैं।

ओशो रजनीश



रविवार, 26 सितंबर 2021

सात सुख

मित्रों, एक कहावत जो अक्सर सुनने को मिलती है, आपने भी बहुत बार सुनी होगी, "पहला सुख निरोगी काया" इसके अलावा ये भी कहा जाता रहा है कि सातों सुख हर किसी को नहीं मिलते, क्या है ये सात सुख? पहला सुख तो निरोगी काया है फिर बाकी के छह कौनसे सुख है? जितनी मुझे जानकारी है आज आपसे साझा कर रहा हूँ कि आखिर ये सात सुख है क्या?

पहला तो आप जानते ही हैं की निरोगी काया यानि स्वस्थ शरीर, अगर शरीर स्वस्थ ना हो तो दुनिया का हर सुख बेमजा हो जाता हैं, जुकाम भी लग जाये तो पोंछते पोंछते कई बार आदमी की नाक छिल जाती है, छींकें, खांसी और बंद नाक पीड़ित व्यक्ति का हाल बेहाल कर देता है, ऐसे में अगर कहीं कोई उत्सव भी मनाया जा रहा है, तो वो व्यक्ति उसका उतना आनंद नहीं ले पायेगा जितना कि दूसरे लोग।

दुर्भाग्यवश यदि कोई और बड़ी बीमारी शरीर में घर कर जाय तो चिकित्सक हजार तरह की बंदिशें उस पर थोप देता है, मीठा मत खाना, तले हुए भोजन से परहेज करना, लंबी दूरी की यात्रा ना करें, नाचना कूदना आपके लिये घातक हो सकता है, मेहनत या थका देने वाला काम न करें, इत्यदि इत्यादि, अब वो व्यक्ति ताउम्र इन परहेजों की हथकड़ी पहने अन्य लोगों को देख देख कर मन ही मन घुटने के अलावा और कर भी क्या सकता है।

में धन सज्जनों, सार ये ही है कि अगर काया निरोगी है तो ही अन्य सुख काम के हैं, अन्यथा सब बेकार है, इसिलिये कहा गया है की पहला सुख निरोगी काया, हमारे पूर्वजों ने दूसरा सुख बताया है- माया यानि धन संपत्ति, पास संपत्ति हो और पहला सुख भरपूर हो तो जीवन काफी आनंदमय हो जाता है, तीसरा सुख है गुणवान, संस्कारी जीवनसाथी, और चौथा सुख बताया गया है आज्ञाकारी संतान ।

यदि पत्नी समझदार है, अच्छे संस्कारों और गुणों से सुसज्जित है, तो व्यक्ति

के लिए घर स्वर्ग समान हो जाता है, और सोने पे सुहागा हो जाता है जब

संतान भी आज्ञाकारी हो, वो आदमी तो धन्य हो जाता है जिसको उपरोक्त

चारों सुख मिल जायें, लेकिन बात सात सुखों की चल रही थी, देखा जाये तो

ऊपर लिखे चार सुख भी विरलों को ही प्राप्त हो पाते हैं, कोई स्वस्थ तो है पर

पैसों की तंगी है, ये दोनों है तो पत्नी का स्वभाव थोड़ा कड़वा है, या संतान

निरंकुश है।



शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

गंगा स्नान

 हमने तीर्थ बनाए थे, वे प्रतीक थे। फिर लेकिन प्रतीक सब गलत हो जाते हैं गलत आदमियों के हाथों में। हमारे प्रतीक थे तीर्थ कि हम कहते थे, वहां जाकर स्नान कर लो, सब पाप से छुटकारा हो जाता है। कोई तीर्थ में जाकर स्नान करने से पाप का छुटकारा नहीं होता। इतना आसान होता, तो जितने तीर्थ हमारे मुल्क में हैं और जितने पापी स्नान कर रहे हैं, इस मुल्क में पाप होता ही नहीं।

तीर्थ में स्नान करने से पाप से कोई छुटकारा नहीं होता। लेकिन बात बड़े मूल्य की है। बात असल में यह है कि पाप और पुण्य धूल से ज्यादा नहीं हैं। और जैसे धूल स्नान करने से बह जाती है और धूल कोई आपकी आत्मा में नहीं चली जाती है, बस आपकी परिधि पर होती है, ऐसे पुण्य और पाप हैं। जो जान ले तरकीब स्नान करने की, वह इनसे भी ऐसे ही मुक्त हो जाएगा, जैसे धूल से मुक्त हो जाता है।

तो तीर्थ प्रतीक थे।

रामकृष्ण से किसी ने पूछा  कि मैं गंगा जा रहा हूं। कहते हैं कि गंगा में स्नान करने से पाप धुल जाएंगे। रामकृष्ण थोड़ी अड़चन में पड़े। रामकृष्ण को लगा कि कहूं कि ऐसा ठीक नहीं है, तो गलत होगा। यह ठीक है कि कोई स्नान करने की कला जान ले और गंगा को खोज ले, तो पाप धुल जाते हैं। इस बात में कहीं भूल—चूक नहीं है। लेकिन गंगा यह नहीं है, जो बाहर बहती दिखाई पड़ती है। और स्नान की कला शरीर पर पानी डालने की नहीं है, मन पर ध्यान डालने की है।

तो बात तो ठीक ही है। प्रतीक काव्यात्मक है, लेकिन बात ठीक है। और कठिन बातें कविता में ही कही जा सकती हैं। उनके लिए गणित के फार्मूले नहीं हो सकते। क्योंकि बड़े सूक्ष्म और नाजुक इशारे हैं। पत्थर जैसे नहीं हैं, फूल जैसे हैं। उन्हें बहुत सम्हालकर काव्य में संजोकर ही बचाया जा सकता है।

तो बात तो ठीक है। लेकिन फिर भी गलत हो गई। क्योंकि लोग गंगा में स्नान करके घर लौट आते हैं, इस खयाल से कि बात खतम हो गई, फिर से पाप शुरू करो। और दिक्कत क्या है? कितने ही पाप करो, वापस गंगा में जाकर स्नान से धुल सकते हैं।

तो रामकृष्ण ने कहा, तू जा जरूर, लेकिन तुझे पता है, गंगा के किनारे बड़े वृक्ष लगे हैं, वे किसलिए लगे हैं? उस आदमी ने कहा, यह तो कहीं शास्त्रों में इसका कोई उल्लेख नहीं है। तो उन्होंने कहा कि वही असली महत्वपूर्ण बात है। जब तू गंगा में डूबेगा, तो गंगा में पाप बाहर निकल जाते हैं। क्योंकि गंगा पवित्र है। पर वे जो बड़े वृक्ष हैं, पाप उन पर बैठ जाते हैं। तो तू डूबा रहेगा कि लौटेगा? लौटेगा कि वे पाप फिर झाड़ों से उतरकर तेरे सिर पर सवार हो जाएंगे। तो गंगा तो धो देगी, लेकिन तू इस भ्रम में मत पड़ना कि खाली होकर लौट आया। वे झाड़ इसीलिए खड़े हैं!

सारे प्रतीक व्यर्थ हो जाते हैं। व्यर्थ इसलिए हो जाते हैं कि हम प्रतीकों की गरदन दबा लेते हैं। उनका निचोड़ देते हैं प्राण ही बाहर। पाप बाहर हैं, धूल से ज्यादा नहीं। झड़ाए जा सकते हैं। कोई आदमी ठीक से निर्णय भी कर ले झड़ाने का, तो झड जाते हैं। क्योंकि आपके ही निर्णय से वे पकडे गए हैं। सच तो यह है कि उन्होंने आपको पकड़ा है, यह कहना ही गलत है। आप उनको पकड़े हैं और सम्हाले हैं। जिस दिन आप छोड़ देंगे, वे गिर जाएंगे। और वह जो पकड़े हुए है, वह सदा निष्पाप है।

ओशो रजनीश



कृष्ण कृपा

 कृष्ण के समझाने से अर्जुन नहीं समझेगा। अर्जुन के समझने से ही समझेगा। अगर कृष्ण के हाथ में यह बात होती कि अर्जुन उनके समझाने से समझता होता, तो पृथ्वी पर कोई अज्ञानी अब तक न बचता। बहुत कृष्ण हो चुके; अर्जुन बाकी हैं।

अर्जुन के समझने से घटना घटेगी। कृष्ण जो मेहनत कर रहे हैं, वह समझाने के लिए नहीं कर रहे हैं। अगर ठीक से समझें, तो वे ऐसी परिस्थिति पैदा कर रहे हैं, जहां अर्जुन समझने के लिए तैयार हो जाए जहां अर्जुन समझ सके। वे अर्जुन को धक्का दे रहे हैं। किसी तरफ इशारा कर रहे हैं। आंख तो अर्जुन को ही उठानी पड़ेगी। और अगर अर्जुन आंख उठाने को राजी न हो, तो कृष्ण के जीतने का कोई भी उपाय नहीं है।

लेकिन कृष्ण आयोजन कर रहे हैं पूरा। अलग—अलग मोर्चों से कृष्ण अर्जुन पर हमला कर रहे हैं। कई तरफ से चोट कर रहे हैं। शायद किसी चोट में अर्जुन सजग हो जाए। लेकिन यह बात शायद है। इसमें अर्जुन का सहयोग जरूरी है। और अगर अर्जुन सहयोग न दे, तो कृष्ण की कोई सामर्थ्य नहीं है।

इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। क्योंकि हम में से बहुतों को यह खयाल रहता है, गुरु—कृपा से हो जाएगा। अगर गुरु—कृपा से होता, तो इतनी बड़ी गीता बिलकुल फिजूल है। कृष्ण नासमझ नहीं हैं। अगर यह घटना कृपा से घटनी होती, तो कृष्ण जैसा कृपा करने वाला और अर्जुन जैसा कृपा को पाने वाले पात्र को दुबारा खोजने की कहां सुविधा है! दोनों मौजूद थे।

कृष्ण कृपा कर सकते थे और अर्जुन कृपा का आकांक्षी था और पात्र था। और क्या पात्रता चाहिए? इतनी आत्मीयता थी, इतनी निकटता थी कि जो बात कृपा से हो सकती, उसके लिए कृष्ण क्यों इतनी लंबी गीता में जाते! इतने लंबे आयोजन की कोई भी जरूरत नहीं थी।

नहीं; वह घटना कृपा से नहीं होने वाली। कृपा भी तभी घट सकती है, जब अर्जुन खुला हो, राजी हो, तैयार हो, सहयोग करे। यह कृपा ही है कि कृष्ण उसे समझा रहे हैं, यह जानते हुए भी कि समझाने से ही कोई समझ नहीं जाता। यह कृपा का हिस्सा है। लेकिन इस चेष्टा से संभावना है कि अर्जुन बच न पाए।

अर्जुन सारी कोशिश करेगा बचने की। अर्जुन सवाल उठाएगा, समस्याएं खड़ी करेगा। संशय—संदेह, ये सब चेष्टाएं हैं आत्मरक्षा की। अर्जुन कोशिश कर रहा है अपने को बचाने की। अर्जुन कोशिश कर रहा है कि तुम दिखा रहे हो, लेकिन हम न देखेंगे। इसको थोड़ा समझें।

अर्जुन की ये सारी शंकाएं, ये सारे संदेह इस बात की कोशिश है कि तुम दिखा रहे हो, वह ठीक, लेकिन हम न देखेंगे। हम और सवाल उठाते हैं। हम और धुंआ पैदा करते हैं। तुम जिस तरफ इशारा करते हो, हम उसको धुंधला कर देते हैं। यह आत्मरक्षा है गहरी। जैसे हम अपने शरीर को बचाना चाहते हैं, वैसे ही अपने मन को भी बचाना चाहते हैं।

जैसे कोई आपके शरीर पर हमला करे, तो आप आत्मरक्षा के लिए कुछ आयोजन करेंगे। गुरु का हमला और भी गहरा है। वह आपके मन को मिटाने के लिए तत्पर हो गया है। शरीर को जो मिटाते हैं, उनका मिटाना बहुत गहरा नहीं है। क्योंकि वासना आपकी मौजूद है। आप फिर शरीर ग्रहण कर लेंगे। वे आपसे वस्त्र छीन रहे हैं। लेकिन जो मन को मिटाने की कोशिश कर रहा है, वह आपसे सब कुछ छीन रहा है। फिर आप चाहें तो भी शरीर ग्रहण न कर सकेंगे। अगर मन समाप्त हो गया, तो जन्म की सारी व्यवस्था खो गई। मृत्यु परम हो गई।

इसलिए ध्यान महासमाधि है। महासमाधि शब्द का उपयोग हम मृत्यु के लिए भी करते हैं। वह ठीक है। क्योंकि समाधि एक भीतरी मृत्यु है। आप वस्तुत: मर जाएंगे।

तो जैसे कोई शरीर पर हमला करे तलवार से, और आप अपनी ढाल से रक्षा करें, ऐसा जब भी कोई गुरु आपके मन को तोड्ने के लिए हमला करेगा, तब शंकाओं से, संदेहों से, सवालों से आप अपनी रक्षा करेंगे। वे ढाल हैं। वह आप बचा रहे हैं। आप कह रहे हैं, करो कोशिश। शायद यह सचेतन नहीं है, यह अचेतन है।

यह वैसा ही अचेतन है, जैसा आपकी आंख के सामने कोई जोर से हाथ करे, तो आपको सोचना भी नहीं पड़ता आंख झपकने के लिए, आंख झपक जाती है। आंख झपकती है अचेतन से। आपको सोचना नहीं पड़ता। मैं आपकी आंख के सामने हाथ करूं, तो ऐसा नहीं कि आप पहले सोचते हैं कि हाथ आ रहा है, अब मैं अपने को बचाऊं, तो आंख बंद कर लूं। इतना सोचने में तो आंख फूट जाएगी। इतना समय नहीं है। और विचार में समय लगता है।

इसलिए मनुष्य के मन की दोहरी व्यवस्था है। जिन चीजों में समय की सुविधा है, उनमें हम विचार करते हैं। और जिनमें समय की सुविधा नहीं है, उनमें हम अचेतन से प्रतिकार करते हैं। आंख पर कोई हमला करे, तो तत्‍क्षण आंख बंद हो जाती है। इसकी अनकांशस, अचेतन व्यवस्था है। नींद में भी कीड़ा आपके पैर पर चले, तो पैर आप झटक देते हैं। उसके लिए होश की जरूरत नहीं है।

ठीक ऐसे ही मन भी अपनी आंतरिक रक्षा करता है। और गुरु के पास मन जितना परेशान हो जाता है, उतना कहीं और नहीं होता। क्योंकि वहा मौत निकट है। अगर ज्यादा गुरु के आस—पास रहे, तो मरना ही पड़ेगा। उससे बचने के लिए आप अपने चारों तरफ सुरक्षा की दीवार खड़ी करते हैं। वह कवच है।

अर्जुन यह कह रहा है कि समझाओ। लेकिन मुझे समझ में ही नहीं आ रहा है। जब समझ में ही नहीं आ रहा है, तो बदलने की कोई जरूरत नहीं है। मैं जैसा हूं वैसा ही रहूंगा। जब तक समझ में न आ जाए, जब तक मेरी सब शंकाएं न मिट जाएं, तब तक मैं जैसा हूं? वैसा ही रहूंगा। और इसमें दोष मेरा नहीं है। तुम नहीं समझा पा रहे हो, तो दोष तुम्हारा है।

इस भीतरी मन की कुशलता को अगर समझ लेंगे, तो दोनों बातें खयाल में आ जाएंगी कि क्यों अर्जुन सवाल उठाए चला जा रहा है और क्यों कृष्ण जवाब दिए जा रहे हैं।

यह एक खेल है। जिस खेल में अर्जुन अपनी व्यवस्था कर रहा है और कृष्ण अपनी व्यवस्था कर रहे हैं। एक जगह अर्जुन ढाल रख लेता है, कृष्ण दूसरी तरफ से हमला करते हैं, जहां उसने अभी ढाल नहीं रखी। वे उसे थका ही डालेंगे। वह ढाल रखते—रखते थक जाएगा। न केवल थक जाएगा, बल्कि ढाल रखते—रखते उसे समझ में भी आ जाएगा कि मैं क्या कर रहा हूं? मैं किससे बच रहा हूं? जो मुझे महाजीवन दे सकता है, उससे मैं बचने की कोशिश कर रहा हूं! मैं किसके संबंध में संदेह उठा रहा हूं? किसलिए उठा रहा हूं? यह उसे धीरे— धीरे खयाल में आएगा। और यह वर्षों में भी खयाल आ जाए, तो भी जल्दी है। जन्मों में भी खयाल आ जाए, तो भी जल्दी है।

इसलिए कृष्ण कितना समझाते हैं, यह बड़ा सवाल नहीं है। कितना ही समझाएं, थोड़ा ही है। और अर्जुन कितनी ही देर लगाए, तो भी जल्दी है। क्योंकि मन सब तरह के आयोजन कर लेगा, थकेगा। जब बिलकुल क्लांत हो जाएगा, जब सब संदेह उठा चुकेगा और संदेह उठाना भी व्यर्थ मालूम पड़ने लगेगा, और जब संदेह भी बासे और उधार मालूम पड़ने लगेंगे, कि यह मैं उठा चुका, उठा चुका, बहुत बार कह चुका, इनसे कुछ हल नहीं होता, तभी शायद वह किरण ध्यान की उस तरफ जाएगी जहां कृष्ण ले जाना चाह रहे हैं।

यह सदा ऐसा ही हुआ है। इससे निराश होने की कोई भी जरूरत नहीं है। इस श्रम में लगे ही रहना है।

और ध्यान रहे, उचित यही है कि आप अपनी सारी शंकाएं और सारे संदेह सामने ले आएं, क्योंकि सामने आ जाएंगे, तो मिटने की सुविधा है। भीतर छिपे रहेंगे, तो उनके मिटने का कोई उपाय नहीं है। अर्जुन ईमानदार है। उतना ही ईमानदार होना जरूरी है। वह सवाल उठाए ही चला जा रहा है। बेशर्मी से उठाए चला जा रहा है। उसमें जरा भी संकोच नहीं कर रहा है। किसी को भी संकोच आने लगता कि अब ठहर जाऊं। लेकिन वह संकोच खतरनाक होगा। भीतर उठते चले जाएंगे, अगर बाहर ठहर गए। तो फिर कृष्ण नहीं जीत सकते हैं।

उठाए ही चले जाएं। वह घड़ी जल्दी ही आ जाएगी, जब संदेह उठने बंद हो जाएंगे। हर चीज की सीमा है।

इस जगत में परमात्मा को छोड्कर और कुछ भी असीम नहीं है। आपका मन तो निश्चित ही असीम नहीं है। आप उठाए चले जाएं, किनारा जल्दी ही आ जाएगा। किनारा आता नहीं दिखाई पड़ता, क्योंकि आप बेईमान हैं। ठीक से उठाते ही नहीं। जिस दिन किनारा आ जाएगा, उसी दिन छलांग लग सकती है।

ओशो रजनीश



बुधवार, 15 सितंबर 2021

 इलेक्‍शन जीतने के बाद एक राजनेता से किसी ने उससे पूछा कि आपके जीतने की जो विधियां आपने उपयोग कीं, उसमें खास बात क्या थी? तो उसने कहा, छोटे आदमियों को आदर देना। उसने दस हजार आदमियों को निजी पत्र लिखे थे। उनमें ऐसे आदमी थे, कि जैसे टैक्सी ड्राइवर था, जिसकी टैक्सी में बैठकर वह स्टेशन से घर तक आया होगा।

राजनेता की आदत थी कि वह टैक्सी ड्राइवर से उसका नाम पूछेगा, पत्नी का नाम पूछेगा, बच्चे का नाम पूछेगा। वह टैक्सी ड्राइवर तो आगे गाड़ी चला रहा है, पीछे देख नहीं रहा है। लेकिन राजनेता नोट करता रहेगा, पत्नी का नाम, बच्चे का नाम; बच्चे की तबियत कैसी है; बच्चा किस क्लास में पढ़ता है। टैक्सी ड्राइवर फूला नहीं समा रहा है। अगर कोई बड़ा नेता आपसे पूछ रहे हों तो...।

और फिर दो साल बाद एक पत्र आएगा टैक्सी ड्राइवर के नाम, कि तुम्हारी पत्नी की तबीयत खराब थी पिछली बार तुम्हारे गांव जब आया था, अब उसकी तबीयत तो ठीक है न? तुम्हारे बच्चे तो ठीक से स्कूल में पढ़ रहे हैं न? और इस बार मैं चुनाव में खड़ा हुआ हूं? थोड़ा खयाल रखना।

वह किसी भी पार्टी का हो, पागल हो गया। अब उसको दल—वल का कोई सवाल नहीं है। अब नेता से निजी संबंध हो गया। अब वह यह कार्ड लेकर घूमेगा।

छोटे आदमी के अहंकार को फुसलाना राजनीतिज्ञ का काम है।

मंगलवार, 14 सितंबर 2021

देव योनि ---मनुष्य योनि

 देव—योनि से मुक्ति संभव नहीं, इसका बड़ा गहरा कारण है। और मनुष्य—योनि से मुक्ति संभव है, बड़ी गहरी बात है। और इससे आप यह मत सोचना कि कोई मनुष्य—योनि का बड़ा गौरव है इसमें। ऐसा मत सोच लेना। कुछ अकड़ मत जाना इससे कि देवताओं से भी ऊंचे हम हुए, क्योंकि इस मनुष्य—योनि से ही मुक्ति हो सकती है।

नहीं; ऊंचे—नीचे का सवाल नहीं है; अकड़ने की कोई बात नहीं है। सच को अगर ठीक से समझें, तो थोड़ा दीन होने की बात है। कारण यह है कि देव—योनि का अर्थ है कि जहां सुख ही सुख है। और जहां सुख ही सुख है, वहां मूर्च्छा घनी हो जाती है। दुख मूर्च्छा को तोड़ता है। दुख मुक्तिदायी है। पीड़ा से छूटने का मन होता है। सुख से छूटने का मन ही नहीं होता।

आप भी संसार से छूटना चाहते हैं, तो क्या इसलिए कि सुख से छूटना चाहते हैं? दुख से छूटना चाहते हैं। दुख से छूटना चाहते हैं, इसलिए संसार से भी छूटना चाहते हैं। अगर कोई आपको तरकीब बता दे कि संसार में भी रहकर और दुख से छूटने का उपाय है, तो आप मोक्ष का नाम भी न लेंगे। आप भूलकर फिर मोक्ष की बात न करेंगे। फिर आप कृष्ण वगैरह को कहेंगे कि आप जाओ मोक्ष। हम यहीं रहेंगे। क्योंकि दुख तो छोड़ा जा सकता है, सुख मिल सकता है, फिर मोक्ष की क्या जरूरत है?

संसार को छोड़ने का सवाल ही इसलिए उठता है कि अगर हम दुख को छोड़ना चाहते हैं, तो सुख को भी छोड़ना पड़ेगा। वे दोनों साथ जुड़े हैं।

संसार में सुख और दुख मिश्रित हैं। सब सुखों के साथ दुख जुड़ा हुआ है। सुख पकड़ा नहीं कि दुख भी पकड़ में आ जाता है। आप सुख को लेने गए और दुख की जकड़ में फंस जाते हैं। सुख चाहा और दुख के लिए दरवाजा खुल जाता है।

स्वर्ग या देव—योनि का अर्थ है, जहां सुख ही सुख है। जहां सुख ही सुख है, वहां छोड़ने का खयाल ही न उठेगा। इसलिए देवता गुलाम हो जाते हैं, छोड़ने का खयाल ही नहीं उठता।

नरक से भी मुक्ति नहीं हो सकती और स्वर्ग से भी मुक्ति नहीं हो सकती। जिन्होंने ये वक्तव्य दिए हैं, उन्होंने बड़ी गहरी खोज की है। क्योंकि नरक में दुख ही दुख है, और अगर दुख ही दुख हो, तो आदमी दुख का आदी हो जाता है। यह थोड़ा समझ लें।

अगर दुख ही दुख जीवन में हो, सुख की कोई भी अनुभूति न हो, तो आदमी दुख का आदी हो जाता है। और जहां सुख का कोई अनुभव ही न हो, वहां सुख की आकांक्षा भी धीरे—धीरे तिरोहित हो जाती है। सुख की आकांक्षा वहीं पैदा होती है, जहां आशा हो। इसलिए दुनिया में जितनी सुख की आशा बढ़ती है, उतना दुख बढ़ता जाता है। पांच सौ साल पीछे शूद्र इतने ही दुख में था, जितना आज दुख में है। शायद ज्यादा दुख में था। लेकिन दुखी नहीं था, क्योंकि उसे कभी खयाल ही नहीं था कि शूद्र के अतिरिक्त कुछ होने का उपाय है। अब उसे पता है; अब आशा खुली है। अब उसे पता है कि शूद्र होना जरूरी नहीं है, वह ब्राह्मण भी हो सकता है। शूद्र होना अनिवार्य नहीं है। अब गाव की सड़क ही साफ करना जिंदगी की कोई अनिवार्यता नहीं है; अब वह राष्ट्रपति भी हो सकता है। आशा का द्वार खुल गया है।

अब वह सड़क पर बुहारी तो लगा रहा है, लेकिन बड़े दुख से। वहीं वह पांच सौ साल पहले भी बुहारी लगा रहा था, लेकिन तब कोई दुख नहीं था। क्योंकि दुख इतना मजबूत था, उसके बाहर जाने की कोई आशा नहीं थी, कोई उपाय नहीं था, इसलिए बात ही खतम हो गई थी।

नरक में कोई साधना नहीं करता, और स्वर्ग में भी कोई साधना नहीं करता। क्योंकि नरक में दुख इतना गहन है और आशा का कोई उपाय नहीं है, कि आदमी उस दुख से ही राजी हो जाता है। जब दुख आखिरी हो, तो हम राजी हो जाते हैं। जब तक आशा रहती है, तब तक हम लड़ते हैं।

इसे थोड़ा समझ लें। जब तक आशा रहती है, तब तक हम लडते हैं। और जहां तक आशा रहती है, वहां तक हम लड़ते हैं। और जब आशा टूट जाती है, हम शांत होकर बैठ जाते हैं। लड़ाई खतम हो गई।

स्वर्ग में भी कोई साधना नहीं करता है, क्योंकि सुख से छूटने का खयाल ही नहीं उठता। सुख से छूटने का कोई सवाल ही नहीं है। मनुष्य दोनों के बीच में है। मनुष्य दोनों है, नरक भी और स्वर्ग भी। मनुष्य आधा नरक और आधा स्वर्ग है। और दोनों मिश्रित है। वहां दुख भी सघन है और सुख की आशा भी। और हर सुख के बाद दुख मिलता है, यह अनुभूति भी है। इसलिए मनुष्य चौराहा है, उसके नीचे नरक है, उसके ऊपर स्वर्ग है। स्वर्ग में आदमी सुख से राजी हो जाता है, नरक में दुख से राजी हो जाता है; मनुष्य की अवस्था में किसी चीज से कभी राजी नहीं हो पाता। मनुष्य असंतोष है। वह असंतुष्ट ही रहता है। कुछ भी हो, संतोष नहीं होता। इसलिए साधना का जन्म होता है।

जहां असंतोष अनिवार्य हो, कोई भी स्थिति हो। आप झोपड़े में हों, तो दुखी होंगे; और आप महल में हों, तो दुखी होंगे। आपका होना, मनुष्य का होना ही ऐसा है कि वह तृप्त नहीं हो सकता। अतृप्ति वहां बनी ही रहेगी। उसके होने के ढंग में ही उपद्रव है। वह बीच की कड़ी है। आधा उसमें स्वर्ग भी झांकता है, आधा नरक भी झांकता है।

मनुष्य के पास अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है। वह आधा—आधा है; अधूरा—अधूरा है, सीढ़ी पर लटका हुआ है; त्रिशंकु की भांति है। इसलिए जो मनुष्य साधना नहीं करता, वह असाधारण है। जो मनुष्य साधना में नहीं उतरता, वह असाधारण है। नरक में नहीं उतरता, समझ में आती है बात। स्वर्ग में नहीं उतरता, समझ में आती है। अगर आप साधना में नहीं उतरते, तो आप चमत्कारी हैं। क्योंकि आपका होना ही असंतोष है। और अगर आपको इस असंतोष से भी साधना का खयाल पैदा नहीं होता, तो आश्चर्य है।

जगत में बड़े से बड़ा आश्चर्य यह है कि कोई मनुष्य हो और साधक न हो। यह बड़े से बड़ा आश्चर्य है। स्वर्ग में देवता होकर कोई साधक हो, यह आश्चर्य की बात होगी। नरक में होकर कोई साधक हो, यह भी आश्चर्य की बात होगी। मनुष्य होकर कोई साधक न हो, यह बड़े आश्चर्य की बात है। क्योंकि आपके होने में असंतोष है। और असंतोष से कोई कैसे तृप्त हो सकता है! साधना का इतना ही मतलब है कि जैसा मैं हूं उससे मैं राजी नहीं हो सकता, मुझे स्वयं को बदलना है।

इसलिए मनुष्य को चौराहा कहा है ज्ञानियों ने। स्वर्ग से भी लौट आना पड़ेगा। जब पुण्य चुक जाएंगे, तो सुख से लौट आना पड़ेगा। और जब पाप चुक जाएंगे, तो नरक से लौट आना पड़ेगा।

और मनुष्य की योनि से तीन रास्ते निकलते हैं। एक, दुख अर्जित कर लें, तो नरक में गिर जाते हैं; सुख अर्जित कर लें, तो स्वर्ग में चले जाते हैं। लेकिन दोनों ही क्षणिक हैं, और दोनों ही छूट जाएंगे। जो भी अर्जित किया है, वह चुक जाएगा, खर्च हो जाएगा। ऐसी कोई संपदा नहीं होती, जो खर्च न हो। कमाई खर्च हो ही जाएगी।

नरक भी चुक जाएगा, स्वर्ग भी चुक जाएगा, जब तक कि यह खयाल न आ जाए कि एक तीसरा रास्ता और है, जो कमाने का नहीं, कुछ अर्जित करने का नहीं, बल्कि जो भीतर छिपा है, उसको उघाड़ने का है। स्वर्ग भी कमाई है, नरक भी। और आपके भीतर जो परमात्मा छिपा है, वह कमाई नहीं है; वह आपका स्वभाव है। वह मौजूद ही है। जिस दिन आप स्वर्ग और नर्क की तरफ जाना बंद करके स्वयं की तरफ जाना शुरू कर देते हैं, उस दिन फिर लौटने की कोई जरूरत नहीं है।


ओशो रजनीश



रविवार, 12 सितंबर 2021

नास्तिकता

 दुख चाहे कोई भी हो, दुख का कारण  आदमी खुद स्वयं ही होता है। दुख के रूप अलग हैं, लेकिन दुख की जिम्मेवारी सदा ही स्वयं की है।

दुख कहीं से भी आता हुआ मालूम होता हो, दुख स्वयं के ही भीतर से आता है। चाहे कोई किसी परिस्थिति पर थोपना चाहे, चाहे किन्हीं व्यक्तियों पर, संबंधों पर, संसार पर, लेकिन दुख के सभी कारण झूठे हैं। जब तक कि असली कारण का पता न चल जाए। ओर वह असली कारण व्यक्ति स्वयं ही है। पर जब तक यह दिखाई न पड़े कि मेरे दुख का कारण मैं हूं तब तक दुख से छुटकारे का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि ठीक कारण का ही पता न हो,  तो इलाज के होने का कोई उपाय नहीं है। और जब तक मैं भ्रांत कारण खोजता रहूं, तब तक कारण तो मुझे मिल सकते हैं, लेकिन समाधान, दुख से मुक्ति, दुख से छुटकारा नहीं हो सकता।

और आश्चर्य की बात है कि सभी लोग सुख की खोज करते हैं। और शायद ही कोई कभी सुख को उपलब्ध हो पाता है। इतने लोग खोज करते हैं, इतने लोग श्रम करते हैं, जीवन दाव पर लगाते हैं और परिणाम में दुख के अतिरिक्त हाथ में कुछ भी नहीं आता। जीवन के बीत जाने पर सिर्फ आशाओं की राख ही हाथ में मिलती है। सपने, टूटे हुए; इंद्रधनुष, कुचले हुए; असफलता, विफलता, विषाद! मौत के पहले ही आदमी दुखों से मर जाता है। मौत को मारने की जरूरत नहीं पड़ती; आप बहुत पहले ही मर चुके होते हैं; जिंदगी ही काफी मार देती है। जीवन आनंद का उत्सव तो नहीं बन पाता, दुख का एक तांडव नृत्य जरूर बन जाता है।

और तब स्वाभाविक है कि यह संदेह मन में उठने लगे कि इस दुख से भरे जीवन को क्या परमात्मा ने बनाया होगा? और अगर परमात्मा इस दुख से भरे जीवन को बनाता है, तो परमात्मा कम और शैतान ज्यादा मालूम होता है। और अगर इतना दुख जीवन का फल है, तो परमात्मा सैडिस्ट, दुखवादी मालूम होता है। लोगों को सताने में जैसे उसे कुछ रस आता हो! तो फिर स्वाभाविक ही है कि अधिक लोग दुख के कारण परमात्मा को अस्वीकार कर दें। नास्तिक लोग दुख के कारण हो जाते हैं। तर्क तो पीछे आदमी इकट्ठे कर लेता है।

लेकिन जीवन में इतनी पीड़ा है कि आस्तिक होना मुश्किल है। इतनी पीड़ा को देखते हुए आस्तिक हो जाना असंभव है। या फिर ऐसी आस्तिकता झूठी होगी, ऊपर-ऊपर होगी, रंग-रोगन की गई होगी। ऐसी आस्तिकता का हृदय नहीं हो सकता। आस्तिकता तो सच्ची सिर्फ आनंद की घटना में ही हो सकती है। जब जीवन एक आनंद का उत्सव दिखाई पड़े, अनुभव में आए तो ही कोई आस्तिक हो सकता है।

आस्तिक शब्द का अर्थ है, समग्र जीवन को हां कहने की भावना। लेकिन दुख को कोई कैसे हां कह सके? आनंद को ही कोई हां कह सकता है। दुख के साथ तो संदेह बना ही रहता है। शायद आपने कभी सोचा हो या न सोचा हो, कोई भी नहीं पूछता कि आनंद क्यों है? लेकिन दुख होता है, तो आदमी पूछता है, दुःख क्यों है? दुख के साथ प्रश्न उठते हैं। आनंद तो निष्प्रश्न स्वीकार हो जाता है। अगर आपके जीवन में आनंद ही आनंद हो, तो आप यह न पूछेंगे कि आनंद क्यों है? आप आस्तिक होंगे। क्यों का सवाल ही न उठेगा।

लेकिन जहां जीवन में दुख ही दुख है, वहा आस्तिक होना थोथा मालूम होता है। वहा तो नास्तिक ही ठीक मालूम पड़ता है। क्योंकि वह पूछता है कि दुख क्यों है? और दुख क्यों है, यही सवाल गहरे में उतरकर सवाल बन जाता है कि इतने दुख की मौजूदगी में परमात्मा का होना असंभव है। इस दुख को बनाने वाला परमात्मा हो सके, यह मानना कठिन है। और ऐसा परमात्मा अगर हो भी, तो उसे मानना उचित भी नहीं है।

जीवन में जितना दुख बढ़ता जाता है, उतनी नास्तिकता बढ़ती जाती है। नास्तिकता एक मानसिक, मनोवैज्ञानिक घटना  है तार्किक, बौद्धिक नहीं। कोई तर्क के कारण नास्तिक नहीं होता। यद्यपि जब कोई नास्तिक हो जाता है, तो तर्क खोजता है।

तर्क आप पीछे जुटाते हैं, पहले आप आस्तिक हो जाते हैं या नास्तिक हो जाते हैं। तर्क तो सिर्फ बौद्धिक उपाय है, अपने को समझाने का। क्योंकि मैं जो भी हो जाता हूं, उसके लिए रेशनलाइजेशन, उसके लिए तर्कयुक्त करना जरूरी हो जाता है।

 मुझे खुद को ही समझाना पड़ेगा कि मैं नास्तिक क्यों हूं। तो एक ही उपाय है कि ईश्वर नहीं है, इसलिए मैं नास्तिक हूं।

लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं कि अगर आप नास्तिक हैं, तो इसलिए नहीं कि ईश्वर नहीं है, बल्कि इसलिए कि आप दुखी हैं। आपकी नास्तिकता आपके दुख से निकलती है। और अगर आप कहते हैं कि मैं दुखी हूं और फिर भी आस्तिक हूं, तो मैं आपसे कहता हूं आपकी आस्तिकता झूठी और ऊपरी होगी। दुख से सच्ची आस्तिकता का जन्म नहीं हो सकता, क्योंकि दुख के लिए कैसे स्वीकार किया जा सकता है! दुख के प्रति तो गहन अस्वीकार बना ही रहता है।  टाल्सटाय ने लिखा है कि हे ईश्वर, मैं तुझे तो स्वीकार करता हूं लेकिन तेरे संसार को बिलकुल नहीं। लेकिन बाद में उसे भी खयाल आया कि अगर मैं ईश्वर को सच में ही स्वीकार करता हूं तो उसके संसार को अस्वीकार कैसे कर सकता हूं? और अगर मैं उसके संसार को अस्वीकार करता हूं तो मेरे ईश्वर को स्वीकार करने की बात में कहीं न कहीं धोखा है।

जब कोई ईश्वर को स्वीकार करता है, तो उसकी समग्रता में ही स्वीकार कर सकता है। यह नहीं कह सकता कि तेरे संसार को मैं अस्वीकार करता हूं। यह आधा काटा नहीं जा सकता है ईश्वर को। क्योंकि ईश्वर का संसार ईश्वर ही है। और जो उसने बनाया है, उसमें वह मौजूद है। और वह जो हमें दिखाई पड़ता है, उसमें वह छिपा है। जो आदमी दुखी है, उसकी आस्तिकता झूठी होगी, वह छिपे में नास्तिक ही होगा। और जो आदमी आनंदित है, अगर वह यह भी कहता हो कि मैं नास्तिक हूं तो उसकी नास्तिकता झूठी होगी; वह छिपे में आस्तिक ही होगा।

बुद्ध ने इनकार किया है ईश्वर से। महावीर ने कहा है कि कोई ईश्वर नहीं है। लेकिन फिर भी महावीर और बुद्ध से बड़े आस्तिक खोजना मुश्किल है। और आप कहते हैं कि ईश्वर है, लेकिन आप जैसे नास्तिक खोजना मुश्किल है। बुद्ध ईश्वर को इनकार करके भी आस्तिक ही होंगे, क्योंकि वह जो आनंद, वह जो नृत्य, वह जो भीतर का संगीत गूंज रहा है, वही आस्तिकता है।

मनुष्य दुखी है, और दुख उसे परमात्मा से तोड़े हुए है। और जब मनुष्य दुखी है, तो उसके सारे मन की एक ही चेष्टा होती है कि दुख के लिए किसी को जिम्मेवार ठहराए। और जब तक आप दुख के लिए किसी को जिम्मेवार ठहराते हैं, तब तक यह मानना मुश्किल है कि आप अंतिम रूप से दुख के लिए परमात्मा को जिम्मेवार नहीं ठहराएंगे। अंततः वही जिम्मेवार होगा।

जब तक मैं कहता हूं कि मैं अपनी पत्नी के कारण दुखी हूं कि अपने बेटे के कारण दुखी हूं, कि गांव के कारण दुखी हूं पड़ोसी के कारण दुखी हूं-जब तक मैं कहता हूं मैं किसी के कारण दुखी हूं-तब तक मुझे खोज करूं तो पता चल जाएगा कि अंततः मैं यह भी कहूंगा कि मैं परमात्मा के कारण दुखी हूं।

दूसरे पर जिम्मा ठहराने वाला बच नहीं सकता परमात्मा को जिम्मेवार ठहराने से। आप हिम्मत न करते हों खोज की, और पहले ही रुक जाते हों, यह बात अलग है। लेकिन अगर आप अपने भीतर खोज करेंगे, तो आप आखिर में पाएंगे कि आपकी शिकायत की अंगुली ईश्वर की तरफ उठी हुई है।


धार्मिक व्यक्ति का जन्म ही इस विचार से होता है, इस आत्म- अनुसंधान से कि दुख के लिए कोई दूसरा जिम्मेवार नहीं, दुख के लिए मैं जिम्मेवार हूं। और जैसे ही यह दृष्टि साफ होने लगती है कि दुख के लिए मैं जिम्मेवार हूं? वैसे ही दुख से मुक्त हुआ जा सकता है। और मुक्त होने का कोई मार्ग भी नहीं है।

अगर मैं ही जिम्मेवार हूं, तो ही जीवन में क्रांति हो सकती है। अगर कोई और मुझे दुख दे रहा है, तो मैं दुख से कैसे छूट सकता हूं? क्योंकि जिम्मेवारी दूसरे के हाथ में है। ताकत किसी और के हाथ में है। मालिक कोई और है। मैं तो केवल झेल रहा हूं। और जब तक यह सारी दुनिया न बदल जाए जो मुझे दुख दे रही है, तब तक मैं सुखी नहीं हो सकता।

लेकिन धर्म का सारा अनुसंधान यह है कि दूसरा मेरे दुख का कारण है, यही समझ दुख है। दूसरा मुझे दुख दे सकता है, इसलिए मैं दुख पाता हूं इस खयाल से, इस विचार से। और तब मैं अनंत काल तक दुख पा सकता हूं दूसरा बदल जाए तो भी। क्योंकि मेरी जो दृष्टि है दुख पाने की, वह कायम रहेगी।

समाज बदल जाए.. .समाज बहुत बार बदल गया। आर्थिक व्यवस्था बहुत बार बदल गई। कितनी क्रांतिया नहीं हो चुकी हैं! और फिर भी कोई क्रांति नहीं हुई। आदमी वैसा का वैसा दुखी है। सब कुछ बदल गया। अगर आज से दस हजार साल पीछे लौटे, तो क्या बचा है? सब बदल गया है। एक ही चीज बची है, दुख वैसा का वैसा बचा है, शायद और भी ज्यादा बढ़ गया है।

बहुत कठिन मालूम होता है अपने आप को जिम्मेवार ठहराना। क्योंकि तब बचाव नहीं रह जाता कोई। जब मैं यह सोचता हूं कि मैं ही कारण हूं अपने दुखों का, तो फिर शिकायत भी नहीं बचती। किससे शिकायत करूं! किस पर दोष डालूं! और जब मैं ही जिम्मेवार हूं तो फिर यह भी कहना उचित नहीं मालूम होता कि मैं दुखी क्यों हूं? क्योंकि मैं अपने को दुखी बना रहा हूं इसलिए। और मैं न बनाऊं, तो दुनिया की कोई ताकत मुझे दुखी नहीं बना सकती। बहुत कठिन मालूम पड़ता है। क्योंकि तब मैं अकेला खड़ा हो जाता हूं और पलायन का, छिपने का, अपने को धोखा देने का, प्रवंचना का कोई रास्ता नहीं बचता। जैसे ही यह खयाल में आ जाता है कि मैं जिम्मेवार हूं वैसे ही क्रांति शुरू हो जाती है।

ज्ञान क्रांति है। और ज्ञान का पहला सूत्र है कि जो कुछ भी मेरे जीवन में घटित हो रहा है, उसे कोई परमात्मा घटित नहीं कर रहा है, उसे कोई समाज घटित नहीं कर रहा है, उसे मैं घटित कर रहा हूं चाहे मैं जानूं और चाहे मैं न जानूं।

मैं जिस कारागृह में कैद हो जाता हूं वह मेरा ही बनाया हुआ है। और जिन जंजीरों में मैं अपने को पाता हूं वे मैंने ही ढाली हैं। और जिन काटो पर मैं पाता हूं कि मैं पड़ा हूं वे मेरे ही निर्मित किए हुए हैं। जो गड्डे मुझे उलझा लेते हैं, वे मेरे ही खोदे हुए हैं। जो भी मैं काट रहा हूं वह मेरा बोया हुआ है, मुझे दिखाई पड़ता हो या न दिखाई पड़ता हो।

अगर यह मुझे दिखाई पड़ने लगे, तो दुख-विसर्जन शुरू हो जाता है। और यह मुझे दिखाई पड़ने लगे, तो आनंद की किरण भी फूटनी शुरू हो जाती है। और आनंद की किरण के साथ ही तत्व का बोध, तत्व का ज्ञान; वह जो सत्य है, उसकी प्रतीति के निकट मैं पहुंचता हूं।

ओशो रजनीश



शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

भगवान को पाने का मार्ग

 भगवान को पाने का मार्ग कष्ट मय जरा भी नहीं है। और न ही कठिन है। मार्ग तो अति सुगम है, सरल है, और आनंदपूर्ण है। लेकिन हम जैसे हैं, उसके कारण कठिनाई पैदा होती है। कठिनाई मार्ग के कारण पैदा नहीं होती। कठिनाई हमारे कारण पैदा होती है। और अगर प्रभु का रास्ता लगता है कि अति कष्टों से भरा है, तो रास्ता कष्टों से भरा है इसलिए नहीं, हम जिन बीमारियों से भरे हैं, उनको छोड़ने में कष्ट होता है।

अड़चन हमारी है। जटिलता हमारी है। रास्ता तो बिलकुल सुगम है। आप अगर सरल हो जाएं, तो रास्ता बिलकुल सरल है। आप अगर जटिल है, तो रास्ता बिलकुल जटिल है। क्योंकि आप ही हैं रास्ता। आपको अपने से ही गुजरकर पहुंचना है। और आपको पहुंचना है, इसलिए आपको बदलना भी होगा।

अब जैसे एक आदमी चोर है, तो चोरी छोड़े बिना एक इंच भी वह प्रार्थना के मार्ग पर न बढ सकेगा। लेकिन चोरी में रस है। चोरी का अभ्यास है। चोरी का लाभ दिखाई पड़ता है, तो छोड़ना मुश्किल मालूम होता है।

और परमात्मा तो दूर का लाभ है; चोरी का लाभ अभी और यहीं दिखाई पड़ता है। और परमात्मा है भी या नहीं, यह भी संदेह बना रहता है। चोरी में जो लाभ खो जाएगा, वह प्रत्यक्ष मालूम पड़ता है; और परमात्मा में जो आनंद मिलेगा, वह बहुत दूर की कल्पना मालूम पड़ती है, सपना मालूम पड़ता है।

तो चोरी छोड़नी कठिन हो जाती है, हिंसा छोड़नी कठिन हो जाती है, क्रोध छोड़ना कठिन हो जाता है। परमात्मा के कारण ये कठिनाइयां नहीं हैं। ये कठिनाइयां हमारे कारण हैं।

अगर आप सरल हो जाएं, तो रास्ता ही नहीं बचता। इतनी भी कठिनाई नहीं रह जाती कि रास्ते को पार करना हो। अगर आप सरल हो जाएं, तो आप पाते हैं कि परमात्मा सदा से आपके पास ही मौजूद था, आपकी कठिनाई के कारण दिखाई नहीं पड़ता था। रास्ता होगा, तो थोड़ा तो कठिन होगा ही। चलना पड़ेगा। लेकिन इतना भी फासला नहीं है मनुष्य में और परमात्मा में कि चलने की जरूरत हो। लेकिन हम बड़े जटिल हैं, बड़े उलझे हुए हैं।

मैंने सुना है कि एक आदमी भागा हुआ चला जा रहा था एक राजधानी के पास। राह के किनारे बैठे एक आदमी से उसने पूछा कि मैं राजधानी जाना चाहता हूं कितनी दूर होगी? तो उस आदमी ने कहा, इसके पहले कि मैं जवाब दूं दो सवाल तुमसे पूछने जरूरी हैं। पहला तो यह कि तुम जिस तरफ जा रहे हो, अगर इसी तरफ तुम्हें राजधानी तक पहुंचना है, तो जितनी जमीन की परिधि है, उतनी ही दूर होगी, क्योंकि राजधानी पीछे छूट गई है। अगर तुम इसी तरफ खोजने का इरादा रखते हो, तो पूरी जमीन घूमकर जब तुम लौटोगे, तो राजधानी आ पाएगी। अगर तुम लौटने को तैयार हो, तो राजधानी बिलकुल तुम्हारे पीछे है।

तो एक तो यह पूछना चाहता हूं कि किस तरफ जाकर राजधानी खोजनी है? और दूसरा यह पूछना चाहता हूं कि किस चाल से खोजनी है? क्योंकि दूरी चाल पर निर्भर करेगी। अगर चींटी की चाल चलना हो, तो पीछे की राजधानी भी बहुत दूर है। तो तुम्हारी चाल और तुम्हारी दिशा, इस पर राजधानी की दूरी निर्भर करेगी। परमात्मा कितना दूर है, यह आप पर निर्भर करेगा कि आप किस दिशा में खोज रहे हैं, और इस पर निर्भर करेगा कि आपकी गति क्या है। अगर आप गलत दिशा में खोज रहे हैं, तो बहुत कठिन है। और हम सब गलत दिशा में खोज रहे हैं।

मजा तो यह है कि यहां नास्तिक भी परमात्मा को ही खोज रहा है। परमात्मा का अर्थ है परम आनंद को, अंतिम जीवन के अर्थ को, प्रयोजन को, सार्थकता को, क्या है अभिप्राय जीवन का, इसको नास्तिक भी खोज रहा है। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जो परमात्मा को न खोज रहा हो।

हां, कोई गलत रास्ते पर खोज रहा हो, गलत दिशा में खोज रहा हो, यह हो सकता है। लेकिन परमात्मा को खोज ही न रहा हो, यह नहीं हो सकता। हो सकता है, अपनी खोज को वह परमात्मा का नाम भी न देता हो। लेकिन सभी खोज उसी के लिए है। आनंद की खोज, अभिप्राय की खोज, अर्थ की खोज, उसकी ही खोज है। अपनी खोज उसकी ही खोज है। अस्तित्व की खोज उसकी ही खोज है। नाम हम क्या देते हैं, यह हम पर निर्भर है।

लेकिन आप सूरज को खोजने चल सकते हैं और सूरज की तरफ पीठ करके चल सकते हैं। तो आप हजारों मील चलते रहेंगे और सूरज दिखाई नहीं पड़ेगा। और एक मजे की बात है कि आप हजारों मील चल चुके हों, और आप पीठ फेर लें, उलटे खड़े हो जाएं, तो सूरज अभी आपको दिखाई पड़ जाएगा।

इससे एक बात खयाल में ले लें। अगर सूरज की तरफ पीठ करके आप हजार मील चले गए हैं, तो आप यह मत समझना कि जब सूरज की तरफ मुंह करके आप हजार मील चलेंगे, तब सूरज दिखाई पड़ेगा। सूरज तो इसी वक्त मुंह फेरते ही दिखाई पड़ जाएगा।

तो परमात्मा से आप कितने दूर चले गए हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आप पीठ फेरने को राजी हों, तो इसी वक्त परमात्मा दिखाई पड़ जाएगा। उसके बीच और आपके बीच दूरी वास्तविक नहीं है, केवल आपके पीठ के फेरने की है, सिर्फ दिशा की है। वह आपके साथ ही खड़ा। वह आपके भीतर ही छिपा।

तो पहली तो बात यह समझ लें कि कठिनाई रास्ते की नहीं है। इसलिए सरल रास्ते की खोज मत करें। सरल होने की खोज करें। बहुत—से लोग सरल रास्ते की खोज में होते हैं। वे कहते हैं, कोई शार्टकट? उसमें वे बहुत धोखे में पड़ते हैं, क्योंकि परमात्मा तक पहुंचने का कोई शार्टकट रास्ता नहीं है। क्योंकि पीठ ही फेरनी है, अब इसमें और क्या शार्टकट होगा? अगर सिर्फ पीठ फेरनी है और परमात्मा सामने आ जाएगा, तो इससे संक्षिप्त अब और क्या करिएगा? इससे और संक्षिप्त नहीं हो सकता।

लेकिन हम खोज में रहते हैं संक्षिप्त रास्ते की। वह क्यों? वह हम इसलिए खोज में रहते हैं कि कोई ऐसा रास्ता मिल जाए जो सरल हो। उसका मतलब क्या? उसका मतलब, जो मुझे न बदले। जब हम पूछते हैं सरल रास्ता, तो हम यह पूछते हैं कि कुछ ऐसी बात बताओ कि जैसा मैं हूं, वैसा ही परमात्मा से मिलन हो जाए; मुझे कुछ भी न करना पड़े। सरल का मतलब है, परमात्मा मुफ्त में मिल जाए। मुझे कुछ भी छोड़ना, तोड़ना, बदलना न पड़े। मैं जैसा हूं ऐसे को ही मिल जाए, यह आपकी आकांक्षा है भीतरी।

यह कभी भी नहीं होगा। अगर यह होने वाला होता, तो बहुत पहले हो गया होता। आप बहुत जन्मों से यह कर रहे हैं। यह कोई आपकी नई तलाश नहीं है। काफी, लाखों साल की तलाश है। और भूल उसमें वही है कि आप सरल रास्ता खोजते हैं, सरल व्यक्तित्व नहीं खोजते। आप सरल हो जाएं, रास्ता सरल है। और इसकी फिक्र में लगें कि मैं कैसे सरल हो जाऊं।

और जीवन—क्रांति की कोई भी प्रक्रिया शार्टकट नहीं होती। क्योंकि जो हमने अपने को उलटा करने के लिए किया है, उतना तो करना ही पड़ेगा सीधा होने के लिए। इसलिए वह बात ही छोड़ दें सरल की, और ध्यान करें अपनी जटिलता पर।

आपकी जटिलता को समझने की कोशिश करें और आपकी जटिलता कैसे खुलेगी, एक—एक गांठ, उसको खोलने की कोशिश करें। जैसे—जैसे आप खुलते जाएंगे, आप पाएंगे कि परमात्मा आपके लिए खुलता जा रहा है। इधर भीतर आप खुलते हैं, उधर बाहर परमात्मा खुलने लगता है। जिस दिन आप भीतर बिलकुल खुल गए होते हैं, परमात्मा सामने होता है।

बुद्ध ने कहा है.। जब उन्हें ज्ञान हुआ, और किसी ने पूछा कि आपको क्या मिला है? तो बुद्ध ने कहा, मुझे मिला कुछ भी नहीं है। सिर्फ उसको ही जान लिया है, जो सदा से मिला हुआ था। कोई नई चीज मुझे नहीं मिल गई है। मगर जो मेरे पास ही थी और मुझे दिखाई नहीं पड़ती थी, उसका ही दर्शन हो गया है।

तो बुद्ध ने कहा है कि यह मत पूछो कि मुझे क्या मिला। ज्यादा अच्छा हो कि मुझसे पूछो कि क्या खोया। क्योंकि मैंने खोया जरूर है कुछ, पाया कुछ भी नहीं है। खोया है मैंने अपना अशान। खोई है मैंने अपनी नासमझी, खोई है मैंने गलत चलने की दिशा और गलत ढंग। खोया है मैंने गलत जीवन। पाया है, कहना ठीक नहीं, क्योंकि जो पाया है, वह था ही। अब जानकर मैं कहता हूं कि यह तो सदा से मेरे पास था। सिर्फ मैं गलत था, इसलिए इससे मेरी पहचान नहीं हो पाती थी। जो मेरे भीतर ही छिपा था, उस तक भी मैं नहीं पहुंच पाता था, क्योंकि मैं कहीं और उसे खोज रहा था।

सूफी फकीर औरत हुई है, राबिया। एक दिन लोगों ने देखा कि वह रास्ते पर सांझ के अंधेरे में कुछ खोजती है। तो लोगों ने पूछा, क्या खोजती है? तो उसने कहा, मेरी सुई खो गई है। तो दूसरे लोग भी खोजने में लग गए कि बूढ़ी की सुई मिल जाए। तब एक आदमी को खयाल आया कि सूरज ढलता जाता है, अंधेरा होता जाता है। तो उस आदमी ने कहा कि तेरी सुई बड़ी छोटी चीज है और रास्ता बड़ा है। आखिर खोई कहां है? ठीक जगह कहां गिरी है, तो हम खोज भी लें; नहीं तो सूरज ढल रहा है।

तो राबिया ने कहा, यह सवाल ही मत उठाओ, क्योंकि सुई तो मेरे घर में गिरी है, घर के भीतर गिरी है। तो वे सारे लोग खड़े हो गए। उन्होंने कहा, पागल औरत, अगर घर के भीतर सुई गिरी है, तो यहां बाहर क्यों खोजती है? तो उसने कहा, घर में प्रकाश नहीं है, बाहर प्रकाश है। और बिना प्रकाश के खोजूं कैसे? इसलिए यहां खोजती हूं।

आप भी खोज रहे हैं, लेकिन आपको इसका भी खयाल नहीं है कि खोया कहां है। और जब तक इसका ठीक पता न हो कि परमात्मा को खोया कहां है, खोया भी है या नहीं; या खोया है, तो भीतर या बाहर, तब तक खोज आपकी भटकन ही होगी।

लेकिन आप भी राबिया की तरह हैं। राबिया भी उन लोगों से मजाक कर रही थी। और जब वे सब हंसने लगे और कहने लगे, पागल औरत, जब घर के भीतर सुई खोई है, तो वहीं खोज। और अगर प्रकाश नहीं है, तो प्रकाश वहा ले जा, बजाय इसके कि प्रकाश में खोज। क्योंकि जब उसे खोया ही नहीं, तो प्रकाश पैदा तो नहीं कर देगा! प्रकाश तो केवल बता सकता है, जो मौजूद हो। तो तू प्रकाश भीतर ले जा।

तो राबिया ने कहा कि तुम सब मुझ पर हंसते हो, लेकिन मैं तो दुनिया की रीत से चल रही थी। मैंने सभी लोगों को बाहर खोजते देखा है। और बाहर खोया किसी ने भी नहीं है। मैंने सोचा कि यही उचित है, दुनिया की रीत से ही चलना।

आप कहां खोज रहे हैं? आनंद कहां खोज रहे हैं आप? कोई धन में खोज रहा है, कोई मित्र में, कोई प्रेम में, कोई यश में, कोई प्रतिष्ठा में। वह सारी खोज बाहर है। लेकिन आपको पक्का है कि आपने आनंद कभी बाहर खोया है? और आप आनंद क्यों खोज रहे हैं, अगर आपको आनंद का पहले कोई पता ही नहीं है तो?

यह जरा सोचने जैसी बात है। उस चीज की खोज नहीं हो सकती, जिसका हमें कोई पूर्व—अनुभव न हो। खोजेंगे कैसे?

सबको लगता है कि आनंद नहीं है। इससे एक बात तो साफ है, आपको किसी न किसी गहराई के तल पर यह पता है कि आनंद क्या है। नहीं तो आनंद नहीं है, यह कैसे कहते हैं आप? दुख है, यह कैसे कहते हैं? क्योंकि जिसने कभी अंधेरा न देखा हो, वह प्रकाश को भी नहीं जान सकता। और जिसने कभी प्रकाश न देखा हो, वह यह भी नहीं पहचान सकता कि यह अंधेरा है। अंधेरे की पहचान के लिए प्रकाश का अनुभव चाहिए।

अगर आपको लगता है, यह दुख है, तो आपको कुछ न कुछ आनंद की खबर है। तभी तो आप सोच पाते हैं कि यह वैसा नहीं है, जैसा होना चाहिए। आनंद नहीं है, पीड़ा है, दुख है।

सभी को दुख का अनुभव होता है। इससे अध्यात्म की एक मौलिक धारणा पैदा होती है और वह यह कि सभी को जाने—अनजाने आनंद का अनुभव है। शायद आपको भी पता नहीं है, लेकिन आपके प्रायों की गहराई में आनंद की कोई प्रतीति है अभी भी। उसी से आप तोलते हैं, और पाते हैं कि नहीं, अनुकूल नहीं है, और उसी को आप खोज रहे हैं।

जो आपकी गहराइयों में छिपा है, उसको ही आप खोज रहे हैं। लेकिन खोज रहे हैं बाहर। जहां वह छिपा है, वहां नहीं खोज रहे हैं। लेकिन बाहर खोजने का कारण वही है, जो राबिया का था। वह कारण यही है कि आंखें बाहर खुलती हैं। इसलिए रोशनी बाहर है। हाथ बाहर फैलते हैं, कान बाहर सुनते हैं; सारी इंद्रियां बाहर खुलती हैं। इंद्रियों का प्रकाश बाहर पड़ता है, इसलिए हम बाहर खोज रहे हैं।

हम भीतर हैं और इंद्रियां बाहर की तरफ खुलती हैं। इसलिए इंद्रियों के द्वारा जो भी खोज है, वह आपको कहीं भी न ले जाएगी। इंद्रियां बाहर की तरफ जाती हैं और आप भीतर की तरफ हैं। आप इंद्रियों के पीछे छिपे हैं। आपकी संपदा पीछे छिपी है, और इंद्रियां बाहर जाती हैं। इंद्रियों का उपयोग यही है। इंद्रियां संसार से जुड्ने का मार्ग हैं। इसलिए बाहर की तरफ जाती हैं।

भीतर तो आंखों की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि भीतर तो बिना आंखों के देखा जा सकता है। भीतर कान की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि बिना कान के भीतर सुना जा सकता है। भीतर हाथों की कोई भी जरूरत नहीं है, क्योंकि बिना हाथों के भीतर स्पर्श हो जाता है। इसलिए इंद्रियों की भीतर की तरफ कोई जरूरत नहीं है। भीतर का सब अनुभव अतींद्रिय है, इंद्रिय के बिना हो जाता है।

इंद्रियों की जरूरत संसार के लिए है। वे इंस्ट्रमेंट्स हैं, साधन हैं, संसार से जुड्ने के। तो जितना संसार से जुड़ना हो, उतनी सबल इंद्रिय चाहिए।

वैज्ञानिक कहते हैं कि विज्ञान की सारी खोज इंद्रियों को सबल बनाने से ज्यादा नहीं है। आपकी आंख देख सकती है थोड़ी दूर तक। दूरबीन है, वह मीलों तक देख सकती है। फिर और बड़ी दूरबीनें हैं, वे आकाश के तारों को देख सकती हैं। लेकिन आप कर क्या रहे हैं? जो तारा खाली आंख से दिखाई नहीं पड़ता, वह दूरबीन से दिखाई पड़ जाता है। क्योंकि दूरबीन बड़ा सबल यंत्र है। दूर तक उसका सेतु बन जाता है। दूर तक उसका संबंध बन जाता है। खाली आंख से उतना संबंध नहीं बनता।

कान से आप सुनते हैं। रेडियो भी सुनता है, लेकिन वह काफी दूर की बात पकड़ लेता है। आंख से आप देखते हैं। टेलीविजन भी देखता है, लेकिन वह काफी दूर की बात पकड़ लेता है। सारी वैज्ञानिक खोजें इंद्रियों का परिष्कार हैं। विज्ञान का जगत इंद्रियों का जगत है। सारा संसार इंद्रियों से जुड़ा हुआ है।

लेकिन इससे एक उपद्रव पैदा होता है कि आप परमात्मा को भी खोजने इन्हीं इंद्रियों के रास्ते से चले जाते हैं। यह गलती वैसे ही है, जैसे कोई आदमी आंखों से संगीत सुनने की कोशिश करने लगे। आंखें देख सकती हैं, सुन नहीं सकतीं। और कितनी ही सबल आंख हो, तो भी नहीं सुन सकती। सुनने का काम आंख से नहीं हो सकता। सुनने का काम कान से होगा। और कान अगर देखने की कोशिश करने लगे, तो फिर मुसीबत होगी, पागलपन पैदा होगा।

इंद्रिया बाहर का मार्ग हैं, उनसे भीतर की खोज नहीं हो सकती। इंद्रिया पदार्थ से जोड़ देती हैं, उनका परमात्मा से जुड़ना नहीं हो सकता। यह उनकी सीमा है। जैसे आंख देखती है, यह उसकी सीमा है। इसमें कोई कसूर नहीं है।

इंद्रियां बाह्य ज्ञान के साधन हैं। और वह जो छिपा है, वह जो आप हैं, वह भीतर है। उसे खोजना हो, तो इंद्रियों के द्वार बंद करके भीतर डूब जाना होगा। इंद्रियों के सेतु छोड़ देने होंगे। इंद्रियों के रास्तों से लौटकर अपने भीतर ही खड़े हो जाना होगा।

इस भीतर खड़े हो जाने का नाम अध्यात्म है। और भीतर जो खड़ा हो जाता है, वह पाता है कि जिसे मैंने कभी न खोया था, उसे मैं खोज रहा था। जिससे मेरा कभी बिछुड़ना न हुआ था, उसके मिलन के लिए मैं परेशान हो रहा था। जो सदा ही पास था, उसे मैं दूर—दूर तलाश रहा था। और दूर—दूर तलाशने की वजह से उसे नहीं पा रहा था। नहीं पा रहा था, तो और परेशान हो रहा था। और परेशान हो रहा था, तो और दूर खोज रहा था। ऐसे खोज एक विशियस सर्किल, एक दुष्टचक्र बन जाती है।

सरल है बहुत, क्योंकि परमात्मा आपके इतने निकट है कि उसे निकट कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि निकटता में भी थोड़ी—सी दूरी होती है। परमात्मा आपकी श्वास—श्वास में है, रोएं—रोएं में है। ठीक से समझें तो आप परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं।


 😎               गणित के एक शिक्षक घूमने गए ! शाम के समय एक रेस्टोरेंट में पिज़्ज़ा खाने चले गए ! उन्होंने मेनू देखकर एक 9 इंच के पिज़्ज़ा का आर्डर दे दिया ! कुछ देर बाद  वेटर 5 - 5 इंच के दो गोल पिज़्ज़ा लेकर गुरूजी के सामने उपस्थित हुआ और कहा कि सर, 9 इंच का पिज़्ज़ा उपलब्ध नहीं है , इसलिए आपको 5 - 5 इंच के दो पिज़्ज़ा दिए जा रहे हैं , जिससे कि आपको 1 इंच पिज़्ज़ा  फ्री में मिल रहा है ! 

गुरू जी ने  वेटर  को घूर कर देखा और रेस्टोरेंट के मालिक को बुलाने के लिए कहा !जब रेस्टोरेन्ट का मालिक आया तो गुरूजी ने उससे बड़े स्नेह से पूछा कि आप कहाँ तक पढ़े हैं ?             मालिक ने बताया कि उसने बी एस सी किया है, - गणित आनर्स । तब गुरूजी ने कहा कि क्या आप मुझे बता सकते हैंं कि गणित में एक वृत्त का क्षेत्रफल निकालने का क्या फार्मूला है ?

मालिक ने कहा - जी, πr²

गुरू जी ने कहा - ठीक ।

आगे उन्होंने पूछा  - π = 3.142857 और r होगा वृत्त का रेडियस। है न ? मैंने आपको नौ इंच डायामीटर के पिज़्ज़ा का आर्डर दिया था , जिसका क्षेत्रफल फार्मूला के अनुसार 63.64 वर्ग इंच होता है ! ठीक ? मालिक ने कहा - जी ! बिलकुल सही हैं !अब गुरू जी ने आगे कहा कि आपने मुझे 5-5 इंच के दो पिज़्ज़ा ये कह कर दिए हैं कि आपको 1 इंच पिज़्ज़ा फ्री दिया जा रहा है , अब आप 5 इंच के एक पिज़्ज़ा का क्षेत्रफल निकालिये !

क्षेत्रफल निकला " 19.64 Square इंच ।"

यानी 2 पिज़्ज़ा का एरिया 39.28 वर्ग  इंच !

अब गुरू जी ने कहा कि अगर आप मुझे 5 इंच का एक तीसरा  पिज़्ज़ा और भी देते हैं , तब भी मैं घाटे में ही रहूँगा !और आप कह रहे हैं कि मुझे 1 इंच पिज़्ज़ा फ्री दिया जा रहा है!

रेस्टोरेंट का मालिक नि:शब्द !बेचारे से कोई उत्तर देते नहीं बना !

अंत में उसने गुरू जी को 5-5 इंच के 4 पिज़्ज़ा देकर अपनी जान छुड़ाई !!


*मारल आफ द स्टोरी  :- गुरू जी लोगों से कभी भी पंगा लेने का नहीं।*             


                                                          

गुरुवार, 9 सितंबर 2021

 गणेश चतुर्थी 10 सितंबर 2021 को मनाई जाएगी। 11 दिन तक चलने वाले इस पर्व पर भक्त घर और मंडप में गणेश जी मूर्ति स्थापित कर 11 दिन तक उनकी सेवा करते हैं और अनंत चतुर्दशी के दिन मूर्ति का विसर्जन किया जाता है। भगवान गणेश की मूर्ति जब घर में लाई जाती है, तो नियम और पूरी निष्ठा के साथ पूजा की जाती है। बप्पा का हर रूप मंगलकारी और विघ्ननाशक है। मूर्ति लेते समय कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए जैसे कि गणेश जी की प्रतिमा में उनका वाहन मूषक जरूर होना चाहिए। गणेश जी आशीर्वाद मुद्रा में और उनके एक हाथ में मोदक भी होना चाहिए। गणेश जी की सूंड बाईं तरफ होनी चाहिए, ऐसी मूर्ति को वक्रतुंड कहा जाता है। गणेश जी सूंड उत्तर दिशा में होने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।


जहां तक हो मिट्टी की मूर्ति ही घर में स्थापित करनी चाहिए। इस बार बाजार में आई अधिकांश मूर्तियां ईको फ्रेंडली हैं, इनसे पर्यावरण को कोई नुक्सान नहीं होता है, जो दस मिनट में ही पानी में घुल जाती है।


गणेश जी ने अपने माता-पिता की परिक्रमा शुरू कर परिक्रमा की शुरुआत की थी। इसलिए सभी अनुष्ठानों में गणेश जी को सर्वप्रथम पूजा जाता है। उन्हें मोदक यानि लड्डू प्रिय हैं। शुभ अवसर पर मिठाई खिलाने की परम्परा आज भी है और पहले भी थी । मिठाई ज्यादा खाने से मधुमेह यानि डायबिटीज पहले भी होता था और आज भी होता है। मनुष्यों में ही नहीं, देवताओं को भी। गणेश जी पहले पूजेंगे, तो मिठाई भी पहले उन्हें ही मिलेगी। देवताओं में मधुमेह होने का पहला प्रमाण गणेश जी में ही मिलता है।


हमारी देव-स्तुतियों में औषधियों का जिक्र है। प्रथम मधुमेह के प्रमाण गणेश जी की स्तुति में मधुमेह की औषधि का जिक्र न हो। यह कैसे हो सकता है ?


गजाननं भूतगणाधिसेवितं कपित्थजम्बूफल चारुभक्षणमं उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजमं ।।


-- भूतों के समूहों द्वारा अत्याधिक सेवा किए, कैध और जामुन के फलों को रुचि पूर्वक खाने वाले, शोक का नाश करने वाले, विघ्नों को दूर करने वाले, उमा के पुत्र भगवान गणपति के चरणों में मैं प्रणाम करता हूं।


आप कितना भी मिष्ठान खाए, मधुमेह नहीं होगा। बशर्ते जामुन का फल खाते रहें। इसलिए गणेश जी खूब मोदक यानि लड्डू खाते हैं और कैथ एवं जामुन भी। कहते हैं कि गणेशजी के मधुमेह को कैथ और जामुन ने ही ठीक किया था।



सोमवार, 6 सितंबर 2021

प्रार्थना

 जहां मांग है, वहा प्रार्थना नहीं है। और मांग ही प्रार्थना को असफल कर देती है। प्रार्थना इसलिए असफल गई कि आपको प्राप्ति हुई, नहीं हुई—ऐसा नहीं। प्रार्थना तो उसी क्षण असफल हो गई, जब आपने मांगा। जो परमात्मा के द्वार पर मांगने जाता है, वह खाली हाथ लौटेगा। जो वहा खाली हाथ खड़ा हो जाता है बिना किसी मांग के, वही केवल भरा हुआ लौटता है।

परमात्मा से कुछ मांगने का अर्थ क्या होता है? पहला तो अर्थ यह होता है कि शिकायत है हमें। शिकायत नास्तिकता है। शिकायत का अर्थ है कि जैसी स्थिति है, उससे हम नाराज हैं। जो परमात्मा ने दिया है, उससे हम अप्रसन्न हैं। जैसा हम चाहते हैं, वैसा नहीं है। और जैसा है, वैसा हम नहीं चाहते हैं।

शिकायत का यह भी अर्थ है कि हम परमात्मा से स्वयं को ज्यादा बुद्धिमान मानते हैं। वह जो कर रहा है, गलत कर रहा है। हमारी सलाह मानकर उसे करना चाहिए वही ठीक होगा। जैसे कि हमें पता है कि क्या है जो ठीक है हमारे लिए।

अगर हम बीमार हैं, तो हम स्वास्थ्य मांगते हैं। लेकिन जरूरी नहीं कि बीमारी गलत ही हो। और बहुत बार तो स्वास्थ्य भी वह नहीं दे पाता, जो बीमारी दे जाती है।


 हम दुखी हैं, तो सुख मांगते हैं। पर जरूरी नहीं कि सुख सुख ही लाए। अक्सर तो ऐसा होता है कि सुख और बड़े दुख ले आता है। दुख भी मांजता है, दुख भी निखारता है, दुख भी समझ देता है। हो सकता है, दुख के मार्ग से निखरकर ही आप जीवन के सत्य को पा सकें और सुख आपके लिए महंगा सौदा हो जाए।

इसलिए क्या ठीक है, यह जो परमात्मा पर छोड़ देता है, वही प्रार्थना कर रहा है। जो कहता है कि यह है ठीक और तू पूरा कर, वह प्रार्थना नहीं कर रहा है, वह परमात्मा को सलाह दे रहा है।  आपकी सलाह का कितना मूल्य हो सकता है? काश, आपको यह पता होता कि क्या आपके हित में है! वह आपको बिलकुल पता नहीं है। आपको यह भी पता नहीं है कि वस्तुत: आप क्या चाहते हैं! क्योंकि जो आप सुबह चाहते हैं, दोपहर इनकार करने लगते हैं। और जो आपने आज सांझ चाहा है, जरूरी नहीं है कि कल सुबह भी आप वही चाहें।

पीछे लौटकर अपनी चाहो को देखें। वे रोज बदल जाती हैं; प्रतिपल बदल जाती हैं। और यह भी देखें कि जो चाहें पूरी हो जाती हैं, उनके पूरे होने से क्या पूरा हुआ है? वे न भी पूरी होतीं, तो कौन—सी कमी रह जाती? ठीक हमें पता ही नहीं है। हम क्या मांग रहे हैं पुन क्यों मांग रहे हैं? क्या उसका परिणाम होगा?

सुना है मैंने कि एक मन्दिर में,  एक बुजुर्ग प्रार्थना कर रहा था। और वह परमात्मा से कह रहा था कि अन्याय की भी एक हद होती है! सत्तर साल से निरंतर, जब से मैंने होश सम्हाला है—उस बुजुर्ग की उम्र होगी कोई पचासी वर्ष—जब से मैंने होश सम्हाला है, सत्तर वर्ष से तेरी प्रार्थना कर रहा हूं। दिन में तीन बार प्रार्थनागृह में आता हूं। बच्चे का जन्म हो, कि लड़की की शादी हो, कि घर में सुख हो कि दुख हो, कि यात्रा पर जाऊं या वापस लौटु कि नया धंधा शुरू करूं, कि पुराना बंद करूं, ऐसा कोई भी एक काम जीवन में नहीं किया, जो मैंने तेरी प्रार्थना के साथ शुरू न किया हो। जैसा आदेश है धर्मशास्त्रों में, वैसा जीवन जीया हूं। परस्त्री को कभी बुरी नजर से नहीं देखा। दूसरे के धन पर लालच नहीं की। चोरी नहीं की। झूठ नहीं बोला।। बेईमानी नहीं की। परिणाम क्या है? और मेरा साझीदार है, स्त्रियों के पीछे भटककर जिंदगीभर उसने खराब की है। तेरी प्रार्थना कभी उसे करते नहीं देखा। चोरी, बेईमानी, झूठ, सब उसे सरल है। जुआड़ी है, शराब पीता है। लेकिन दिन दूनी रात चौगुनी उसकी स्थिति अच्छी होती गई है। अभी भी स्वस्थ है। मैं बीमार हूं। धन का एक टुकड़ा हाथ में न रहा। सिवाय दुख के मेरे पल्ले कुछ भी नहीं पड़ा है। कारण क्या है? और मैं यह नहीं कहता हूं कि तू मेरे साझीदार को दंड दे। सिर्फ इतना ही पूछता हूं कि मेरा कसूर क्या है? इतना अन्याय मेरे साथ क्यों? यह कैसे न्याय की व्यवस्था है?

मन्दिर में परमात्मा की आवाज गंजी कि सिर्फ छोटा सा कारण है। बिकाज यू हैव बीन नैगिंग मी डे इन डे आउट लाइक एन आथेंटिक वाइफ। एक प्रामाणिक पत्नी की तरह तुम मेरा सिर खा रहे हो जिंदगीभर से, यही कारण है, और कुछ भी नहीं। तुम तीन दफे प्रार्थना क्या करते हो, तीन दफे मेरा सिर खाते हो!

आपकी प्रार्थना से अगर परमात्मा तक को अशांति होती हो, तो आप ध्यान रखना कि आपको शाति न होगी। आपकी प्रार्थनाएं क्या हैं? नैगिंग। आप सिर खा रहे हैं। ये प्रार्थनाएं आपकी आस्तिकता का सबूत नहीं हैं, और न आपकी प्रार्थना का। और न आपका हार्दिक इन मांगों से कोई संबंध है। ये सब आपकी वासनाएं हैं। लेकिन हमारी तकलीफ ऐसी है। बुद्ध हों, महावीर हों, कृष्ण हों, वे सभी कहते हैं; मोहम्मद हों या क्राइस्ट हों, वे सभी कहते हैं कि तुम्हारी सब मांगें पूरी हो जाएंगी, लेकिन तुम उसके द्वार पर मांग छोड़कर जाना। यही हमारी मुसीबत है। फिर हम उसके द्वार पर जाएंगे ही क्यों?

हमारी तकलीफ यह है कि हम उसके द्वार पर ही इसीलिए जाना चाहते हैं कि हमारी मांगें हैं और मांगें पूरी हो जाएं। और ये सब शिक्षक बड़ी उलटी शिक्षा देते हैं। वे कहते हैं कि तुम अपनी मागें छोड़ दो, तो ही उसके द्वार पर जा सकोगे। और फिर तुम्हारी सब मांगें भी पूरी हो जाएंगी। कुछ मांगने को न बचेगा; सब तुम्हें मिल जाएगा। लेकिन वह जो शर्त है, वह हमसे पूरी नहीं होती।


हमारी सारी हालत ऐसी है। हम तो परमात्मा के द्वार पर इसलिए जाते हैं कि कोई क्षुद्र मांग पूरी हो जाए। और ये सारे शिक्षक हमसे कहते हैं कि तुम मांग छोड़कर वहां जाना, तो ही उसके द्वार में प्रवेश पा सकोगे, तो ही उसके कान तक तुम्हारी आवाज पहुंचेगी। लेकिन हमारी दिक्कत यह है कि तब हम आवाज ही क्यों पहुंचाना चाहेंगे? हम उसके द्वार पर ही क्यों जाएंगे? हम उसके द्वार पर दस्तक ही क्यों देंगे? हम तो वहां जाते इसलिए हैं कि कोई मांग पूरी करना चाहते हैं।

लेकिन जो माग पूरी करना चाहता है, वह उसके द्वार पर जाता ही नहीं। वह मंदिर के द्वार पर जा सकता है, मस्जिद के द्वार पर जा सकता है, उसके द्वार पर नहीं जा सकता। क्योंकि उसका द्वार तो दिखाई ही तब पड़ता है, जब चित्त से मांग विसर्जित हो जाती है। उसका द्वार वहां किसी मकान में बना हुआ नहीं है। उसका द्वार तो उस चित्त में है, जहां मांग नहीं है, जहां कोई वासना नहीं है, जहां स्वीकार का भाव है। जहां परमात्मा जो कर रहा है, उसकी मर्जी के प्रति पूरी स्वीकृति है, समर्पण है, उस हृदय में ही द्वार खुलता है।

मंदिर के द्वार को उसका द्वार मत समझ लेना, क्योंकि मंदिर के द्वार में तो वासना सहित आप जा सकते हैं। उसका द्वार तो आपके ही हृदय में है। और उस हृदय पर वासना की ही दीवाल है। वह दीवाल हट जाए, तो द्वार खुल जाए।

तो ऐसा मत पूछें कि आपकी प्रार्थनाएं, आपका भजन, आपका ध्यान, आपकी मांग को पूरा क्यों नहीं करवाता! आपकी मांग के कारण भजन ही नहीं होता, ध्यान ही नहीं होता, प्रार्थना ही नहीं होती। इसलिए पूरे होने का तो कोई सवाल ही नहीं है। जो चीज शुरू ही नहीं हुई, वह पूरी कैसे होगी? आप यह मत सोचें कि आखिरी चीज खो रही है। पहली ही चीज खो रही है। पहला कदम ही वहा नहीं है। आखिरी कदम का तो कोई सवाल ही नहीं है।

प्रेम मांगशून्य है। प्रेम बेशर्त है। जब आप किसी को प्रेम करते हैं, तो आप कुछ मांगते हैं? आपकी कोई शर्त है? प्रेम ही आनंद है। प्रार्थना परम प्रेम है। अगर प्रार्थना ही आपका आनंद हो, आनंद प्रार्थना के बाहर न जाता हो, कोई मांग न हो पीछे जो पूरी हो जाए। तो आनंद मिलेगा, प्रार्थना करने में ही आनंद मिलता हो, तो ही प्रार्थना हो पाती है। तो जब प्रार्थना करने जाएं तो प्रार्थना को ही आनंद समझें। उसके पार कोई और आनंद नहीं है।

सुना है मैंने कि एक फकीर ने रात एक स्वप्न देखा कि वह स्वर्ग में पहुंच गया है। और वहां उसने देखा मीरा को, कबीर को, चैतन्य को नाचते, गीत गाते, तो बहुत हैरान हुआ। उसने पास खड़े एक देवदूत से पूछा कि ये लोग यहां भी नाच रहे हैं और गीत गा रहे हैं! हम तो सोचे थे कि अब ये स्वर्ग पहुंच गए, तो अब यह उपद्रव बंद हो गया होगा। ये तो जमीन पर भी यही कर रहे थे। इस चैतन्य को हमने जमीन पर भी ऐसे ही नाचते और गाते देखा। इस मीरा को हमने ऐसे ही कीर्तन करते देखा। यह कबीर यही तो जमीन पर कर रहा था। और अगर स्वर्ग में भी यही हो रहा है, स्वर्ग में आकर भी अगर यही होना है, तो फिर जमीन में और स्वर्ग में फर्क क्या है?

तो उस देवदूत ने कहा कि तुम थोड़ी—सी भूल कर रहे हो। तुम समझ रहे हो कि ये कबीर, चैतन्य और मीरा स्वर्ग में आ गए हैं। तुम समझ रहे हो कि संत स्वर्ग में आते हैं। बस, यहीं तुम्हारी भूल हो रही है। संत स्वर्ग में नहीं आते। स्वर्ग संतों में होता है। इसलिए संत जहां होंगे, वहीं स्वर्ग होगा। तुम यह मत समझो कि ये संत स्वर्ग में आ गए हैं। ये यहां गा रहे हैं और आनंदित हो रहे हैं, इसलिए यहां स्वर्ग है। ये जहां भी होंगे, वहां स्वर्ग होगा। और स्वर्ग मिल जाए, इसलिए इन्होंने कभी नाचा नहीं था। इन्होंने तो नाचने में ही स्वर्ग पा लिया था। इसलिए अब इस नृत्य का, इस आनंद का कहीं अंत नहीं है। अब ये जहां भी होंगे, यह आनंद वहीं होगा। इन संतों को नरक में डालने का कोई उपाय नहीं है।

आप आमतौर से सोचते होंगे कि संत स्वर्ग में जाते हैं। संतों को नरक में डालने का कोई उपाय नहीं है। संत जहां होंगे, स्वर्ग में होंगे। क्योंकि संत का हृदय स्वर्ग है।

प्रार्थना जब आ जाएगी आपको, तो आप यह पूछेंगे ही नहीं कि प्रार्थना पूरी नहीं हुई! प्रार्थना का आ जाना ही उसका पूरा हो जाना है। उसके बाद कुछ बचता नहीं है। अगर प्रार्थना के बाद भी कुछ बच जाता है, तो फिर प्रार्थना से बड़ी चीज भी जमीन पर है। और अगर प्रार्थना के बाद भी कुछ पाने को शेष रह जाता है, तो फिर आपको, प्रार्थना क्या है, इसका ही कोई पता नहीं है।

प्रार्थना अंत है, प्रार्थनापूर्ण हृदय इस जगत का अंतिम खिला हुआ फूल है। वह आखिरी ऊंचाई है, जो मनुष्य पा सकता है। वह अंतिम शिखर है। उसके पार, उसके पार कुछ है नहीं।

पर आपकी प्रार्थना के पार तो बड़ी क्षुद्र चीजें होती हैं। आपकी प्रार्थना के पार कहीं नौकरी का पाना होता है। आपकी प्रार्थना के पार कहीं बच्चे का पैदा होना होता है। आपकी प्रार्थना के पार कहीं कोई मुकदमे का जीतना होता है।

इन प्रार्थनाओं को आप प्रार्थना मत समझना, अन्यथा असली प्रार्थना से आप वंचित ही रह जाएंगे। असली प्रार्थना का अर्थ है, अस्तित्व का उत्सव। असली प्रार्थना का अर्थ है, मैं हूं, इसका धन्यवाद। मेरा होना परमात्मा की इतनी बड़ी कृपा है कि उसके लिए मैं धन्यवाद देता हूं। एक श्वास भी आती है और जाती है.......।

कभी आपने सोचा कि आपकी अस्तित्व को क्या जरूरत है? आप न होते, तो क्या हर्ज हो जाता? कभी आपने सोचा कि अस्तित्व को आपकी क्या आवश्यकता है? आप नहीं होंगे, तो क्या मिट जाएगा? और आप नहीं थे, तो कौन—सी कमी थी? आप अगर न होते, कभी न होते, तो क्या अस्तित्व की कोई जगह खाली रह जाती? आपके होने का कुछ भी तो अर्थ, कुछ भी तो आवश्यकता दिखाई नहीं पड़ती। फिर भी आप हैं। जैसे ही कोई व्यक्ति यह अनुभव करता है कि मेरे होने का कोई भी तो कारण नहीं है, और परमात्मा मुझे सहे, इसकी कोई भी तो जरूरत नहीं है; फिर भी मैं हूं फिर भी मेरा होना है, फिर भी मेरा जीवन है।

यह जो अहोभाव है, इस अहोभाव से जो नृत्य पैदा हो जाता है, जो गीत पैदा हो जाता है, यह जो जीवन का उत्सव है, यह जो परमात्मा के प्रति कृतज्ञता का बोध है कि मैं बिलकुल भी तो किसी उपयोग का नहीं हूं, फिर भी तेरा इतना प्रेम कि मैं हूं। फिर भी तू मुझे सहता है और झेलता है। शायद मैं तेरी पृथ्वी को थोड़ा गंदा ही करता हूं। और शायद तेरे अस्तित्व को थोड़ा—सा उदास और रुग्ण करता हूं। शायद मेरे होने से अड़चन ही होती है, और कुछ भी नहीं होता। तेरे संगीत में थोड़ी बाधा पडती है। तेरी धारा में मैं एक पत्थर की तरह अवरोध हो जाता हूं। फिर भी मैं हूं। और तू मुझे ऐसे सम्हाले हुए है, जैसे मेरे बिना यह अस्तित्व न हो सकेगा।

यह जो अहोभाव है, यह जो ग्रेटिटयूड है, इस अहोभाव, इस धन्यता से जो गीत, जो सिर झुक जाता है, वह जो नाच पैदा हो जाता है, वह जो आनंद की एक लहर जग जाती है, उसका नाम प्रार्थना है। जरूरी नहीं है कि वह शब्दों में हो।

शब्दों में तो जरूरत ही इसलिए पड़ती है कि जीवन से हमें कहने की कला नहीं आती। नहीं तो प्रार्थना मौन होगी। शब्द तो सिक्खड़ के लिए हैं। वे तो प्राथमिक, जिसको अभी कुछ पता नहीं है, उसके लिए हैं। जो जान लेगा कला, उसका तो पूरा अस्तित्व ही अहोभाव का नृत्य हो जाता है।

एक गरीब फकीर एक मस्जिद में प्रार्थना कर रहा था। उसके पास ही एक बहुत बुद्धिमान, शास्त्रों का बड़ा जानकार, वह भी प्रार्थना कर रहा था। इस गरीब फकीर को देखकर ही उस पंडित को लगा.....।

पंडित को सदा ही लगता है कि दूसरा अज्ञानी है। पंडित होने का मजा ही यही है कि दूसरे का अज्ञान दिखाई पड़ता है। और दूसरे के अज्ञान में अहंकार को तुष्टि मिलती है।

तो पंडित को देखकर ही लगा कि यह गरीब फकीर, कपड़े-लत्ते भी ठीक नहीं, शक्ल-सूरत से भी पढ़ा-लिखा, सुसंस्कृत नहीं मालूम पड़ता है, गंवार है, यह क्या प्रार्थना कर रहा होगा! और जब तक मेरी अभी प्रार्थना नहीं सुनी गई, इसकी कौन सुन रहा होगा! ऐसे अशिष्ट, गंवार आदमी कीं-असंस्कृत-इसकी प्रार्थना कहां परमात्मा तक पहुंचती होगी! मैं परिष्कार कर-करके हैरान हो गया हूं; और प्रार्थना को बारीक से बारीक कर लिया है, शुद्धतम कर लिया है; अभी मेरी आवाज नहीं पहुंची, इसकी क्या पहुंचती होगी! फिर भी उसे जिज्ञासा हुई कि यह कह क्या रहा है! वह धीरे- धीरे गुनगुना रहा था।

वह फकीर कह रहा था, परमात्मा से कि मुझे भाषा नहीं आती; और शब्दों का जमाना भी मुझे नहीं आता। तो मैं पूरी अल्फाबेट बोले देता हूं। ए बी सी डी, पूरी बोले देता हूं। तू ही जमा ले, क्योंकि इन्हीं सब अक्षरों में तो सब प्रार्थनाएं आ जाती हैं। तू ही जमा ले कि मेरे काम का क्या है और तू ही प्रार्थना बना ले।

वह पंडित तो बहुत घबड़ा गया कि हद की मूढ़ता है। यह क्या कह रहा है! कि मैं तो सिर्फ अल्फाबेट जानता हूं; यह बारहखड़ी जानता हूं; यह मैं पूरी बोले देता हूं। अब जमाने का काम तू ही कर ले, क्योंकि सभी शास्त्र इन्हीं में तो आ जाते हैं, और सभी प्रार्थनाएं इन्हीं से तो बनती हैं। और मुझसे भूल हो जाएगी। तू ठीक जमा लेगा। तेरी जो मर्जी, वही मेरी मर्जी!

वह पंडित तो बहुत घबड़ा गया। उसने आख बंद कीं और परमात्मा से कहा कि हद्द हो गई। मेरी प्रार्थना अभी तक तुझ तक नहीं पहुंची, क्योंकि मेरी कोई मांग पूरी नहीं हुई। क्योंकि मांग पूरी हो, तो ही हम समझें कि प्रार्थना पहुंची। और यह आदमी, यह क्या कह रहा है!

सुना उसने अपने ध्यान में कि उसकी प्रार्थना पहुंच गई। क्योंकि न तो उसकी कोई मांग है, न पांडित्य का कोई दंभ है। वह यह भी नहीं कह रहा है कि मेरी मांग क्या है। वह कह रहा है कि तू ही जमा ले। जो इतना मुझ पर छोड़ देता है, उसकी प्रार्थना पहुंच गई।

प्रार्थना है उस पर छोड़ देना। खुद पकड़कर रख लेना वासना है; उस पर छोड़ देना प्रार्थना है। अपने को समझदार मानना वासना है; सारी समझ उसकी और हम नासमझ, ऐसी भाव-दशा प्रार्थना है।




कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...