विषाद और संताप से आत्म—क्रांति की और
गाण्डीव स्रंसते हस्तात्त्वफ्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन: ।।30।।
निमित्तानि च पश्यामि वियरीतानि केशव।
न च श्रेयोsनुयश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।।31।।
न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
कीं नो राज्येन गोविन्द कीं भोगैजीवितेन वा ।।32।।
तथा हाथ से गांडीव धनुष गिरता है। और ऋचा थी बहुत जलती है तथा मेरा मन भ्रमित—सा हो रहा है। इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूं। और हे केशव! लक्षणों को भी विपरीत ही देखता हूं तथा युद्ध में अपने कुल को मारकर कल्याण भी नहीं देखता। हे कृष्ण ! मैं विजय को नहीं चाहता और राज्य तथा सुखों को भी नहीं चाहता। हे गोविंद! हमें राज्य से क्या प्रयोजन। अथवा भोगों से और जीवन से भी क्या प्रयोजन है।
अर्जुन बड़ी सशर्त बात कह रहा है;
शर्त से बंधा उसका वक्तव्य है। सुख के भ्रम से वह मुक्त नहीं हुआ है। लेकिन वह कह रहा है कि अपनों को मारकर जो सुख मिलेगा, ऐसे सुख से क्या प्रयोजन? अपनों को मारकर जो राज्य मिलेगा, ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन? अगर अपनों को बिना मारे राज्य मिल जाए, और अपनों को बिना मारे सुख मिल जाए, तो अर्जुन लेने को तैयार है। सुख मिल सकता है, इसमें उसे कोई संदेह नहीं है। कल्याण हो सकता है, इसमें उसे कोई संदेह नहीं है। अपनों को मारने में उसे संदेह है।
इस मनोदशा को समझ लेना उपयोगी है। हम सब भी ऐसे ही शर्तों में सोचते हैं। जैसे सारा जीवन ही यदि पर खड़ा है। यदि ऐसा हो तो सुख मिल सकेगा, यदि ऐसा न हो तो सुख नहीं मिल सकेगा। यदि ऐसा हो तो कल्याण हो सकेगा, यदि ऐसा न हो तो कल्याण नहीं हो सकेगा। लेकिन एक बात निश्चित है कि सुख मिल सकता है, शर्त पूरी होनी चाहिए। और मजे की बात यही है कि जिसकी शर्त है, उसे सुख कभी नहीं मिल सकता है। क्यों ? क्योंकि जिसे सुख का भ्रम नहीं टूटा, जिसका सुख का मोह भंग नहीं हुआ, उसे सुख नहीं मिल सकता है।
सुख मिलता है केवल उसे, जो इस सत्य को जान लेता है। कि सुख इस जगत में संभव नहीं है। बड़ा उलटा दिखाई पड़ता है। जो सोचता है, इस जगत में सुख मिल सकता है, कुछ शर्तें भर पूरी हो जाएं, वह केवल नए—नए दुख खोजता चला जाता है। असल में हर दुख को खोजना हो तो सुख बनाकर ही खोजना पड़ता है। दुख के खोजने की तरकीब ही यही है कि उसे सुख मानकर खोजना पड़ता है। जब तक खोजते हैं तब तक सुख मालूम पड़ता है, जब मिल जाता है तब दुख मालूम पड़ता है। लेकिन मिल जाने के बाद कोई उपाय नहीं है।
अर्जुन अगर कहे कि सुख संभव कहा है? संसार में कल्याण संभव कहा है? राज्य में प्रयोजन कहा है? अगर वह ऐसा कहे तो उसका प्रश्न बेशर्त है, अनकडीशनल है। तब उत्तर बिलकुल और होता। लेकिन वह यह कह रहा है, अपनों को मारकर सुख कैसे मिलेगा? सुख तो मिल सकता है, अपने न मारे जाएं तो सुख लेने को वह तैयार है। कल्याण तो हो सकता है, राज्य में प्रयोजन भी हो सकता है, लेकिन अपने न मारे जाएं तो ही राज्य में प्रयोजन हो सकता है।
राज्य व्यर्थ है, सुख व्यर्थ है। अर्जुन के सारे वक्तव्य उसकी विरोधी मनोदशा की सूचना देते हैं। वह जिस चीज को कह रहा है, बेकार है, उस चीज को बेकार जान नहीं रहा है। वह जिस चीज को कह रहा है, क्या प्रयोजन? क्या फायदा? वह पूरे वक्त मन में जान रहा है कि फायदा है, प्रयोजन है, सिर्फ उसकी शर्त पूरी होनी चाहिए। उसका यदि अगर पूरा हो जाए, तो सुख मिलेगा, इसमें उसे कोई भी संदेह नहीं है।
अर्जुन साफ नहीं है, बहुत उलझा हुआ है। चित्त की गांठ उसकी बहुत इरछी—तिरछी है। वह कह रहा है, सुख तो मिल सकता है, लेकिन यदि अपने न मरें। वह कहता है, राज्य कल्याणकारी है मिल जाए तो, यदि अपने न मरें। यह यदि ही उसकी गांठ है। और जो आदमी ऐसा कहता है, उसे—सुख, राज्य..धन, यश—उनका मोह नहीं टूट गया है; उनकी आकांक्षा नहीं टूट गई है; उनकी अभीप्सा नहीं टूट गई है। पीछे वह बहुत तैयार है, सब मिल जाए, लेकिन उसके यदि भी पूरे होने चाहिए।
इसीलिए कृष्ण को निरंतर पूरे समय उसके साथ श्रम करना पड़ रहा है। वह श्रम उसके सेल्फ—कंट्राडिक्टरी, उसके आत्म—विरोधी चिंतन के लिए करना पड़ रहा है। क्योंकि पूरे समय यह दिखाई पड़ रहा है कि वह जो कह रहा है, वही चाह रहा है। जिससे भाग रहा है, उसी को मांग रहा है। जिससे बचना चाह रहा है, उसी को आलिंगन कर रहा है।
अर्जुन की यह दशा ठीक से समझ लेनी चाहिए। ऐसा अर्जुन हम सबके भीतर है। जिसे हम एक हाथ से धकाते हैं, उसे दूसरे हाथ से खींचते रहते हैं। जिसे हम एक हाथ से खींचते हैं, उसे दूसरे से धकाते रहते हैं। एक कदम बाएं चलते हैं, तो तत्काल एक कदम दाएं चल लेते हैं। एक कदम परमात्मा की तरफ जाते हैं, तो एक कदम तत्काल संसार की तरफ उठा लेते हैं।
यह जो अर्जुन है, ऐसी बैलगाड़ी की तरह है, जिसमें दोनों तरफ बैल जुते हैं। वह दोनों तरफ खिंच रहा है। वह कह रहा है, सुख तो है, इसलिए मन भागता है। वह कह रहा है, लेकिन अपनों को मारना पड़ेगा, इसलिए मन लौटता है। यह स्व—विरोध है, स्मरण रखने योग्य है, क्योंकि अर्जुन की पूरी चित्त—दशा इसी स्व—विरोध का फैलाव है।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल
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