सोमवार, 12 अक्टूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 1 भाग 1

  


गीता दर्शन

विचारवान अर्जुन और युद्ध का धर्मसंकट

धृतराष्ट्र उवाच

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।। १।।


धृतराष्ट्र बोले: हे संजय, धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में इकट्ठे हुए, युद्ध की इच्छा वाले, मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया?




धृतराष्ट्र आंख से अंधे हैं। लेकिन आंख के न होने से वासना नहीं मिट जाती; आंख के न होने से कामना नहीं मिट जाती। काश! सूरदास ने धृतराष्ट्र का खयाल कर लिया होता, तो आंखें फोड़ने की कोई जरूरत न होती। सूरदास ने आंखें फोड़ ली थीं; इसलिए कि न रहेंगी आंखें, न मन में उठेगी कामना! न उठेगी वासना! पर आंखों से कामना नहीं उठती, कामना उठती है मन से। आंखें फूट भी जाएं, फोड़ भी डाली जाएं, तो भी वासना का कोई अंत नहीं है।

एक दिन ऐसी घटना हुई कि जिसने सूरदास के मन को मोह लिया। हुआ ये की एक सुन्दर नवयुवती कन्या नदी किनारे कपडे धो रही थी ।

इन  का ध्यान उनकी तरफ चला गया। उस युवती ने इनको ऐसा आकर्षित किया की ये कविता लिखना छोड़-छाड़ के तथा पुरे ध्यान से उस युवती को देखने लगे।

उनको ऐसा लगा मानो यमुना किनारे राधिका स्नान कर के बैठी हो । उस नवयुवती ने भी सूरदास की तरफ देखा और उनके पास आकर बोली आप मदन मोहन जी हो ना?

तो वे बोले हां मैं हीं मदन मोहन हूँ। कविताये लिखता हूँ तथा गाता भी हूँ आपको देखा तो रुक गया। नवयुवती ने पूछा क्यों ? तो वह बोले आप हो ही इतनी सुन्दर। 

ये सिलसिला कई दिनों तक चला। जब यह बात मदन मोहन के पिता को पता चली तो उनको बहुत क्रोध आया तो लगाई मदन मोहन को तगड़ी फटकार इस पर मदन मोहन ने घर छोड़ दिया। पर उस सुन्दर युवती का चेहरा उनके सामने से नहीं जा रहा था एक दिन वह मंदिर मे बैठे थे तभी वहाँ एक शादीशुदा बहुत ही सुन्दर स्त्री आई। मदन मोहन ने उसको देखा और उनके पीछे पीछे चल दिए। जब वह उसके घर पहुंचे तो उनके पति ने दरवाजा खोला तथा पुरे आदर सम्मान के साथ उन्हें अंदर बिठाया। 

सूरदास को एहसास हुआ कि आंखों की वजह से मेरा मन भटक रहा है।अगर यह आंखें न होती तो मैं यूं अपने प्यारे मन मोहन श्री कृष्ण के भजन को छोड़ कर हाड़ मांस के पुतले का पीछा नहीं करता। मदन मोहन ने दो जलती हुए सिलाई मांगी तथा उसे अपनी आँख में डाल दी। इस तरह मदन मोहन बने महान कवि सूरदास।

ऐसा भी माना जाता है कि इनका वास्तविक नाम सूरध्वज था। और इनको सूरदास की उपाधि इनके गुरु वल्लभाचार्य ने दी थी।

कुछ यह भी मानते हैं कि सूरदास जन्म से ही अन्धे थे। परन्तु सूर वास्तव में जन्मान्ध नहीं थे, क्योंकि शृंगार तथा रंग-रुपादि का जो वर्णन उन्होंने किया है वैसा कोई जन्मान्ध नहीं कर सकता।

गीता की यह अदभुत कथा एक अंधे आदमी की जिज्ञासा से शुरू होती है। असल में इस जगत में सारी कथाएं बंद हो जाएं, अगर अंधा आदमी न हो। इस जीवन की सारी कथाएं अंधे आदमी की जिज्ञासा से शुरू होती हैं। अंधा आदमी भी देखना चाहता है उसे, जो उसे दिखाई नहीं पड़ता; बहरा भी सुनना चाहता है उसे, जो उसे सुनाई नहीं पड़ता। सारी इंद्रियां भी खो जाएं, तो भी मन के भीतर छिपी हुई वृत्तियों का कोई विनाश नहीं होता है।

तो पहली बात तो आपसे यह कहना चाहूंगा कि स्मरण रखें, धृतराष्ट्र अंधे हैं, लेकिन युद्ध के मैदान पर क्या हो रहा है, मीलों दूर बैठे उनका मन उसको जानने के लिए उत्सुक, जानने को पीड़ित, जानने को आतुर है। दूसरी बात यह भी स्मरण रखें कि अंधे धृतराष्ट्र के सौ पुत्र हैं, लेकिन अंधे व्यक्तित्व की संतति आंख वाली नहीं हो सकती है; भला ऊपर से आंखें दिखाई पड़ती हों। अंधे व्यक्ति से जो जन्म पाता है--और शायद अंधे व्यक्तियों से ही लोग जन्म पाते हैं--तो भले ऊपर की आंख हो, भीतर की आंख पानी कठिन है।

यह दूसरी बात भी समझ लेनी जरूरी है। धृतराष्ट्र से जन्मे हुए सौ पुत्र सब तरह से अंधा व्यवहार कर रहे थे। आंखें उनके पास थीं, लेकिन भीतर की आंख नहीं थी। अंधे से अंधापन ही पैदा हो सकता है। फिर भी यह पिता, क्या हुआ, यह जानने को उत्सुक है।

तीसरी बात यह भी ध्यान रख लेनी जरूरी है। धृतराष्ट्र कहते हैं, धर्म के उस कुरुक्षेत्र में युद्ध के लिए इकट्ठे हुए...।

जिस दिन धर्म के क्षेत्र में युद्ध के लिए इकट्ठा होना पड़े, उस दिन धर्मक्षेत्र धर्मक्षेत्र बचता नहीं है। और जिस दिन धर्म के क्षेत्र में भी लड़ना पड़े, उस दिन धर्म के भी बचने की संभावना समाप्त हो जाती है। रहा होगा वह धर्मक्षेत्र, था नहीं! रहा होगा कभी, पर आज तो वहां एक-दूसरे को काटने को आतुर सब लोग इकट्ठे हुए थे।

यह प्रारंभ भी अदभुत है। यह इसलिए भी अदभुत है कि अधर्मक्षेत्रों में क्या होता होगा, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है। धर्मक्षेत्र में क्या होता है? वह धृतराष्ट्र संजय से पूछते हैं कि वहां युद्ध के लिए आतुर मेरे पुत्र और उनके विरोधियों ने क्या किया है, क्या कर रहे हैं, वह मैं जानना चाहता हूं।

धर्म का क्षेत्र पृथ्वी पर शायद बन नहीं पाया अब तक, क्योंकि धर्मक्षेत्र बनेगा तो युद्ध की संभावना समाप्त हो जानी चाहिए। युद्ध की संभावना बनी ही है और धर्मक्षेत्र भी युद्धरत हो जाता है, तो हम अधर्म को क्या दोष दें, क्या निंदा करें! सच तो यह है कि अधर्म के क्षेत्रों में शायद कम युद्ध हुए हैं, धर्म के क्षेत्रों में ज्यादा युद्ध हुए हैं। और अगर युद्ध और रक्तपात के हिसाब से हम विचार करने चलें, तो धर्मक्षेत्र ज्यादा अधर्मक्षेत्र मालूम पड़ेंगे, बजाय अधर्मक्षेत्रों के।

हजारों साल पहले, जब हम कहें कि बहुत भले लोग थे पृथ्वी पर, और कृष्ण जैसा अदभुत आदमी मौजूद था, तब भी कुरुक्षेत्र के धर्मक्षेत्र पर लोग लड़ने को ही इकट्ठे हुए थे! यह मनुष्य की गहरे में जो युद्ध की पिपासा है, यह मनुष्य की गहरे में विनाश की जो आकांक्षा है, यह मनुष्य के गहरे में जो पशु छिपा है, वह धर्मक्षेत्र में भी छूट नहीं जाता, वह वहां भी युद्ध के लिए तैयारियां कर लेता है।

इसे स्मरण रख लेना उपयोगी है। और यह भी कि जब धर्म की आड़ मिल जाए लड़ने को, तो लड़ना और भी खतरनाक हो जाता है। क्योंकि तब जस्टीफाइड, न्याययुक्त भी मालूम होने लगता है।

यह अंधे धृतराष्ट्र ने जो जिज्ञासा की है, उससे यह धर्मग्रंथ शुरू होता है। सभी धर्मग्रंथ अंधे आदमी की जिज्ञासा से शुरू होते हैं। जिस दिन दुनिया में अंधे आदमी न होंगे, उस दिन धर्मग्रंथ की कोई जरूरत भी नहीं रह जाती है। वह अंधा ही जिज्ञासा कर रहा है।  


 (भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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